4/13/2006

सप्ताह के कहानीकारः परदेशी राम वर्मा


''रात-रात में''

परदेशीराम वर्मा

तपती दुपहरिया में पुस्तैनी लाठी लेकर ज्योंही वह घर से बाहर निकला कि टप्प से एक चिड़िया पीठ के बल धरती पर गिरकर ऐंठ सी गई।
''बाम्हन चिरई मर गे महराज'' पंडित रामरतन दुबे को उसके नौकर ने दु:खी होकर बताया। घर के आगे मिट्टी की नांदी में पानी भरा हुआ था। नांदी से पानी निकाल कर रामरतन ने चिड़िया पर डाला। चिड़िया के शरीर में हरकत नहीं हुई। उसके दोनों पांव ऊपर की ओर उठ गये। आंखे बंद हो गई।
इस इलाके में गौरैया को बाम्हन चिरई कहा जाता है। नाजुक-सी घरेलू चिड़िया गर्मी नहीं सह पाती। अधिक ठंड भी नहीं। वह घरों में घोसला बनाकर रहती है।
रामरतन दुबे को गौरैया के लिए बाम्हन चिरई संबोधन अच्छा नहीं लगता। एक पराश्रित सी रहने वाली छोटी सी कमजोर चिड़िया का नाम बाम्हन चिरई क्यों रखा गया वह अक्सर खिसिया कर यह प्रश्न अपने बुजुर्गो से पूछते हैं। चील, कौवा, तोता, मयूर, कोयल ये भी तो हैं। इन्हें कोई बाम्हन चिरई नहीं कहता। न ही इन्हें कोई किसी जाति की चिड़िया कहता है। अधिक हुआ तो ''आदमी में नौवा और पक्षी में कौवा'' जैसी कहावत भर सुनाई पड़ती है। और तो और जंगली मैना को इस प्रदेश का पक्षी घोषित किया गया है। मुख्यमंत्री के हेलीकाप्टर का नाम भी मैना है। बाम्हन चिरई अर्थात गौरैया को इस प्रदेश में मान नहीं मिला।
रामरतन दुबे ने सोचा, जब बाम्हन को ही इस प्रदेश क्या देश में ही लोग फूटी आंख देना नहीं चाहते तब बाम्हन चिरई की क्या बिसात।
अपनी पुस्तैनी लाठी को झुलाकर उसने कंधे पर घर लिया। ठीक उसी तरह जिस तरह उसके बाबू मौके बेमौके धर लेते थे। बाबू ने ही बताया है कि यह लाठी इलाहाबादी लाठी है। शुरू-शुरू में जब इस इलाके में ब्राम्हण परिवार सौ डेढ़ सौ बरस पहले आया तब यहां के लोग ठेंगमार बाम्हन कहकर दूर भाग जाते थे। फिर धीरे-धीरे यारी-दोस्ती हुई। चुनावों में इलाके के लहीम शहीम लठैत तो खैर बहुत बाद तक आये। अब कट्टा का जमाना है।
''कट्टा'' को याद करते ही रामरतन को अपने ससुर की याद हो आई। वे रीवाड़ी कट्टा वाले महराज कहलाते हैं। सदैव कट्टा रखकर चलते हैं।
पिछले दिनों वे रामरतन के बाबू से मिलने आये थे। वे सजग ब्राम्हण हैं। दुनिया जहान की खबर रखते हैं। कट्टे से उनके ब्रम्हतेज में बढ़ोत्तरी होती है। वे कहते हैं कि केवल गाल बजाने से काम नहीं चलने वाला। ब्राम्हणों को अगर वशिष्ट पर गर्व है तो उन्हें परशुराम पर अभिमान भी है।
