6/04/2007

स्वतःस्फूर्त सत्याग्रह का विरोध क्यों .....?


(5 जून 2007-सलवा जुडूम की दूसरी वर्षगांठ पर विशेष आलेख )


- तपेश जैन

यह वहीं छत्तीसगढ़ है जहाँ नालंदा विश्वविद्यालय से भी प्राचीन शिक्षा का कैन्द्र था जहाँ दस हजार से भी ज्यादा बौद्ध भिक्षु शिक्षा प्राप्त करते थे, जहां महाप्रतापी राजा जाजल्यदेव से ले कर महान वैज्ञानिक आयुर्वेद और धर्मगुरु आदि शंकराचार्य ने शिक्षा प्राप्त की। आज इस छत्तीसगढ़ में रहने को कुछ विश्वविद्यालय हैं और यहाँ की 60 प्रतिशत से भी ज्यादा आवादी अनपढ़ है। बहूमूल्य खनिज संपदा हीरा, अलेक्जेड्राइट, कोरंडम, क्वार्टज, लाइमस्टोन, टीन लौह सयस्क, डोलोमाइट, कोयला की भरपूर खदान होने के बाद भी राज्य पिछड़ा हुआ है और साल-सागौन, तेंदूपत्ता, आम, ईमली और महुआ के अलावा कई वनोपजों की भरपूर पैदावार के बाद भी 75 प्रतिशत वनवासी बेहद गरीब हैं। “अमीर धरती के गरीब लोग” ये उक्ति पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अपने भाषणों में हर बार दुहराते रहे, उन्ही गरीब लोगों के नुमाइंदों ने 5 जून 2005 को एक ऐसे अभियान की शुरुआत की जिसने महात्मा गांधी के सत्याग्रह को याद दिलवा दिया। विश्वप्रसिद्ध बस्तर जहाँ आदिम जाति की परंपराएं आज भी जीवित हैं, के फरसगढ़ थाना क्षेत्र के छोटे से गाँव अंबेली में 5जून 2005 को करीब पाँच हजार आदिवासियों का जुडूम हुआ।

जुडूम गोंडी बोली का शब्द है जिसका अर्थ है जुड़ना, वहीं सलवा का मतलब होता है शांति । ये सभा पिछले 25 बरसों से बस्तर मं आतंक और हिंसा का पर्याय बन चुके नक्सली आंदोलन की प्रतिक्रिया थी। हिंसा का प्रतिकार अहिंसा के साथ । इस आंदोलन ने तेजी से लोकप्रियता हासिल की और देखते –देखते दंतेवाड़ा जिला अब नारायणपुर और बीजापुर के भी 500 से ज्यादा गाँवों में इसकी लहर पहुँच गई है। इसके चलते पहली बार ‘नो मेंस लैण्ड’ जैसे अबूझमाड़ क्षेत्र के ग्राम चेरपाल में दस हजार से भी ज्यादा आदिवासी जुड़े । अब तक सौ से भी ज्यादा ग्राम सभाओं से ये शांति अभियान तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद रुकने का नाम नहीं ले रहा है।

गौरतलब है कि सलवा जुडूम अभियान इस बार फिर चर्चा में है, जोर-शोर से देश भर के कथित जनवादी नक्सली समर्थक नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में इस आंदोलन को मानव अधिकार से जोड़ कर जोर-शोर से हल्ला बोल दिए हैं। देश भर के तमाम आंदोलनकारियों का जमावड़ा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जुट रहा है और एक ऐसे अभियान पर निशाना साधा जा रहा है जो हिंसा के खिलाफ़ स्वस्फूर्त खड़ा हुआ है। यहाँ यह याद दिलाना लाजिमी होगा कि देश-दुनिया से दूर बस्तर के आदिवासियों ने सन 1948 में हैदराबाद निजाम द्वारा बस्तर को अपने राज्य में मिलाने के लिए की गई सैनिक कार्यवाही का डर कर मुकाबला किया था और अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखी थी। ये इतिहास ये बताता है कि वनवासियों में ये कूवत है कि वे अगर ठान लें तो हजारों बलिदान के बाद भी हिम्मत नहीं हारते। इसकी याद इसलिए आई कि नक्सलवादी सलवा जुडूम अभियान से बौखला कर बस्तर अंचल में हिंसा का ताण्डव मचा रहे हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री के बयान के अनुसार देश भर में हुई नक्सली हिंसा में छत्तीसगढ़ अव्वल है और यहाँ कल हुई हत्यों के साठ प्रतिशत हिस्सा इस राज्य का है। राज्य सरकार के मुताबिक भी सलवा जुडूम के बाद बस्तर में जून 2005 से जून 2006 के बीच 272 नागरिकों की हत्याएं हुई, वहीं 28 नक्सली लोग मारे गए । यानी अब तक अनुमानतः दो साल में 600 से भी ज्यादा मौत घाट उतार दिए गए हैं।

सलवा जुडूम के घोर विरोधी मुख्यमंत्री अजीत जोगी की मानें तो बस्तर में सलवा जुडूम के चलते बीते साल 272 नहीं बल्कि एक हजार से भी ज्यादा हत्याएं हुई हैं और हजारों लोग बस्तर छोड़ आंध्र प्रदेश पलायन कर चुके हैं। कांग्रेस नेता श्री जोगी के अलावा कम्युनिस्ट पार्टियां और कथित जनवादी संगठन सलवा जुडूम के खिलाफ हैं। विरोध है कि इस अभियान के चलते नक्सली लगातार हत्या कर रहे हैं। बड़े दुख की बात है कि कथित जनवादी नक्सली हिंसा का विरोध करना छोड़ कर प्रतिकार में चल रहे अहिंसक अभियान के खिलाफ़ हैं। इससे उनका मुखौटा जगजाहिर हो जाता है कि वे सशस्त्र जन आंदोलन नक्सवाद का समर्थन करते हैं और गांधीवादी तरीके से नक्सलपंथ के खिलाफ संघर्ष कर रहे आदिवासियों का विरोध भी ।

