जब तिमिर घिरे हो कर अछोर
जब तिमिर घिरे हो कर अछोर
ला सके सूर्य भी जब न भोर
तब क्या मुझको दे पाओगे
पथ दिखा सके वह एक किरन ?
पथ का हर सम्बल छूट जाय
विश्वास, आस सब टूट जाय
अक्षय अपयश ही रहे शेष
तब दे पाओगे अपनापन ?
मैं नहीं माँगता अभय शरण
मैं नहीं माँगता कृपा-सुमन
सारा जग ठुकरा दे तब क्या
दे पाओगे आशीर्वचन ?
जब तिमिर घिर हो कर अछोर
ला सके सूर्य भी जब न भोर
तब क्या मुझको दे पाओगे
पथ दिखा सके वह एक किरन ?
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जब तिमिर घिरे हो कर अछोर
ला सके सूर्य भी जब न भोर
तब क्या मुझको दे पाओगे
पथ दिखा सके वह एक किरन ?
पथ का हर सम्बल छूट जाय
विश्वास, आस सब टूट जाय
अक्षय अपयश ही रहे शेष
तब दे पाओगे अपनापन ?
मैं नहीं माँगता अभय शरण
मैं नहीं माँगता कृपा-सुमन
सारा जग ठुकरा दे तब क्या
दे पाओगे आशीर्वचन ?
जब तिमिर घिर हो कर अछोर
ला सके सूर्य भी जब न भोर
तब क्या मुझको दे पाओगे
पथ दिखा सके वह एक किरन ?
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इन फूलों ने अधर न खोले
शंख मचाते रहे शोर पर
इन फूलों ने अधर न खोले ।
होते रहे समर्पित प्रति दिन
हँसते-हँसते खिलकर, झरकर ।
बसते रहे सुरभि ले कर वे
साँसों के पथ, हृदय उतर कर ।।
कोई ऐसा फूल नहीं जो
नयनों में कुछ रंग न घोले ।
शंख मचाते रहे शोर पर
इन फूलों ने अधर न खोले ।।
कर्कश ध्वनि के सिवा शंख के
अन्तर से कुछ कभी न निकला ।
रंग, रूप, रस, गंधहीन वह
जीवन भर ही रहा खोखला ।।
आत्म प्रशंसालीन शंख ये
रहे जन्म से ही बड़बोले ।
शंख मचाते रहे शोर पर
इन फूलों ने अधर न खोले ।।
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किरन मंत्र
बादलों ने हाथ मेरा
पकड़ कर मुझसे कहा
खोल अपने पंख
सागर पार तक आओ चलें ।
मैं अपाहिज-सा पड़ा था
देवता के पाँव पर
भाग्य ने मुझको लगाया
सांस के हर दाँव पर
किरन मंत्रों से जगा कर
सूर्य ने मुझसे कहा
छोड़ यह चौखट
सुबह के द्वार तक आओ चलें ।
प्रार्थना का स्वर लबालब
आँसुओं से भर गया
पत्थरों पर फूल का
सौरभ असर कुछ कर गया
हृदय की ज्वाला बुझा कर
आंसुओं ने तब कहा
छोड़ यह पनघट
मनुज के प्यार तक आओ चलें ।
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(स्व. श्री हरि ठाकुर हिन्दी के वरिष्ठतम गीतकारों में एक सम्मानित नाम हैं । इनकी 30 से अधिक कृतियाँ प्रकाशित और चर्चित रही हैं । छत्तीसगढ के महत्वपूर्ण इतिहासविद्, स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी । छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण में इनकी महती भूमिका रही है । सृजन-सम्मान की स्थापना श्री हरि ठाकुर ने आज से 10 वर्ष पूर्व की थी । संपादक)
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