2/15/2006

राष्ट्रभाषा, लोकभाषा और छत्तीसगढ़

“मातृभूमि, मातृ-सभ्यता और मातृभाषा यही तीन कल्याण के स्रोत हैं।”

स्वनामधन्य सर्जक विष्णु प्रभाकर जी के इस महत्वपूर्ण उदगार में सन्निहित संकेतों के मूलस्वर को आत्मसात करें तो यह सत्य "माँ" में निहित होता है। माँ से संबद्ध सारी विद्या, सारी घटना, सारे संस्कार, सारे पाठ मनुष्य को रचते हैं। उसकी अस्मिता को गढ़ते हैं। संस्कृति को सिरजते हैं। मातृ जीवन के समस्त उपक्रमों के केन्द्र में होती है। हमारी अनादिकालीन वाणी में यही तो गूंजता रहा है –
"अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते
जननि जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयिस।"
(वाल्मीकि रामायण)
या फिर-
"या देवी सर्वभूतेषू मातृरुपेण संस्थिता।"
(श्री दुर्गासप्तशती, पंचमोध्याय, देवीसूक्तम)
या यह भी लें-
"नास्ति मातृसमो गुरुः।"
(महाभाहत, अनुशासन पर्व 105.15)
माँ, मातृ या जननी उपसर्ग से आच्छादित प्रत्येक शब्दों के अर्थों में यही भाव विन्यस्त है। हिन्दुस्तान को विमर्श या चिंतन की परिधि में रखकर देखें तो सम्यक् या व्यापक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी हमारी मातृभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होती है। हिन्दी इस महादेश की पहचान है। हिन्दी भारतीय संस्कृति का दर्पण है। हिन्दी भारत की अभिव्यक्ति है। हिन्दी में हमारा स्वर्णिम अतीत दिपदिपाता है, हिन्दी में हमारा वर्तमान आलोकित होता है और यह हिन्दी ही है जिसमें हमारा भविष्य उदित होगा। हम हिन्दी में दिखाई देते हैं। हमारा जो भी अपना है वह हिन्दी में ही अपने सम्पूर्ण अर्थों में झिलमिलाता है। हमारे पुराख्यान, हमारी स्मृतियाँ, हमारे सपने इतर भाषाओं में अनूदित तो हो सकते हैं, भावानुवाद भी किए जा सकते हैं, उन्हें उनके मूल स्वरूपों अर्थात् रंग-रूप-गंध-स्वाद के साथ प्रस्तुत करने में सक्षम अंग्रेजी आदि हिन्दी परिवार से भिन्न भाषाएं कदापि नहीं हो सकतीं। य़ह भाषाओं के मामले में कदाचित् सबसे बड़ा सत्य हो सकता है कि एक मातृभाषा का मर्म, दूसरी मातृभाषा या भाषाएँ नहीं समझ सकती। अंग्रेजी जैसी वर्चस्व वादी एवं शासक-भाषा तो कदापि नहीं। देह परिवर्तन तो सम्भव है आत्मा परिवर्तन नहीं। आत्मसुधार के नाम पर विदेशी भाषा अंग्रेजी (विशेषतः तब, जब वह रोजगार, उद्यम, यानी की रोजी-रोटी की भाषा बनती जा रही हो) को सीखा जाना शायद अहितकर न हो, पर उसके आत्मसातीकरण में कम खतरे नहीं। यह या ऐसा करना भारतीयता को खतरे में डालना है। मैं व्यक्तिगत तौर पर अंग्रेजी भाषा को सीखकर एवं उससे अर्थोपार्जन की सीमा तक जाने का पक्षधर हूँ, और यह समकालीन दौर की आवश्यकता भी है, किन्तु मैं यह भी संकेत करना नहीं बिसारना चाहता कि अंग्रेजी के आगे घुटने टेककर उसे किसी भी कीमत पर सभी भारतीय भाषाओं के ऊपर केन्द्रीय और सांस्कृतिक भाषा का दर्जा दे दिया जाए। यह आत्मघाती होगा।