दोनों धाराये जीवित रहेंगी तब जाकर मान की रक्षा होगी। उन्होंने ही बताया था कि बड़े-बड़े शहरों में ब्राम्हणों का जातीय संगठन काम कर रहा है। संगठन वाले जाति के हित के लिए बहुत सारी योजनायें बना रहे हैं। एक-एक आदमी पर नजर रखनी होगी। कोई हमारा लड़का कविता लिख रहा है तो दो प्रोत्साहन। मंच पर बिठाओं। मंच पर जबरदस्ती चढ़ाओं। जगह इसी तरह बनाई जाती है। कोई कहानी लिख रहा है तो उसे रास्ता बताओ। समाज में जो जमे हुए कथाकार हैं वे बडे संपादकों को सिफारिशी चिट्ठी लिखें। दो तीन कहानी किसी की ढंग की पत्रिका में छप गई तो बन गई जगह। कोई प्रवचन कर रहा है तो उसे आगे बढ़ाओ। कोई राजनीति में है तो दो प्रोत्साहन। इस तरह जब भिड़ोगे तब पार पा सकोगे। वर्ना गए कौड़ी के मोल। जो जहां है उसे वहीं स्थापित होने के लिए बल देना होगा। बात-बात में बाबू ने बता दिया कि तुम्हारा दामाद रामरतन भी तो कविता करता है। उसे भी तो आगे बढ़ाओं।
रामरतन के ससुर इस नई जानकारी से ऐसे प्रसन्न हुए जैसे उन्हें कोई गुप्त खजाना मिल गया हो। उन्होंने रामरतन को आवाज देकर पास बुलाया और कहा, ''बेटा, तुम तो छुपे रूस्तम निकले। मुझे गर्व है तुम पर लगे रहो। बुध्दि की छाया ही तो ब्राम्हण को दुनिया भर के आतप से बचाती है।''
रामरतन घर से बाहर निकला तो तमतमाये हुए सूरज से उसका सामना हुआ। उसे ससुर की बात याद आई। उसने सोचा कि सूरज का आतप अपनी जगह और मेरी बुध्दि अपनी जगह।
यह सोचते हुए उसे कवि पदमाकर की मौसम विषयक कवितायें याद हो आई।
तभी नौकर बाम्हन चिरई को पकड़कर बाहर फेंकने के लिए निकला।
''घर से निकलते असगुन होगे साले हा'' रामरतन ने कहा।
वह बाहर निकला तो सहसा लू के बगूले उठने लगे। किरणों की बर्छी का सामना करते हुए रामरतन आगे बढ़ चला। उसे हर हाल में आज दिन भर में सब खेल जमा लेना था।
''रात होय तो छाती जुड़ाय'' बुदबुदाते हुए रामरतन आगे बढ़ा। तालाब के किनारे की सड़क पकड़कर वह थाने की ओर बढ़ा। तालाब में बहुत कम पानी बचा था। तालाब में लगा लकड़ी का खम्बा बीच से टूटकर गिर गया था। टूटे हुए स्तंभ को देखकर रामरतन उदास हो गया।
सामने ही मंदिर था। मंदिर का कलश पिछले दिनों कोई चुरा ले गया। शाम तक तो कलश मंदिर में लकलका रहा था, रात को गायब हो गया।
''सभी रात को ही करिश्मा दिखाते हैं'' यह सोचकर रामरतन दुबे को हंसी आ गई

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गर्मियों में वैसे भी दिन लंबे होते हैं। अपने समय पर ही दिन जाता है और समय पर ही रात घिरती है। शाम होते ही बच्चे छुप्पा-छुप्पी खेलने लगे। रामरतन थाने से चुपचाप घर लौटा। रात धीरे-धीरे उतर रही थी। अंजोरी पाख का चांद ऊपर चढ़ रहा था। गांव की गली में चांद की रोशनी छिटक रही थी। लोग बियारी करने के बाद धीरे-धीरे निर्धारित स्थल पर बैठकी में शामिल होने के लिए निकल रहे थे।
सब आ गये तो रामरतन दुबे ने नारा लगाया -
''बोल राजा रामचन्द्र की जय''
बीड़ी तमाखू के शौकीनों पर जयकारे का असर कभी नहीं हुआ। वे उसी तरह मगन रहते हैं। हालांकि पंडित हर बैठक में यह निवेदन भी नाटकीय अंदाज में करना नहीं भूलते .......
''बीड़ी तमाखू यहां न पीना, पीना तो बाहर जाकर,
गारी गल्ला यहां न देना, देना तो बाहर जाकर.''
