4/13/2006

बदनाम फ़रिश्ते

कहानी/ अक्षय मिश्र

समाचार-पत्र-पढ़ते अचानक मेरी नजर निधन कॉलम पर चली गई। वहाँ जिस व्यक्ति का चित्र सहित शोक समाचार प्रकाशित हुआ था उसे पढ़ने के बाद में एकदम भाव-विह्वल हो गया। हालांकि मृतात्मा से मेरा कोई विशेष परिचय नहीं था। न ही वह कोई रिश्तेदार था। वह नगर का एक बदनाम मगर सह्दय व्यक्ति था, जिससे सालों पहले औपचारिक भेंट हुई थी ।

मेरी आँखों के सामने उससे पहली मुलाकात का दृश्य घूम गया । हम लोग एक साहित्यिक कार्यक्रम के आयोजन के सिलसिले में चंदा एकत्र करते घूम रहे थे। उस व्यक्ति से मिलकर के पहले नगर सेठ से मिलने आए थे। वहाँ जिस तरह दुर्मतिपूर्वक और बे-आबरू होकर निकाले गए थे उससे अन्य किसी से मिलने की हिम्मत तो नहीं थी, फिर भी कार्यक्रम आयोजन का बीड़ा उठाया था, सो पूरा करना ही था।

हम लोग जब उसके दरवाजे पर पहुँचे तो दरबान द्वारा तुरंत एक सजे-सजाए कमरे में ले जाकर बैठा दिए गए। वह व्यक्ति सेठजी को खबर करता हूँ-कहते हुए चला गया। सेठ कुख्यात “सट्टाकिंग” था। मेरे जेहन में उसके अच्छे-खासे डीलडौल और रोबिले व्यक्तित्व की कल्पना थी। मगर जब वह सामने आया तो लुंजपुंज, थुलथुले शरीर का व्यक्ति नजर आया। उसके चेहरे पर चेचक के हलके दाग थे। बह धोती और बनियान पहने हुए एक जबान व्यक्ति के कंधे का सहारा लेकर हमारे सामने रखे दीवार पर आकर बैठ गया। फिर क्षमा-याचना करते हुए अधलेटी मुद्रा में आ गया। इस दौरान हम लोगों की आवभगत पानी-चाय से हो चुकी थी।

मौका देखकर हमारे वरिष्ठ साथी ने उससे सभी का परिचय करते हुए अपने आने का कारण बताया। वह व्यक्ति बोला, “अहो भाग्य मेरे, जो इतने सारे बुध्दिजीवियों के एक साथ दर्शन हुए। मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं। मैं अपने को बीमारियों का एक घरौंदा मानता हूँ। मुझे ब्लड प्रेशर, सुगर, लकवा, गठिया और न जाने क्या-क्या बीमारियाँ हैं। मुझे अब तक चार बार हार्ट अटैक आ चुका है। मैं अधिक पढ़ा-लिखा तो नहीं हूँ। गरीबी से अमीरी तथा अमीरी से फकीरी तक का सफर तय कर चुका हूँ। दूर्भाग्य से आप लोग ऐसे समय में आए हैं कि मैं चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। पुलिस की कड़ाई से धंधा एक तरह से बंद ही है । वैसे आप लोग निराश न हों। चार दिन बाद आप में से कोई भी व्यक्ति मेरे यहाँ आ जाए तो बहुत तो नहीं, मगर जो मुझसे बन पड़ेगा वह जरूर करूँगा।’’

उसके कहे हुए शब्दों ने हमारे जले पर मरहम का ही काम किया। उसके व्यवहार ने हम साहित्यकारों को थोड़ा मुखर बना दिया। हममें से एक व्यक्ति बोला, ‘सेठजी ! आप इतने सहृदय हैं, फिर बदनामी वाला काम ही क्यों करते हैं ।’इतना सुनना था कि वह फफककर रो पड़ा। हम लोग कुछ समझ नहीं पाए कि क्या बात हो गई। हम लोगों ने क्षमा-याचना करते हुए रोने का कारण पूछा।

तब वह बोला, ‘मैं एक गरीब घर का लड़का था। घर में दो जून खाने को भी नहीं हुआ करता था। शायद इसी से अधिक पढ़-लिख भी नहीं पाया, लेकिन मेरे सपने तो सुनहरे और आकाश-कुसुम थे। सपने को साकार करने के लिए पैसों की आवश्यकता होती है, जो मेरे पास नहीं था। मैं हमेशा सोचा करता था कि कोई ऐसा व्यवसाय नहीं होता क्या, जिसमें पूँजी कम लगे और फायदा ज्यादा हो। किशोर अवस्था में आने तक ऐसे व्यवसाय की तलाश मुझे हमेशा रही। अंत में मैंने सट्टे को अपने सपने को साकार करनेवाला व्यवसाय मानकर अपना लिया। इसमें एक चवन्नी से लेकर जितनी भी पूँजी लगा लो। मुझ गरीब के लिए इससे अच्छा व्यवसाय कोई नहीं था। भाग्य ने भी साथ दिया। धीरे-धीरे गरीबी से निजात मिलती गई। ऊपर वाले की मेहरवानी थी। दाल-रोटी से बहुत अधिक चाह कभी नहीं रही। मैंने अपनी बचत से अपने दरवाजे तक आनेवालों की सेवा करना कर्तव्य मान लिया। जहाँ तक संभव हो, किसी को निराश नहीं लौटाता। बहुत अधिक भले न दे सकूँ। कुछ-न-कुछ जरूर देने की कोशिश करता हूँ। उस ऊपर वाले के प्रति मेरी अगाध श्रद्धा है, जिसने मुझे यहाँ तक पहुँचाया है । अपने माँ-बाप का भी शूक्रगुजार हूँ कि इस दुनिया में लाकर मुझे इस योग्य बना दिया कि उनको याद रख सकूँ। वह लगातार बोले जा रहा था-मुझे बचपन में पढ़ी एक कविता आज भी याद है -
नौ मास गर्भ में रखती माता,
कितने सपने सजाती है।
खुद संकट में चलकर
फूलों की सेज सजाती है।
रुखी-सूखी खाकर भी,
लाडले को दूध पिलाती है।
पूत कपूत सुना सब ने,
वास्तव में दर्द भरी कविता सुनने के बाद हम सब भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे। सेठ अपनी आँखों को पोंछते हुए बोला,‘आप लोगों ने मुझ अनपढ़, जाहिल के यहाँ आकर मेरी बातें सुनीं, यह’ मेरे लिए किसी स्वर्गिक आनंद से कम नहीं है। आज मैं कुछ नहीं दे पाया हूँ, बल्कि आप लोगों का अमूल्य समय ले लिया। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।’
‘इसकी आवश्यकता नहीं है’ कहते हुए हम लोग चार दिन बाद आने को कहकर बाहर आ गए।

दोबारा चार दिन बाद मुझे ही वहीँ जाना पड़ा। सेठजी ने सम्मानित राशि देकर बस इतना ही कहा, ‘इसका उपयोग अपने कार्यक्रम में कर लीजिएगा, मगर मेरा नाम नहीं न आने पाए, इसका खयाल रखिएगा।’
उनके विचार सुनकर मुझे लगा – ‘बद अच्छा, बदनाम बुरा।’ वह व्यक्ति आज नहीं है, जो बड़े-से-बड़ा काम करने के बाद भी नाम नहीं चाहता था। आज का यूग कुछ न करने पर भी नाम की इच्छा रखने का है। खैर, उन बदनाम फरिश्ते के विचारों को मेरा प्रणाम !

अक्षय मिश्रा
रायगढ़, छत्तीसगढ़

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