अंग्रेजियत के दंभ, दर्प एवं दंश से भारतीयता या ऱाष्ट्रीयता कितनी प्रताड़ित हो रही है, सर्वविदित है। इस कथ्य और तथ्य पर शायद ही अमतैक्य हो। राजकाज के तर्क पर अंग्रेजी को अपनी राजभाषा के सिंहासन पर नहीं बैठाया जा सकता। विश्व के किसी अस्मितावान एवं सांस्कृतिक चरित्र वाले देश के लिए यह सर्वथा असम्भव एवं आत्मविसर्जन वाला कर्म होगा। अंग्रेजी भाषा रुसियों ने सीखा, चीनियों ने सीखा, जापानियों ने भी। उसके रास्ते से ज्ञान-विज्ञान, तकनीक तक अवरुद्ध आवाजाही को संभव बनाया पर उन्होंने अपनी मौलिक भाषा को तो खारिज नहीं कर दिया। अंग्रेजी को अपनी राजभाषा बनाकर अपना हथियार तो नहीं डाल दिया ? सच तो यह है कि इन देशों ने शिक्षा, व्यवहार, राजकाज और संस्कृति के माद्म के रूप में अपनी भाषा को ही पल्लवित किया। विदेशी भाषा के संभावित तरों से अपनी अस्मिता को सुरक्षित बनाए रखने के लिए व्यापक एवं समयबद्ध कार्ययोजना भी लागू की। ऐसा प्रश्न उभरना या उभारा जाना भी संदिग्धता के घेरे में आता है कि — अंग्रेजी भारत की अन्तरप्रान्तीय भाषा है, उसे हतोत्साहित क्यों कर किया जाए ? या फिर — अंग्रेजी जैसी विश्व संस्कृति की भाषा को खारिज करना क्या उल्टी दिशा की यात्रा नहीं है ? यह बीसवीं सदी में अंग्रेजों द्वारा दुष्प्रचारित और आरोपित तर्क के अलावा कुछ भी नहीं। अंग्रेजी भाषा से मिलते तथाकथित सम्मान ने दास या पराजित मानसिकता वाले भारतीयों को खूब भरमाया और अंग्रेजीदां की संख्या भारतीय मध्यमवर्ग में बढ़ती चली गई। पराजितों का मनोविज्ञान चूकता चला गया। अंग्रेजी आधिपत्य के ध्वस्त होने पर भी उच्च पदारुढ़ों एवं उच्च पदाभिलाषियों की वरिष्ठ एवं महत्वपूर्ण पदों पर अपने वंशवृक्षों को अधिरोपित करने की घृणित एवं अभिमानी चालों ने इस दिशा में उकसाया, फलस्वरूप अंग्रेजी का तांडव जारी रहा। इससे सबसे बड़ी हानि यह हुई कि मध्यमवर्गीय मनीषा में यह बात घर कर गई कि भारत की सांस्कृतिक एकता अंग्रेजी से ही सुरक्षित है। इस देश की विरासत, परंपरा, मूल्य आदि मात्र अंग्रेजी से ही संभव हैं। भारतीय सोच के पृष्ठों में इससे बड़ी विडम्बना और क्या रेखांकित हो सकती है कि देश के मात्र 4-5 प्रतिशत अंग्रेजीभाषियों ने शेष हिन्दी आदि भाषा-भाषियों को अपने निहित स्वार्थों के चलते निरन्तर उपेक्षित, दलित, दीन-हीन बनाने का अदृश्य या अघोषित षड़यंत्र छेड़ रखा है।
हिन्दी वार्तालाप की भाषा मात्र नहीं, वह हमारी चेतना, राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति का सर्वोच्च माध्यम है। साम्राज्यवादी अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति अर्थात् आजादी की भाषा हिन्दी ही बनी। हिन्दी संघर्ष की वह ताकत सिद्ध हुई जिसमें तत्कालीन प्रांतीय भाषाओं ने सहमति के स्वर जोड़े। 