हर शब्द
क्रान्ति उत्सव में शामिल होने के लिए बढ रहे हैं
किन्तु तब तक आफिस आ जाता है हर शब्द
हर शब्द
एक मुसलसिल सफर है
स्याह और ठोस चट्टानों से
धुवान्तों की बर्फीली चोटियों तक
हर शब्द
एक लक्ष्य बेधी बाण है
कमान से छूटा
पेड पर बैठी चिडिया की आँख से
मैदानों, पहाडों और क्षितिजों तक
जिन्दगी
जिन्दगी जैसी कोई चीज
मेरे पास आई
बोली मुझे छुओ
अपना क्या
अपना तो छूने का लम्बा इतिहास है
पत्थर को छू दें तो लहरीली नदिया हो जाये
उससे रिसने लगें कविताएँ
इसलिए उसे- जी भरकर छुआ खूब...
तब कहा उसने यों-
“देखोगे नहीं मुझे”
कहा मैंने- क्यों नहीं- जिसको भी देखा है
दृष्टि-त्राटक से खिंचा चला आया वह...
बोली वह- पिर से जियो मुझे
मैंने शुरू किया जीना जैसे ही
तो मैं वहाँ था- दिक्कतों के बीच हातिमताई होते हुए
इधर पानी तेजाब था
हर सुख पहाड
सहानुभूति काँटों की बागुड और
प्यार नफरत का संसार
फिर भी इन सबके बीच
जीना शुरू किया उसे
समय को रेशा-रेशा करते हुए...
प्रस्ताव
ऊँघती पहाडियों का उठकर
सूरज की किरन से मुँह धोना और
नदी से नहाकर लौटी सडक का
सुबह-सुबह
अपने बीच से गुजरना कैसा लगता है ?
आओ उन पहाडियों को समर्पित हो लें
चोटियों पर खडा हरकारा
आवाज दे रहा है
अब छत की तरफ देखने का वक्त नहीं
आओ एक साथ
बँधी मुट्ठियाँ खोलें
पहाडियों को समर्पित हो लें
चाणक्य से
शिखा पर गाँठे बाँधने वाले
तुम्हारे प्रतिज्ञा भाव को
तुम्हारे ही चेले चाँटियों ने
उस्तरे की परम्परा में बदलकर रख दिया है
और अब कु-शासन पर बैठकर
सबके सब अपनी गरदनें लटकाये
मुण्डन करवा रहे हैं
जरा सी भूल ने इन्हें
क्या से क्या बना दिया
और उधर मैदानों-टीलों में
ठाट से कुशारोपण में लगे हैं सब
तुम्हारे ही प्रतिशोध की
यान में झूमते हुए
सीटियाँ बजा- बजाकर
नाचते गाते अपने इन चन्द्रगुप्तों को
एक बार इनके हाल पर
ऊपर से नीचे तक देख तो लेते तुम
नर्मदा की सुबह
कुहरे का धुमैला वस्त्र फेंककर
नींद से उठी सुबह
नहाने लगी नर्मदा में धँसकर
पानी के छीटों से अलसाये तट हडबडा गये
कुनमुनाकर जाग गई ठण्डी रेत
आसमान पर किलोलें करने लगे
चितकबरे हरिण मेघ
असंख्य श्वेत अश्वों वाला रथ
तेजोमय प्रभामंडल बनाता
हरहराकर चल पडा
जिसके स्वागत में
सुबह ने बिछा दिये – असंख्य फूल
फिर आरती का थाल सम्हाले वह
धूप के टुकडों से गीली लटें सुखाती
धरा सखी के श्यामल कपोलों पर
गुलाबी चुम्बन रखती – चल पडी जगह-जगह
नर्मदा की सुबह
मेरा बेटा
मेरा बेटा मन ही मन
मेरी कीमत आँक रहा है
मुझमें उसे मुद्राओं की फसलें दिखाई देती हैं
जबकि तथ्य यह है कि मैं
घर, घूरे, सडक या दफ्तर में
ठोकरें खा-खाकर
इधर-उधर हवा के रूख पर उडने बाला
रद्दी कागज का एक टुकडा भर हूँ
मैदानों से पर्वतों की चोटियों तक
तब तक
जब भी चलता हूँ
लगता है मेरे कदम किसी
वहाँ से लौटते हुए तय करता हूँ
कि समाज की टूटन को
जोडकर ही दम लूँगा
घर आकर खुद ही
रेत-सा बिखर जाता हूँ टूटकर
पहाड से बातचीत
पहाड
तुझ पर क्या टूट पडा है
कि तेरी चट्टानें
पहले से ज्यादा
भयावह लगने लगी हैं
इनके इर्द गिर्द और ऊपर
संतरियों- से खडे पेड
कुल्हाडियों की –
अदाकारी में मारे गये
तुझ पर
क्या टूट पडा है आखिर ?
( श्री रघुवंशी सेवानिवृत प्राध्यापक हैं । इन्हें हिन्दी की दुनियावाले गीतकार, कवि और आलोचक के रूप में जानते हैं । आकार लेती यात्राएँ, पहाडों के बीच, अँजुरी भर घाम, सतपुडा के शिखरों से आदि उनकी चर्चित कृतियाँ हैं । हाल ही में उन्हें छत्तीसगढ राज्य की महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्था “सृजन-सम्मान” द्वारा अखिल भारतीय साहित्यमहोत्सव में राज्य के गवर्नर महामहिम के. एम. सेठ ने उनकी आलोचनात्मक कृति नवगीतः स्वरूप विश्लेषण पर वर्ष 2004-05 का प्रमोद वर्मा सम्मान से अलंकृत किया है-संपादक )
2/17/2006
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें