-संजय द्विवेदी
फिल्मी परदे के नायकों की खलनायकों के रूप में वापसी देखकर लोग हैरत में हैं। मीडिया इन नायकों की बेबसी पर आंसू बहा रहा है। वह चाहता है कि पूरा देश भी इनके दु:ख में टेसुए बहाए। नायकों का भारतीय दंड संहिता के उल्लघंन में जेलों में आना-जाना देखकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के जज्बात छलक-छलक पड़ते हैं। किसी को गांधीजी का कलयुगी अवतार और किसी को लवगुरु बताता मीडिया चाहता है कि दुनिया का मनोरंजन करने वालों को आखिर सताया क्यों जा रहा है। जैसे उनका जेल आना-जाना या अपराधकर्म में लिप्त होना उनके नायकत्व का ही हिस्सा हो।
क्या इसलिए बख्श दें उन्हें
एके -56 खरीदने वालों को इसीलिए बख्स दो जज साहब क्योंकि गांधीजी की आत्मा अब इन में प्रवेश कर गई है। ये अब वैसे नहीं रहे, बहुत बदल गए हैं और सलमान खान, पूरी फिल्म इंडस्ट्री इन्हीं पर टिकी है। एकाध शिकार कर लिया तो क्या बड़ी बात है। शिकार तो राजाओं का शौक रहा है। हमारे हीरो ने एक हिरन क्या मार लिया क्यों हाय तौबा मचा रखी है। पूरी दुनिया को अपनी बॉडी दिखाकर ये आदमी आप सबका मनोरंजन भी तो करता है। एक हिरन की मौत के लिए क्या इंडस्ट्री पर ताले डलवावोगे।
कलाकारों का महिमामंडन
यह साधारण नहीं है कि अपराध कर्मों के लिए मीडिया किस कदर इन नायकों का महिमा मंडन कर रहा है। मोनिका बेदी से लेकर सलमान, संजय दत्त या अमिताभ बच्चन, सब इस समय टीवी चैनलों के दुलारे हैं। इसलिए नहीं कि इन्होंने फिल्मी पर्दे पर अपना जादू दिखाया है बल्कि इसलिए कि वे निजी जिंदगी में भी कुछ ऐसा कर रहे हैं जिसकी उम्मीद इनसे नहीं की जाती। 'लगे रहो मुन्नाभाई' नामक फिल्म की सफलता के बाद जिस तरह संजय दत्त की छवि को बदलने के सचेतन प्रयास किए गए, वह आश्चर्यचकित करता हैं।
गांधी की आड़ सही नहीं
पर्दे पर गांधीगिरी दिखाने वाले हीरो की निजी जिंदगी में घटी घटनाएं क्या बिसरा दी जाएंगी। अंडरवर्ल्ड से उनके रिश्ते क्या गांधीवाद की आड़ में भुला दिए जाने चाहिए। अपराध से बचने के लिए राष्ट्रपिता के नाम का ऐसा इस्तेमाल शायद ही पहले कभी किया गया हो। मंदिर-मंदिर भटक रहे और अचानक पुण्यात्मा के रूप में तब्दील हो गए इन सिने कलाकारों की मजबूरी और बेबसी समझी जा सकती है। पर अफसोस कि हमारा मीडिया भी इनके साथ भक्ति भाव में झूम रहा है। गलत करना, फिर मन्नतें करना और भगवान को मोटा चढ़ावा चढ़ाना ये सारी खबरें क्यों और किसलिए सुनाई जा रही हैं। इसे समझ पाना बहुत कठिन नहीं है।
आम आदमी के आंसू नहीं दिखते
जेल जाते ही बीमार हो जाना और वहां से अस्पताल में शिफ्ट हो जाने जैसी नौटंकियों को बड़ा हृदयविदारक दृश्य मानकर परोसा जा रहा है। गांधी के विचारों से प्रभावित व्यक्ति प्रायश्चित के लिए खुशी-खुशी सजा को स्वीकार करता है ना कि अलग-अलग तरह की नौटंकियों से अदालती कार्रवाई को प्रभावित कर समाज की सहानुभूति पाने का प्रयास करता है। कानून का राज क्या इसी तरह चलेगा? मन और विचारों को बदलने के बजाए नई-नई खबरें फैलाई जा रहीं है कि उन्हें रात भर नींद नहीं आई, करवटें बदलते रहे, आंसू बहाते रहे, रिश्तेदार तड़पते रहे। क्या ये सारा कुछ सिर्फ हाई प्रोफाइल अपराधियों के साथ ही होता है। क्या गरीब आदमी या रोटी के संघर्ष में जेल जा रहे लोगों की परिवार नहीं होते। किन्तु उनके पीछे कैमरे नहीं होते, आंसू बहाने वाला मीडिया नहीं होता, समर्थन में बयान दे रहे केंद्र सरकार के मंत्री नहीं होते।
घटनाओं को भुनाता मीडिया
मिलने के लिए जेल जा रहे चमकीले चेहरे नहीं होते। जेल से निकलकर अपने घर पहुंचकर जब वे अपने मकान की बुर्ज पर निकलकर हाथ हिलाकर लोगों का अभिवादन करते हैं तो मीडिया बाग-बाग हो जाता है। वाह ! मेरा हीरो और उस पर फिदा कैमरे। राखी के त्यौहार को ही इस प्रसंग पर भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। परिवार, भावनाएं, व्यवसाय और रिश्ते सब के साथ जुड़े हैं। इसके नाते किसी को विशेषाधिकार नहीं मिल जाते। किन्तु मीडिया द्वारा किसी के अपराधकर्म पर ऐसा वातावरण बनाना जिससे उन्हें निर्दोष बरी कराया जा सके उचित नहीं कहा जा सकता।
तारीफे काबिल न्यायपालिका
बावजूद उसके हमारी न्यायपालिका ने पूरा संयम रखते हुए जिस तरह से फैसले किए हैं उसकी तारीफ की जानी चाहिए। इन मासूम तर्कों के आधार पर वह न झुकी न प्रभावित हुई, शायद यही कानून की ताकत है जिसने ताकतवर लोगों को भी समय-समय पर अच्छा पाठ पढ़ाया है। आरोप साबित होने पर दंड का विधान है यदि उसे भावनाओं और मीडिया ट्रायल के आधार पर हल किया जाएगा तो देश में कानून का राज कैसे बचेगा। हाई प्रोफाइल लोग वैसे भी कानून को बंधक बनाने के लिए मशहूर हैं। ऐसे छोटे-छोटे फैसले अगर कानून में थोड़ी बहुत आस्था बचा कर रख रहे हैं तो उसे बचाए और बनाए रखना हम सब की जिम्मेदारी है। आपकी, हमारी, हम सबकी।
(लेखक दैनिक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। )
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