1858 के आंदोलन की असफलता की जड़ में सार्वदेशिक भाषा का अभाव था, जिसकी प्रतिपूर्ति परिवर्ती हिन्दी के रूप में हुई। हिन्दी की इस क्षमता को उन सभी राष्ट्रनायकों ने समझा जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व किया। इसमें ताज्जुब होने जैसा कुछ भी नहीं कि ऐसे क्रातिकारियों की मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। इस संदर्भ में राजा राममोहन राय, बाल गंगाधर तिलक, दयानंद सरस्वती, बंकिम चंद्र चटर्जी, सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, काका साहेब कालेलकर प्रभृति नाम गूंजते हैं। यह चिंताजनक मामला है कि आजादी की भाषा हिन्दी को गत पचास वर्षों में लगातार उपेक्षित किया जा रहा है। यह हिन्दी का संकट नहीं, हिन्दी जाति का संकट है। भारतीय संघर्ष शक्ति पर संकट है। हिन्दी के राजभाषा बनाए जाने के प्रकरणों पर प्रादेशिक भाषाओं के विकास पर प्रश्नचिन्ह, उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी की असमर्थता के सवाल तथा अंतर्राष्ट्रीय माध्यम की भाषा अंग्रेजी से तादात्म्यता का औचित्य खड़े करने का शोर-शराबा बेमानी है। समकालीन दौर में हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के सम्मुख नए दबाव के रूप में भुमंडलीकरण और उदारीकरण का घटाटोप उपस्थित हो चुका है। अंग्रेजी को विकास और आधुनिकता के आधार के रूप में बड़ी चालाकी के साथ बहुप्रचारित कर अंग्रेजीपन के विस्तार के जोर से देश में एक नई एवं चुनौतीपूर्ण विपदा मंडराने लगी है। बहुराष्ट्रीय एवं विदेशी कंपनियों के रास्ते हिन्दी और भारतीय भाषाओं को खारिज करने के दांभिक चालों में मात्र विदेशी भाषा अंग्रेजी की महत्ता स्थापना की हरकतें नहीं, उसमें भारतीयता की मूल आत्मा को खंडित करने जैसा रहस्य भी सम्मिलित है जिसके प्रतिफल में होगा-भारतीय जनाकांक्षा, आशा और स्वप्नों का विखंडन। दूसरे आशय में इसे भारतीय भाषाओं के साथ-साथ हिन्दी की जागरण क्षमता का ध्वस्तीकरण भी मान सकते हैं। हिन्दी की विडंबना में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी नकारात्मक भू्मिका पर उतर आई है, जिसके परिणाम में भाषा का विकृतिकरण, उसकी गरिमा का लोप, ओजस्वता का हनन एवं आत्माभिमान का निस्तेजीकरण अर्थात् जातीय पुनर्जागरण की संभावना की घेरेबंदी और बाजार के लिए एक महादेश के मानव संसाधन को उपभोक्ता में तब्दील करने की साजिश बदस्तूर जारी है। यह भारतीय भाषाओं के साथ इस सहस्राब्दी की सबसे बड़ी चुनौती है।
भूमडलीकरण का मतलब संघर्ष की क्षमता से लैस शेष भारतीय आबादी को आत्मबोध से दूर ले जाना है। उच्च वर्गीय आबादी यूँ भी समाज के आसन्न संकटों से अनजान बनकर अपने मौज-मस्ती व संग्रहीकरण की धुन में राष्ट्रीय सामाजिक सरोकारों से विमुख हो चुका है। समाज के सांस्कृतिक मूल्यों के लिए चिंतित निरंतर सृनशील ऐसे हिस्से को उसकी अस्मिता से विमुख कर भारत को फिर से विपन्न राष्ट्र बनाने की मंशा कम खतरनाक नहीं। इसका एकमात्र उपाय है – भाषाई पुनर्जागरण, जो केवल हिन्दी के बलबूते की बात है।
समकालीन हिन्दी की जाति की विविध पारंपरिक समस्याओं यथा – साम्प्रदायिकता,सामंती मूल्य,आत्महीनता, राष्ट्रीयता का विखंडन, भाषाई एवं जातिगत संगठनवाद का विस्तार का काट भी हिन्दी ही है। यह समय की मांग है कि हिन्दी के मूल स्वर को साधा जाए और एक नए सांस्कृतिक आंदोलन का सूत्रपात हो। इसके लिए यह उचित नहीं होगा कि किसी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र या महात्मा गांधी के अवतरण की प्रतीक्षा की जाए। हम ही इसकी शुरुआत करें।