मगर सब कुछ वहीं उसी तरह होता चलता है। कोई बाहर नहीं जाता। हां, इतना जरूर होता कि नीम पेड़ के ऊपर अंधेरे में चुपचाप पांख दाबे बैठी कोई चिड़िया आवाज सुनकर घुरघुरा उठती है। एक चिड़िया, फिर दो चिड़िया फिर तीन, इस तरह कुछ देर के लिए चिड़ियों का कोलाहल बजने लगता है। कभी ऐसी नहीं हुआ कि गांव में दिन को कोई बैठका हो जाय। रात के भोजन के बाद ही बैठकें अधरतिया तक चलती है। चाहे वह बैठका जाति बिरादरी की समस्या को लेकर हो या फिर दशहरे के दिन रावण मारने की तैयारी के लिए।
आज की बैठक में आसपास के गांवों के कुछ जातीय नेता भी आये हैं। पंडित दो दिन तक गांव में घूम-घूम कर यही खुशी जाहिर कर रहे थे कि ''कुत्ते'' बैठका करेंगे। गांव वाले पंडित की बात का मजा लेते। वे जानते थे कि ''कुत्ते'' शब्द जो है वह बहुत अर्थपूर्ण है।

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हमारे गांव में रामरतन के पिताजी गोकरण दुबे पटवारी बनकर आये थे। हमारा गांव उन्हें कुछ इस तरह भा गया कि वे यहीं बस गये।
पिछड़े दलितों के इस गांव में पूजा पाठ के लिए बहुत दूर से पंडित आते थे। गोकरण महराज आ गये तो गांव के मंदिर में रोज घंटी-घड़ियाल भी बजने लगा।
गांव वालों ने कहा- बिना कलश का मंदिर और बिना पंडित का गांव बेकार है। अब जाकर गांव की शोभा बनी थी।
पटवारीगिरी करते हुए चार एकड़ जमीन तो वे यहां ले ही चुके थे। दस एकड़ जमीन एक विधवा तेलिन ने मरते समय उन्हें दान में दे दिया। तेलिन निपूती थी। लखन कुर्मी के कहने समझाने पर गयाबती तेलिन ने लिखा पढ़ी कर दी। कुछ दिनों में वह चल बसी। अब पंडित परिवार इस गांव का अच्छा बड़ा किसान हो गया। पटवारीगिरी के साथ महाराज भागवत भी बांचने लगे। शुरूवात गांव के किसान रिखीराम के आंगन में दस लोगों के बीच कथा बाचने से हुई। धीरे-धीरे वे इलाके के प्रसिध्द कथावाचक हो गये। भागवत का सीजन नहीं रहता तो वे हरि कीर्तन करने निकल जाते। हरिकीर्तन करने जाते तो साथ में गाने के लिए राधा रजक को भी ले जाते। राधा रजक बाल विधवा थी। पंडित जी की शुरू से उन पर कृपा थी। वह तो कहती भी थी कि मैं राधा और भजनहा पंडित किसन कन्हैया। जीवन धन्य हो गया जो इनकी सेवा का मुझे अवसर लगा। वर्ना कहां पंडित जी और कहां मैं।
गोकरण दुबे ने भी जीवन भर राधा का साथ दिया। चाहे लाख गांव वाले ताका-पासा करते मगर गोकरण दुबे रात्रि भोजन के बाद दो घंटे के लिए राधा के घर जरूर जाते। गर्मी का दिन हो तो आंगन में खाट डालकर लेट जाते। राधा घर में तब तक भोजन पानी बनाकर पंडित जी की सेवा के लिए एकदम तैयार हो चुकी होती। कटोरी में तेल लेकर वह आंगन में पसरे पंडित जी के पास आती।
राधा के शरीर पर हल्की सी साड़ी भर होती।
गांव में ब्लू फिल्में तो आज भी नहीं पहुंची है मगर हमारे गांव में गोकरण पंडित और राधा का जो लीलाप्रसंग आंगन में होता था, उसे साधकों की मंडली चांदनी रात में पेड़ों पर चढ़कर देखती और कृतार्थ होती थी। एक बार तो गज़ब ही हो गया।
गर्मी के दिन थे। गोंबर से लिपे आंगन में किनारे किनारे मोगरे के खिलखिलाते फूल मार महर-महर महक रहे थे। महक पेड़ों पर चढ़े लड़को के नथूनों तक पहुंच रही थी।
राधा तब थी तकरीबन पैंतीस की। भरी-पूरी दुहरी देंह की। उस रात आई और सीधे उसने पंडित जी की धोती सर्र से खोल दी। पंडित उसी तरह आसमान में तारे गिनते मस्त पड़े रहे। पेड़ों पर चढ़े लड़कों ने देखा, राधा न पांव की ओर झुकी न मुंह की ओर पंडित के कमर के ऊपर झुक गई। झुकी तो बही की तरह चटाचट भी करने लगी। एक लड़के से रहा न गया। मारे उत्तेजना के वह डाल से कूद ही तो गया। उस दिन पंडित जी ''कोन ये बे, साले हइतारा हो।'' कहते हुए राधा के घर से निकल आये।
दूसरे दिन शाम को रामायण बांचते हुए पंडित जी ने व्याख्या के दौरान लगभग रोते हुए कहा-
''सुनहू भरत भावी प्रबल बिलख कहेऊ मुनि नाथ,
हानि लाभ जीवन मरण, जस अपजस विधि हाथ.''
अर्थात यश और अपयश भगवान के हाथ है। मैं देख रहा हूं कि गांव में चेलिन के यहां जाने पर लोग ताका पासा करते हैं। धिक्कार है। मैं इस गांव को छोड़कर कहीं और चला जाऊंगा।
''महिमा घटी समुद्र की, रावण बसा पड़ोस''
एक घर का मैं पंडित, अगल-बगल कुर्मी-तेली। भला क्यों हमारी महिमा बढ़ने लगी।
यह कहकर पंडित जी रोने लगे।
कुर्मियों के नेता समारू मंडल और तेलिया के नेता रामू मंडल में दोस्ती खूब थी। दोनों रिश्ते में पंडित गोकरण दुबे को भांटो अर्थात जीजा मानते थे। असल बात यही थी। गोकरण दुबे की बाई इसी गांव की बेटी थी। इसीलिए गोकरण दुबे कुर्मी-तेली से भरे इस गांव भर के कुर्मियों-तेलियों को उम्र के हिसाब से या तो साला मानते या भतीजा।
गोकरण दुबे ने उस दिन कहा, ''यह सालों की कारस्तानी नहीं है, है यह पूत-भतीजों की बदमाशी, छुप-छुप कर, पेड़ों पर चढ़कर मुझ जैसे सन्यासी पर नजर रखते है। धिक्कार है मुझे। अब मैं यहां का पानी भी नहीं पिऊंगा।'' यह कहकर गोकरण पंडित उठ ही रहे थे कि दोनों समाज के प्रमुखों ने पांव पकड़ लिया। कहा कि महराज, जिस गांव से पंडित रिसा गये उसका विनासा तय है। किरपा करिये। अब गलती नहीं होगी।
बड़ी मुश्किल से गोकरण दुबे उस दिन माने। फिर लड़कों ने उस तरह आंगन में कृष्ण लीला देखने की हिम्मत तो नहीं की लेकिन जहां चाह है वहां राह है। इधर उधर छिपकर नौजवान गर्मी के दिनों में आंगन में छलकते प्रेमरस मदिरा का आनंद ले ही लेते ।
पंडित गोकरण दुबे और राधा के बीच तो कभी ऐसी बाधा नहीं आई कि उन्हें हमारे गांव से फिर जाने का विचार कभी सूझा हो। हां, उनका बेटा अलबत्ता बीच-बीच में गांव वालों से नाराज हो जाते है।

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गोकरण पंडित के सपूत रामरतन पंडित ही अब गांव में खेती बाड़ी देखते है। गोकरण दुबे तो अब लगभग सत्तर वर्ष के हैं। मगर अपने से पन्द्रह बरस छोटी चेली राधा के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ है। वे नियमित रूप से राधा को आशीर्वाद देने उसकी कुटिया में आज भी जाते हैं।
एक बरस पहले कुर्मी-तेली समाज के लड़कों ने राधा के घर की सांकल ही लगा दी। कुछ पढ़े लिखे नौजवान बौरा गये थे। रामरतन को पता लगा कि उनके बाबूजी को राधा के घर में धांध दिया गया है तो वे बरछा अपने नौकरों के साथ हुंकारते हुए आये। लड़के सब किनारे हो गये। रामरतन ने ललकारते हुए कहा -
''हमको मिटा सके, कुत्तों में वह दम नहीं,
कुत्ते खुद हमसे हैं, हम कुत्तों से नहीं.''
