7/10/2007

विश्व मंच पर हिन्दी की सार्थकता

प्रसंगः विश्व हिंदी सम्मेलन-13-15 जुलाई2007

अमेरिका में माह जुलाई में आयोजित होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन के चिंतन की मूल भावना (थीम) है-'विश्व मंच पर हिन्दी'। हिन्दी भाषा से प्यार करने और स्वाभिमान रखने वाले हर भारतीय के लिए हिन्दी का विश्व भाषा होना एक गर्व की बात होगी और वह इस आयोजन की सफलता की कामना करेगा, पर साथ ही दिल में चिंतन यह भी पनपेगा कि जब स्वदेशी मंच पर ही हिन्दी हकीकत में विराजमान नही हो पाई है, तो विश्व मंच पर कैसे संभव होगा। इसी दष्टि से सम्मेलन को सार्थक बनाने के लिए चर्चा के लिए कुछ विचार प्रस्तुत हैं।

किसी भी विषय पर चिंतन तब ही सार्थक हो सकता है जब हम सोचें कि हम क्या चाहते हैं, क्यों चाहते हैं और कैसे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं। लक्ष्य को हासिल करना माँग और आपूर्ति के समीकरण पर भी निर्भर करता है

अतः महत्वपूर्ण प्रश्न है कि विश्व मंच पर हिन्दी से हमारा क्या ल्क्ष्य है या हम क्या चाहते हैं। क्या हमारा लक्ष्य हिन्दी साहित्य की दृष्टि से है, या हिन्दी को मनोरंजन की विश्व भाषा बनाने से है, या संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषा बनाना या ज्ञान विज्ञान की वाहक बनाना या हर क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करना।

इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है हम क्यों चाहते हैं। हिन्दी साहित्य, संगीत और मनोरंजन से जुय्डे व्यक्तियों के हित के लिए या इसलिए कि विश्व मंच पर प्रतिष्ठापित करके ही हिन्दी को हकीकत में भारत की राष्ट्रभाषा /राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठापित किया जा सकता है।

आज अपने देश में हिन्दी बाजार और मनोरंजन की भाषा बन चुकी है। अतः मनोरंजन और बाजार की भाषा के रूप में विश्व के लोग इसे अपनाएँगे क्योंकि हिन्दीभाषियों की जन संख्या अधिक होने के कारण विदेशियों के लिए हिन्दी व्यावसायिक दृष्टि से लाभदायक होगी। उसके लिए किसी प्रयास की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि यह माँग और पूर्ति के समीकरण को पूरा करती है। यह देखा जा सकता है कि विदेशों से भारत आने वाले राजदूत हिन्दी का अध्ययन केवल बोलने एवं समझने की दृष्टि से करते हैं, पय्ढने की दृष्टि से नहीं। यह भी देखा जा सकता है कि जब वे राजदूत भारत आकर हिन्दी में बोलते हैं और भारत के लोग अंगरेज़ी में, तो वे सोचते हैं कि उन्होंने हिन्दी सीखने में क्यों समय व्यतीत किया। जिन देशों की अपनी भाषा हर क्षेत्र में प्रतिष्ठापित है, उन देशों मे विदेश से जाने वाले राजदूत उस भाषा का अध्ययन पूरी तरह से करते हैं।

हिन्दी साहित्य को पय्ढने में भी उन्हीं को दिलचस्पी होगी जो या तो साहित्यकार बनना चाहें और भारत को समझना चाहें। हिन्दी साहित्य में दिलचस्पी पैदा करने के लिए विदेशों में सम्मेलन सार्थक सिध्द हो सकते हैं। पर चिंतनीय बात यह है कि हमारे ही देश में अंगरेज़ी माध्यम के स्कूलों की बढौत्तरी के कारण हिन्दी साहित्य के पय्ढने वालों की संख्या कम होती जा रही है। यदि ऐसा रहा तो हिन्दी साहित्यकार किसके लिए साहित्य लिखेगा। विचारणीय है कि विदेशियों में हिन्दी साहित्य के प्रति रुचि पैदा करने से भारतीयों में भी रुचि पैदा हो जाएगी क्या?