अंग्रेजी से पेंगें बढ़ाने एवं उसे आत्मा समर्पित करने में हिन्दी की भगिनी भाषाओं के अधिकारों पर भी कुठाराघात का मतलब सम्मिलित है। आदिभाषा संस्कृत की क्षीणता के कारणों में अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजीपरस्तों के दुष्चक्रों को आखिर कैसे विलग किया जा सकता है। हिन्दी को संपुष्ट करने वाली लोक भाषाओं और बोलियों का हश्र अंततः क्या होगा, स्वतः स्पष्ट है। हिन्दी का प्रश्रय हिन्दी परिवार सहित इतर भाषाओं का प्रश्रय है। हिन्दी के बरक्स अंग्रेजी के वर्चस्व में हिन्दी परिवार सहित इतर भाषाओं, लोक-भाषाओं और बोलियों का भी विनाश विद्यमान है। यह सबसे खतरनाक पहलू है। इसे मैं लोक विनाश के अर्थों में देखता हूँ। भारत का लोक अर्थात् उसका अपनापन, उसका सत्व, उसकी अस्मिता, उसकी मौलिकता, उसका लाघव, उसकी व्याप्ति, उसकी समाप्ति, उसका व्यंजन, उसका व्याकरण, उसका प्रत्यय, उसका लय, उसकी स्मृति, उसकी विस्मृति, उसका आत्म, उसका अध्यात्म यदि खो गया तो सच्चे मन से बताईए – क्या बचेगा हम भारतवासियों के नाम ? क्या मातृ-सभ्यता को और किसी मायने में परिभाषित किया जा सकता है ? सोचें भला, विचारें जरा, मातृभूमि इन सब आशयों के अलावा और कैसी अवधारणा है ? इसे साहित्य की भाषा में नास्टेल्जिया मात्र कह कर नजरअंदाज कर देना सर्वथा बेमानी होगी। लोकच्यूत समाज अंततः एक दिन नेस्तनाबूद हो जाता है। जिसे हम विकासवादी, विश्वग्रामवादी या प्रौद्योगिकीमय चश्मे से देखकर अधुनातन समाज की श्रेणी में रखते हैं, उस समाज में भी लोक की एक प्रबल धारा भीतर-ही-भीतर प्रवाहित होती रहती है। और इस लोक की वाहिका होती है उस देश की लोक भाषाएं, लोक बोलियां और इन सबको समर्थन देती, इसकी आवाजाही का माध्यम बनती मातृभाषा या राष्ट्रभाषा। मुझे ऐसे क्षणों में एक कविता याद आ रही है-
फूलों की आत्मतात में बसी / खुश्बू की तरह जीना है
अभी बहुत-बहुत बरस / मुश्किलों को उठाना है
पत्थरों की तरह / और फेंक देना है / जल में छपाक से
हंसना है बार-बार / चुकाना है
बरसों से बकाया / पिछले दुखों का ऋण
पोंछना है / पृथ्वी के चेहरे से
अंधेरे का रंग
पानी की आंखों में / पूरब का गुलाबी सपना बनकर
उगना है / अभी बहुत बरस-बरस
(अन्न हैं मेरे शब्द – एकांत श्रीवास्तव – पृष्ठ 98)
हिन्दी से गुजरते-गुजरते मुझे लोक की सुधि आ गई, तो आइए, आप सभी महानुभावों का इस पुण्य लोक में हार्दिक स्वागत है। आत्मीय वंदन है। आप सभी साहित्यकारों, साहित्यानुरागियों का महाकवि वाल्मीकि की आदि वाणी से सुसंस्कृत भूभाग छत्तीसगढ़ में स्वागत है। रामगिरी की गुफाओं में आदि कवि कालीदास के संदेश वाहक बादलों से परिपूर्ण आकाश में आपका स्वागत है। मित्रो ! छत्तीसगढ़ को जब हम सास्कृतिक भू –भाग या प्रदेश निरूपित करते हैं तो हमारे सामने आर्य संस्कृति के संरक्षक एवं प्रथम उन्नायक अगस्त्य मुनि की कथाएं उभरने लगती