अर्थात कुर्मी और तेली यह न समझें कि हममें दम नहीं है। यह ''कुत्ते शब्द'' रामरतन का आविष्कार है। कुर्मी का कु और तेली का ते अर्थात कुते। कु और ते में अपनी ओर से आधा त् मिलाकर उन्होंने यह शब्द बनाया 'कुत्ते'।
उस दिन घर आकर पंडित गोकरण दुबे खाट में जो पसरे तो फिर उठ ही न सके। उन्हें बड़ा गहरा धक्का लगा। गोकरण दुबे ने अपने होनहार सपूत रामरतन को पास बुलाकर कहा, ''बेटा, कुछ बात अब आखिरी समय में मुझसे भी सुन लो। तुम सुनते ही नहीं। बेटा जब रावण युध्द क्षेत्र में श्री राम से मार खाकर गिर पड़ा तब श्रीराम के कहने पर लक्ष्मण राजनीति सीखने उसके सिरहाने जा खड़ा हुआ। सीखना है बेटा तो पैताने बैठ.......'' इतना कहकर पंडित गोकरण चुप हो गये। रामरतन ने खिसियाते हुए कहा - ''बाबू, न आप रावण हैं न मैं लक्ष्मण हूं। मैं जहां बैठा हूं वहीं ठीक हूं। आप कहिए क्या कहना चाहते हैं।''
पंडित गोकरण ने कहा, ''बेटा, अब जो जमाना आ रहा है उसमें तुम्हें बहुत सम्हलकर रहना पड़ेगा। हर कोई पंडित को पायलागी नहीं कहेगा, अब तो 'पांव बड़ लो पंडित' कहने वालों का जमाना आ रहा है।''
रामरतन ने बीच में अपने बाप से टोकते हुए कहा- ''बाबू, इतना मैं भी समझता हूं।''
''तुम नहीं समझते बेटा, तुम कुछ नहीं समझते।''
''क्या नहीं समझता बाबू?''
''यहीं कि हमारी जाति का जोर अब हीं चलेगा।''
''दिमाग का जोर तो चलेगा।''
''वह तो सनातन है।''
''तो समझिए पंडितों का राजसदा रहेगा।''
''ये तो ब्रम्ह सत्य है।''
''तो आप क्यों चिंतित हैं।''
''तुम्हारी बेवकूफी से।''
''कौन सी?''
''कुत्ते वाली''
''ठीक तो है बाबृ। साले आग मूत रहे हैं। बड़ी संख्या में हैं तो किसी को कुछ नहीं समझते। और वो समारू मंडल। जाने कब मरेगा हरामी। पतना ही नहीं चला कि उसकी जान कहां है। जब भी चुनाव आता है, कुर्मी-तेली भाई-भाई का नारा देकर नाक में दम करवा देता है। इन्हें तो बाबू पाठ पढ़ाना ही होगा।''
''तो पढ़ाओं न पाठ तुम्हारा ताकत बेटा लाठी नहीं है। अक्ल है तुम्हारी ताकत। उसे पजाओ।''
''मैं समझा नहीं बाबू''
''मूरख, जानता है इस गांव में एक तेलिन लड़की का पेट एक कुर्मी नौजवान ने भर दिया है।''
''आप भी पिताश्री वैसे के वैसे ही रह गये। इसमें क्या नई बात है? भर दिया तो तो भर दिया है। हमारा तो कोई नुकसान नहीं किया है।''
''धिक्कार है रे तुम्हारे बाम्हन होने में। रहे लंठ के लंठ।''
''गाली देने में बाबू आप तो परसराम के अवतार हो जाते हैं।''
''गाली नहीं दे रहा हूं बेटा, सिर पीट रहा हूं। वे तुम्हारे बाप को कंलकित करना चाहते थे। मजा तो तब है कि तुम उन्हें कलंकित कर दो।''
''कैसे बाबू?''