सलवा जुडूम अभियान से बौखलाए नक्सलियों द्वारा अधाधुंध गाँवों में हमले के बाद आदिवासियों को अपनी जमीन छोड़ कर जंगल के बाहर निकलना पड़ा है। सड़क के किनारे बसे गाँवों में करीब साठ हजार से भी ज्यादा लोग तंबू तान कर रहे रहे हैं। वजह ये है कि रात में नक्सली लूटपाट कर उनकी झोंपड़ियों जला देते हैं और पशु उठा कर ले जाते हैं। ऐसी ही एक गाँव भैरमगढ़ से करीब दस किलोमीटर दूर चिहका गाँव का दौरा करने पर लेखक चरमपंथियों के आतंक से रुबरू हुआ। सलवा जुडूम के बाद राहत शिविरों में सरकारी सहायता में बेहद कमी है लेकिन क्या करें, कहाँ जाएं और अब तो राहत शिविर जहाँ सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी है वहाँ भी नक्सली दुःसाहस कर हमला कर रहे हैं। 16-17 जुलाई 2006 की दरम्यानी रात एर्राबोर राहत शिविर पर प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी को दण्डकारण्य जोनल कमेटी ने घेर कर आग लगाने के बाद जबर्दस्त गोलीबारी की जिसमें दो बच्चों सहित 33 महिला-पुरुष हलाक हो गए । इस हमले के बाद बड़े शान से मीडिया के सामने जोनल कमेटी के सचिव कोसा और प्रवक्ता गुड़सा उसेंडी ने इसकी जवाबदारी लेते हुए सलवा जुडूम को बंद करने का फरमान जारी किया । लेकिन सलवा जुडूम अभियान कोई भारतीय जनता पार्टी या विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस विधायक महेंद्र कर्मा का छोड़ा हुआ अभियान नहीं है जो बंद हो जाएगा।

गृहमंत्री रामविचार नेताम के अनुसार राहत शिविरों में पहले एक साल 30 जून 2006 तक मात्र पाँच करोड़ आठ लाख 84 हजार 227 रुपए का सालाना बजट में ये राशन ऊंट के मुँह में जीरे के समान ही है। नगम्य राशन के खर्च से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार कहीं ना कहीं दबाव में है और राहत शिविरों में रहने वाले भोले-भाले लोगों के भोलेपन का नाजायज़ फायदा उठा रही है। वहीं आंध्रप्रदेश में नक्सली नेता माधव और महाराष्ट्र में गढ़चिरौली के जोनल कमांडर विकास की बैमौत मारे जाने की घटना के बाद छत्तीसगढ़ में अपना अस्तित्व बचाने में जुटे नक्सलियों पर गृहमंत्री देशद्रोही की उपमा दे कर शब्दबाण चला रहे हैं, जबकि जरूरत ग्राउंड हंट की है । यह सरकार की जवाबदेही है कि वह जैसे को तैसा का जवाब दे। अभी तो बिना राजनैतिक महत्वकांक्षा के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह केवल बयानों से ही सलवा जुडूम की वाहवाही लूट रहे हैं। असल नायक तो संघर्ष कर रहे हैं लेकिन ये लड़ाई परिणाम तक जरूर पहुँचेगी और इसे पहुँचाना भी चाहिए क्योंकि यही इंसाफ का तकाज़ा है। (तपेश जैन स्वतंत्र पत्रकार हैं और टेलिफिल्म निर्माण से संबंद्ध हैं)


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2 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

जानकारी देने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती

36solutions ने कहा…

तपेश जी बहुत दिनों बाद आपको पढकर अच्‍छा लगा, आज के विशेष दिन पर आपने पत्रकारिता के धर्म को निबाहते हुए जो लिखा उसके लिए धन्‍यवाद । पिछले दिनों इस स्‍वतः स्‍फूर्त आन्‍दोलन से संबंधित गोष्‍ठी जो दिल्‍ली में आयोजित थी उसमें संभवतः आपके जैसे ही विचार प्रस्‍तुत किए गए थे किन्‍तु उसे राजनैतिक हल्‍ले में फोकस नहीं किया जा सका, लोगों ने कहा यह चारण था, आप स्‍वयं जानते हैं यह चारण नहीं है सडवा जुलुम का विरोध करने वाले चंद लोग ही हैं पर इसका समर्थन करने वाले इन चंद लोगों के विचारों के सामने बौने साबित हो रहे हैं, क्‍यों नहीं छप रहा है ऐसे लेख् समाचार पत्रों पर, इन्‍टरनेट पर तो सडवा जुलुम के समर्थन में यह आपकी पहली रचना है, ‘भाडे में अपनी आवाज बेचने वालों’ के सडवा जुलुम विरोधी एवं हकीकत को सिद्ध करने के लिए समस्‍त संसाधनों से लेस लेख् से अंतरजाल अटा पडा है। आपने इसे लिखा पुनः धन्‍यवाद ऐसे लेख लिखते रहे ताकि लोगों को सच का ज्ञान हो ।
(लेख् में टंकण संबंधी त्रुटियां हैं कृपया सुधार लेवें - ‘डट ’ कर मुकाबला )