हैं। जनश्रुति के अनुसार सरमंजा ग्राम में ऋषिवर अगस्त्य का आश्रम आज भी हमें विश्वास दिलाता है कि हम ऋषि संतान हैं। हमें जमदग्नि की तपोस्थली सरगुजा जिले में देवगढ़ के पालस रेणु नदी का तट आश्वस्त करता है। शिवरीनारायण की भीलनी आज भी हम छत्तीसगढ़वासियों को सिखाती है कि अतिथि का सत्कार किस तरह किया जाना चाहिए। दक्षिण कौशल का समूचा जनजीवन हर भांजों में राम का प्रतिबिम्ब देखता है। यह वही छत्तीसगढ़ है, जहां कभी रामकथा परवान चढ़ी थी। लगभग आधे गाँवों के नाम समय के अनेक करवटों के बाद बर्तमान मं भी श्रीराम कथा की दास्तान सुनाते हैं। महाभारतकालीन अर्जुन पुत्र बब्रुवाहन की शौर्य गाथा वांचता सिरपुर हम छत्तीसीगढ़वासियों का गौरव है। दानवीर मोरध्वज का नाम ले-लेकर न केवल आरंग, बल्कि समूचे छत्तीसगढ़ का जनपद त्याग बलिदान के मार्ग में बिछ जाता है। महात्मा बुद्ध का ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि’ और जैन तीर्थंकरों का ‘अरिहंताण्म्’ इस पुरातन प्रदेश को सतत् संबल प्रदान करता रहा है। भक्तिकालीन निर्गुण पंथ के मुखिया कबीर के दोहे, साखी, सबद और रमैनी में रमा यह छत्तीसगढ़ अपने फक्कड़ स्वभाव के माध्यम से न केवल कबीर को स्मरण करता है, अपितु यह भी साबित करता है कि हर छत्तीसगढ़िया एक कबीर है जिसका जीवन वाक्य है –
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
दलितों, पीड़ितों, निर्बलों के मसीहा गुरू घासीदास के पुण्य-प्रताप से आज समूचा प्रदेश ऊर्जावान एवं सशक्त मार्ग की ओर अग्रसर है। महानदी, अरपा, पैरी की अविरल धारा छत्तीसगढ़िया कृषकों के हाथों गुरमटिया, बायसाभोग, दुबराज के भंडार सौंपती है। भिलाई, कोरबा, बैलाडिला और रायगढ़ हमें फौलादी हौसला देते हैं। यह छत्तीसगढ़ की माटी की उर्वरता है जिसने पंडित सुन्दरलाल शर्मा जैसे सपूत को अवतरित किया, जिसे स्वयं महात्मा गांधी अपना गुरू कह गए। वीर नारायण सिंह का बलिदान अंग्रेजों को छत्तीसगढ सहित देश से भागने के लिए विवश कर दिया और ठाकुर प्यारेलाल सिंह जैसे वीर सपूतों की धरती स्वतंत्र हुई। मुझे यह कहने में फख्र होता कि पृथक राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ के उभार में सांस्कृतिक हस्तक्षेपों का योगदान सर्वोपरि है। वस्तुतः छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण में साहित्य मनीषियों की लेखनी प्रकारान्तर से राजनीतिक भूमिका ही रचती रही और अपने सम्पूर्ण स्वाभिमान के साथ हम नए छत्तीसगढ़ की धरती में आज अपनी रचनात्मकता के साथ खड़े हैं।
छत्तीसगढ़ राजनैतिक या प्रशासनिक इकाई के रूप में भले ही दो वर्ष का शिशु है, किंतु सांस्कृतिक परिप्रक्ष्यों में यह एक आदि राज्य है। इसकी प्राचीनता के तार मानव सभ्यता के उषाकाल से जुड़ते हैं। छत्तीसगढ़ आदिमानव प्रांगण रहा है। रायगढ़ जिले में सिंघनपुर, कबरा पहाड़, ओंगना, करमागढ़, तथा राजनांदगांव जिले में चितवाडोंगरी के शैलचित्र इसकी जीवंत कथा बांचते हैं। छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक चेतना