''तेली का तेली दुश्मन, कुर्मी का कुर्मी। मेरे पास दोनो समाज के लोग आते हैं। दुश्मनी कहां नहीं है बेटा। बस उसे परवान चढ़ाने की कला आनी चाहिए। इस कला में हमसे बड़ा सिध्द कौन हुआ है? मैंने लड़के के बाप और लड़की के बाप को समझाकर कह दिया है कि पेट उतरवा कर आ जाओं नहीं तो धंस जाओगे। वे शहर से उतरवा कर आ भी गये। खलास हो गई है लड़की। तुम आज जाओं थाने में। वहां थानेदार नागेन्द्र पाण्डे को सब बता दो। वह दूर के रिश्ते में तुम्हारा मौसेरा भाई भी तो है। कहां किस अस्पताल में पेट गिरवाया है, वह भी बता दो। बाकी सब मैं देख लूंगा। दिन भर में सब गुंताड़ा जमा लो, रात को देखो फिर क्या गुल खिलता है।''

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थानेदार नागेन्द्र पाण्डे पहले पंडित जी के घर आये। पंडित जी को उन्होने दण्डवत प्रमाण किया। गोकरण पंडित ने कहा- ''बेटा नागेन्द्र, अब बाम्हन की बाम्हन का पांव छुवेगा। दूसरी छोटी जाति के लोग तो बेटा पांव पड़वाने पर उतारू हैं।''
नागेन्द्र पाण्डे ने फुंफकारते हुए कहा - ''मौसाजी, इन मादरचोदों की आई है शामत। मैं सबका ठेका तो नहीं लेता लेकिन यहां के ''कुत्तों'' को तो ठीक हर ही दूंगा, आपके आशीर्वाद से समझिए।''
''बेटा, तुम भी रामरतन की तरह फुंफकारते बहुत हो। थोड़ा बाम्हन-सुत की तरह रहा करो। शांत, धीर, गम्भीर। तुम्हारी ताकत बुध्दि है बेटा। ब्राम्हण, ठाकुर, कायस्त, भूमिहारों पर कैसी फबती कसता है बिहारी लालू। कहता है कि भूरा बाल उखाड़ो। लो अब हम लोग बाल हो गये। और मायावती का नारा है ''इनको मारो जूते चार'' । तो बाबू समय अब खराब आ रहा है। हमारी ताकत है कम। लेकिन दिमाग है जादा। उसे पजाओ।''
नागेन्द्र पाण्डे ने हंसते हुए कहां - ''मौसा जी, आपके गुंताड़े को देखकर वह कहानी याद हो आती है। एक थे लाला। बड़े फितरती। जीवन भर गांव वालों को लड़ाकर आनंद लेते रहे। मरने लगे तो उन्हें लगा कि मरते मरते भी गांव में झंझट क्यों न खड़ा कर जाऊं। उन्होंने गांव के मुखिया को कहा कि भाई मेरी मुक्ति तब होगी जब मुझे श्मशान ले जाते समय मेरी पिछाड़ी में एक डंडा ठोक कर ले जाओगे। बिचारे सीधे लोग डंडा ठोक कर ले जा रहे थे कि मेरी तरह थानेदार आ गया और में लग गई आग।''
नागेन्द्र पाण्डे की बात सुनकर गोकरण पंडित को पहली बार लगा कि उसकी आशा अब जरूर पूरी होगी।

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गांव वालों को भी खबर लग गई थी कि नागेन्द्र पाण्डे पंडित गोकरण दुबे के घर में विराज रहे हैं। गांव में घर-घर मांग कर ''अन्न भण्डार'' बनाने की पुरानी परम्परा है। भण्डार से गांव में ''अन्नपूर्णा भवन'' बना। उसी भवन के सामने खुले मैदान में बैठका चलती है। अंधेरी रात में भवन के भीतर भी लोग बैठ लेते हैं। अंजोरी पाख में, विशेषकर गर्मियों के दिनों में चांदनी के चंदोबे के नीचे बैठक लगती है। बैठक में लोग कुछ कह पाते की नागेन्द्र पाण्डे आ गये।
थानेदार ने आते ही पेट भरने वाले लड़के कमल को पास बुलाया। लड़के को उन्होंने पूछा- ''कब से सो रहे थे छोकरी के साथ?''
लड़की वालों ने हाथ जोड़कर कहा - ''साहेब, शर्म आती है। ऐसा न पूछिये।''
नागेन्द्र पाण्डे भड़क उठे। उन्होंने दहाड़ते हुए कहा - ''बेटी को तो सोने में शरम नहीं आई। अब तुम लोगों को आ रही है।''
घुड़की खाकर सबने सर झुका लिया।
''गर्मी बहुत है'' रामरतन ने ऊपर देखते हुए कहा।
नागेन्द्र पाण्डे ने मूंछों पर ताव देते हुए जवाब दिया- ''हम तो हैं सभी गर्मी का इलाज।''
गांव के सरपंच ने कहा-''सर जी, गांव की इज्जत का सवाल है। आप मालिक हैं। लड़की का बाप उठे, लड़के का बाप चले, मैं उठूं, आप उठें, पंडित रामरतन उठें .......''