हाँ यह विश्व सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषा बनाने में सार्थक सिध्द हो सकता है, पर विचारणीय यह है कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने पर हमारे जो भी प्रतिनिधि वहाँ जाते हैं, उन्हें हिन्दी में बोलना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो भय लगता है कि हिन्दी वैसे ही अपमानित न हो जाए जैसे वह राजभाषा के रूप में अपने ही देश में अपमानित हो रही है। कोई भी भाषा तब अपमानित होती है, जब उसका प्रयोग उस उद्देश्य के लिए न हो जिसके लिए उसे निधारित किया गया है। यह देखा जा सकता है कि वर्तमान में जिस देश की राष्ट्रभाषाएं संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषाएँ हैं, उस देश से आने वाले प्रतिनिधि उस देश की राष्ट्रभाषा में ही बोलते हैं। हमारे राष्ट्र के संविधान में कोई भी भारतीय भाषा संपूर्ण भारत की सम्पर्क राष्ट्रभाषा घोषित नहीं है और राजभाषा के रूप में घोषित भाषा हिन्दी सभी देशवासियों को मान्य नही हैं। अतः इस सम्मेलन में यह सुनिश्चित करने के लिए चिंतन आवश्यक है कि हमारे देश के सभी प्रतिनिधि हिन्दी में बोलें।

कार्यभाषा के रूप में न तो वह राष्ट्र की सम्पर्क भाषा है और न ही राजभाषा होते हुए भी वह हकीकत में राजभाषा है। यह हम सभी जानते हैं कि आज इस कम्प्यूटर युग में हिन्दी हकीकत में तब ही राजभाषा बन सकती है जब वह पूर्ण रूप से संगणक (कम्प्यूटर) की भाषा बन जाए। संविधान में राष्ट्र की सम्पर्क राष्ट्रभाषा न होने एवं अंगरेज़ी के प्रयोग की छूट के कारण निजी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी संस्थानो, उच्च शैक्षणिक एवं व्यावसायिक शिक्षा एवं सभी क्रिया कलापों की लिखने पय्ढने की भाषा का माध्यम अंगरेज़ी है। इसी कारण अंगरेज़ी माध्यम से शिक्षा के स्कूलों की संख्या दिन प्रति दिन बय्ढती जा रही है। अतः विचारणीय है कि हिन्दी को भारत मे ही ज्ञान–विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठापित किए बिना उसे विश्व मंच पर कैसे प्रतिष्ठाापित किया जा सकता है।

यह तब ही संभव है जब भारत में उच्च शैक्षणिक शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो और संविधान में संशोधन करके राजभाषा हिन्दी राष्ट्र की सम्पर्क राष्ट्रभाषा घोषित हो और अंगरेज़ी की अनिवार्यता समाप्त हो तथा अंगरेज़ी का अध्ययन एक विषय के रूप में किया जाए। इस सम्मेलन में इस तथ्य पर चर्चा करना सम्मेलन के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होगा।

संक्षेप में हमारे अनुसार इस सम्मेलन का आयोजन सार्थक सिध्द तब ही होगा जब वह लक्ष्य राष्ट्र स्तर पर भी पूरा हो, जैसेः-

1. हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषा बनाने के लिए भारत सरकार सुनिश्चित करे कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जाने वाले उसके प्रतिनिधि हिन्दी में ही बोलें।
2. हिन्दी को विश्व मंच पर प्रतिष्ठापित करने के लिए भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि हिन्दी भारत में हर स्तर की शिक्षा का माध्यम और हकीकत में हर स्तर के कार्य की कार्यभाषा हो।

उपर्युक्त दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता होगी।
अतः इस सम्मेलन के लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि भारत में भी हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने के लिए एक ज्ञापन तैयार किया जाए और उसे राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री एवं अध्यक्ष ज्ञापन आयोग को प्रस्तुत किया जाए। यह भी सुनिश्चित किया जाए कि उस पर उपयुक्त कार्रवाई की गई है।
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विजय कुमार भार्गव,

सेवानिवृत्त वैज्ञानिक,
भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र एवं परमाणु ऊर्जा नियामक परिषद, मुंबई
(एफ-6/1, सैक्टर 7 (मार्केट), वाशी
मुंबई 400703)

2 टिप्‍पणियां:

संजय बेंगाणी ने कहा…

सही कहा आपने.

अनुनाद सिंह ने कहा…

भारत में हिन्दी की दुर्दशा के पीछेे अंगरेजी की सुविधानुसार अघोषित, अल्प्घोषित, अर्ध्घोषित या घोषित अनिवार्यता है। जबकि हिन्दी को सब जगह ऐच्छिक जैसा बना कर रखा गया है। इन सबके पीछे हिन्दीभाषियों क्व्व स्वाभिमानहीनता के साथ आजादी के पहले से ही मैकालेवादियों की प्रशाशन में अभेद्य घुसपैठ है। पर स्थिति बदलेगी क्योंकि बहुत दिनो तक किसी भी चीज को अस्वाभाविक स्थिति में रखना बहुत कठिन है।