और वैष्णवप्रियता को सिद्ध करती है मल्हार की चतुर्भुजी विष्णु की पाषाण प्रतिमा, जिसे दूसरी सदी की अभिलिखित और विष्णु की सबसे प्राचीन प्रतिमा मानी जाती है। भोरमदेव मंदिर विश्व प्रसिद्द खजुराहो की परंपरा को आगे बढ़ाती है। आठवीं सदी में प्रतिष्ठित राजिव लोचन(मंदिर), जगन्नाथ-संस्कृति को आज भी जन-जन के मन में पल्लवित कर रहा है। चंपारण्य में अवतरित वल्लभाचार्य की वाणी को समूचा देश आत्मसात करता है । रतनपुर की माँ महामाया पहुंचकर लगता है जैसे सारी की सारी शक्तियाँ हमारे भीतर समा गई हों। पांचवीं सदी के मध्य में दक्षिण कोसल की राजधानी रह चुके सिरपुर में हम आँख मूँदकर ध्यानस्थ हो लें तो धीरे-धीरे चीनी यात्री व्हेनसांग की यायावरी मुद्रा झिलमिलाने लगती है। डोंगरगढ़ की पहाड़ी में बसी माँ बम्लेश्वरी अपनी छत्तीसगढ़ी पुत्रों के साथ पूरे विश्व को आशीर्वाद प्रदान करती है। खल्लारी के भीमखोज में महाभारत के कूटनीतिक प्रसंग से आत्मरतक्षा के पाठ साफ-साफ समझ में आने लगते हैं। रामगढ़ में विश्व की प्राचीनतम नाट्यशाला भरतमुनि का गुणगान करती है और एकबारगी मेघदूत के कालिदास उपस्थित हो जाते हैं – अपने विप्रलम्भी छंदों के साथ। गिरौदपुरी समूचे जनमानस को सतनाम और मानवता का पाठ बांचता है। जो भी एक बार महानदी का पानी पी लेता है और करमा, सुआ, पंथी, ददरिया, पंडवानी में रमे हुए छत्तीसगढ़ की वाणी का रसास्वादन कर लेता है, वह हमेशा-हमेशा के लिए मन प्राण से इस भू-भाग का हो कर रह जाता है। बस्तर के आदिम जीवनराग को बूझने के लिए तथाकथित उन्नत पश्चिम तरसता रहा है। पैरी, सोंढूर और महानदी के त्रिवेणी संगम पर पहुंचकर आम श्रद्धालु प्रयाग को भूल जाते हैं और फिर लक्ष्मण मस्तूरिया की पंक्तियां बरबस ही उसके होठों पर थिरकने लगती हैं. –
कहाँ जाबे बड़ दूर हे गंगा, पापी इहां तरो रे......
थोड़े पश्चिम की ओर चलें तो झाड़ूराम देवांगन या तीजनबाई या ऋतु वर्मा तम्बूरे के साथ महाभारत की कथा सुनाने में मगन नज़र आते हैं। इधर पूरब की ओर चलें तो चक्रधर महाराज मोती महल में दिख जाते हैं अपने पैरों में घुँघरू बांधकर, कार्तिक, कल्याण या बर्मन को कत्थक की बारीकियों को समझाते हुए। उधर पूर्वोत्तर कोण की ओर निहारें तो रामेश्वर गुरु गहिरा आश्रम में आदिवासी बन्धुओं को नए पद का मंत्र सिखाते दिख पड़ते हैं। कबीर को आज भी छत्तीसगढ में देखा जा सकता है भारती बन्धु के रूप में जिन्हें सुनते ही कबीर का समय, संस्कृति, और संकट सब कुछ सीनेमा स्लाईड की भाँति झिलमिलाने लगता है । कितना कहें, अपने छत्तीसगढ़ के वैभव के विषय में । कह पाना असंभव है।

(लेखक छत्तीसगढ के पूर्व शिक्षांत्री व विधायक हैं । संपादक)

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

इस लेख का एक-एक वाक्य मेरे हिन्दी-प्रेमी मन को छू गया | स्वतन्त्र भारत में भी अंगरेजी की विष-बेल का पुष्पित पल्लवित होते रहना अवश्य ही एक जटिल-षडयन्त्र का फल है | छत्तीसगढ के विषय में दी गयी जानकारी मेरे लिये बहुत ही नयी और ज्ञानवर्धक है |

अनुनाद