रामरतन ने आगे कहा - ''हां भाई, तुम उठो, तुम भी उठो, तुम भी उठो, तुम भी उठो, कोई खिड़की इसी दीवार पे खुल जायेगी।''
गांव वाले वहीं बैठे रहे।
सात-आठ लोग ''अन्न कोठी'' के भीतर गये। वहां बैठकर सबने तय किया कि तेली समाज को लड़के का बाप देगा पचास हजार,
लड़के के बाप ने हाथ जोड़कर कहा - ''मालिक, कुछ कम नहीं हो सकता?''
नागेन्द्र ने घुडका - '' तुम्हारा लड़का भी खाली नुन्नू को चूत में छुला कर छोड़ दिया होता तो हम भी छोड़ देते। भरपूर मजा लिया है तुम्हारा लड़का तो तुम भी शहशाही दिखाओं। तुम्हारे पास तो चालीस एकड़ जमीन है। क्या कमी है भाई ''कुत्ते'' के पास।''
नागेन्द्र पाण्डे के इस कथन पर रामरतन मुच-मुच हंसने लगा।
फिर नागेन्द्र पाण्डे ने कहा-देखों कुर्मी समाज को भी लड़ने का बाप देगा बीस हजार। अरे, कुर्मी समाज के नौजवान ने ऐश किया है तो क्या समाज ऐश नहीं करेगा। दो बीस हजार।''
लड़के के बाप ने कुछ नहीं कहा।
अब नागेन्द्र पाण्डे ने कहा - ''सुनों जी, इस इलाके के एक एकड़ जमीन की कीमत है सत्तर हजार। तो एक एकड़ तो गई ''कुत्ते'' के लिए। अब आता है बाम्हन का नम्बर। बापू लड़की ने जहां पेट गिरवाया उस डाक्टर का कच्चा चिट्ठा लेकर आये है। हत्था का मामला है सालो। 302 का मामल । कहो क्या करूं?''
थानेदार कुछ और कहता कि तभी एक बिल्ली अन्नकोठी से भदाक से कूदी। उसके मुह में एक बड़ा सा चूहा दबा हुआ था। आसपास खून के छींटे छितरा गये।
नागेन्द्र पाण्डे ने कहा - ''केवल कुत्ते'' का मामला नहीं है। यह तो मामला है पुलिस और मंत्री का भी है। केस दबाना है तो दो लाख रूपये नहीं तो अपनी ऐसी तैसी कराओ।''
कुछ देर सोच विचार कर सबने नागेन्द्र पाण्डे की बात मान ली।
अन्न कोठी से गांव का किसान सुखूराम साहू लुट पिटकर बाहर निकला।
थानेदार नागेन्द्र पाण्डे ने बाहर आते हुए कहा - ''जाओ आदरणीय पंडित गोकरण दुबे को प्रमाण करो। उन्हें यहां मनाकर लाओ और संकल्प लो कि धर्म को धारण करने वालों का कभी अपमान नहीं होगा।
किसान उठकर जाने लगे तब थानेदार ने फुसफुसाते हुए रामरतन के कान में कहा ''भाई, रात-रात में सब कर लो, सबेरा हुआ कि संकट खड़ा हुआ।''


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लेखक हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार हैं । इनकी चर्चित कथा संग्रह हैं- दिन प्रतिदिन, संतराबाई की शर्त, बुधिया की तीन रातें, औरत खेत नहीं (अ. भा. सा. परिषद् भोपाल द्वारा मनमोहन मदारिया सम्मान) । उनके उपन्यास -प्रस्थान को महन्त अस्मिता पुरस्कार तथा जीवनी -आरूग फूल को मध्यप्रदेश परिषद् द्वारा माधवराव सप्रे पुरस्कार प्राप्त हो चुका है । देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में समादृत होती रही हैं उनकी कहानियाँ । सेना व भिलाई स्पात से सेवानिवृति पश्चात स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं । एक पत्रिका अकासदिया भी निकालते हैं । पता है उनका - एल. आई. जी.- 18, आमदीनगर, भिलाई, 490009 , छत्तीसगढ़ । संपादक )

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