2/28/2006

हिन्दी की चर्चित कहानी



कौए के पीछे बैलगाड़ी
(कहानी-श्री राजेन्द्र अवस्थी)

टुंक टुकर टुंक !
घंटियों की हल्की-सी आवाज़ के साथ चूं-चूं चर करती बैलगाड़ी ऊबड़-खाबड़ राह से, अंधेरो को चीरते धीरे-धीरे सरक रही थी। दोनों ओर घना जंगल, बार-बार सीधी चढ़ाई और फिर एकदम नीची ढाल। बैलों के दम पर चाहे जो आये, गाड़ी में बैठनेवाला भी कांप-कांप जाता था। तब वह अपनी दोनों हथेलियां छाती के सामने रख लेता और कलेजे से ऊपर चढ़ा थूक, एक बार ज़ोर से खखार कर गाड़ी के बाहर फेंक देता। उसकी बाजू में बैठी थी रसीली – उसकी उमरभर की साथी, जो नाम से तो जवान पर शरीर से उतनी ही कृश थी। उसका यह नाम उसके बाप ने रखा था। ब्याह कर आ गयी पर सानी ने उसका नाम नहीं बदला। वह बार-बार कहती रही, सासुरे का नाम मैके से अलग होता है, अपनी मरजी का नाम रख लो न, पर सानी; वह सिर्फ हंस देता। कहता, “तेरा नाम बदलूंगा तो तेरा रस चला जाएगा।” रसीली अपनी नयी जवान आंखों तब कुछ इस तरह मटकाती कि सानी दांतों के बीच अपनी जीभ दबाकर उसकी ओर दौड़ पड़ता। तब वह भागकर अपनी सास के पीछे छुप जाती। सास हंस देती। कहती, “बहू, नाम बदलने की परंपरा को यदि यह तोड़ रहा है, तो बुरा नहीं कर रहा।”
सास की यह बात उसे गुस्ताखीभरी लगती। वह उसके गाल दबा देती और हंसीभरी खीझ में कहती – जानती हूं, जाया तो वह तेरा है। मैं तो परायी ठहरी ! वह कूदती-फांदती उस कमरे से बाहर चली जाती।
एक दिन..! सानी और रसीली में ऐसे ही बात बढ़ गयीथी। सानी ने पानी मांगा। जब वह लेकर आ गयी तो सानी ने पहले वह गिलास रसीली के होंठों से छुआया, तब फिर उसने पानी पिया। इस पर रसीली ने इस तरह नज़रें उठाकर देखा था कि सानी की छाती में बबूल का कांटा चुभ गया था। सानी हंसकर यही कहा था – रस उतर आया है गिलास में, जैसे भट्ठी में महुए ने अपनी छाती का एक कतरा चुवा दिया !
सुनकर रसीली भागी थी। सानी ने उसका पीछा किया और तब दोनों दौड़ते मकई के उस घने खेत में पहुंच गये थे, जहां के झा़ड़ अपने सिर पर हाथभर लंबे दानेदार भुट्टे रखे थे और उनसे सफेद रेशे लटकाये हवा के साथ आवाराओं की तरह झूल रहे थे। चिड़ियों के झुंड-के-झुंड वहां आते। उन भुट्टों पर बैठते और फिर फुर्र से उड़ जाते। उस समय इन चिड़ियों के पर रसीली को मिल गये थे। सानी तब शिकारी था। अपना हाथ हवा में ऐसा घुमाता मानों गुलेल झुला रहा हो और जब वह रसीली की चोटी पकड़ पाया तो उसने इतने ज़ोर से उसे नीचे पटक दिया कि वह बस, एक हिचकी लेकर रह गयी। उसका मुंह फिर नहीं खुल पाया।
गाड़ी के चक्के से एक पड़ा पत्थर जैसे ही टकराया कि बूढ़ा खांसता हुआ रसीली पर ऐसा गिरा जैसे उस भुट्टे के खेत में बरसों पहले रसीली गिरी थी। तब आज भी रसीली कांख कर रह गयी। उसने अपना दाहिना हाथ बूढ़े के सिर पर फेरा और उसे अपने आंचल में छिपा लिया। सामने देखकर बोली, “अरे बीरसिंह गाड़ी धीरे हांक ! तेरे दादा को दौरे आ रहे हैं !”
बीरसिंह गाड़ी के चौर पर बैठा था। उसने हाथ का कोड़ा उठाया और दोनों बैलों की पीठ पर जड़ दिया, “धीरे रे धीरे !”
वह यह न जान सका कि इसमें बेचारे बैलों का क्या दोष है ! गाड़ादान ही ऊटपटांग है ! रात अंधेरी है। एक टिमटिमाती बाती और सनसनाता जंगल – जितने विवश उसमें बंधे बैल हैं, उतनी ही विवश वह बैलगाड़ी है। और इनसे भी ज्यादा विवश उसमें सवार ये तीन सवारियां हैं। बूढ़ा खांसता है तो छाती फटती है। खंखार के साथ थूक आता है या खून किसने देखा है ? दमा का रोगी, जो इस रोग को चालीस बरस से पाल रहा है और उसे पालते बीस बरस हो गये हैं ! रसीली तो अब दांतों में चूसकर फेंके गये गन्ने की गंडेरी रह गयी है जिंदगी का सूरज जब उगा तो चने की भाजी और मक्का की सिर्फ दो रोटियां उसने फूस की उस झोपड़ी में देखी थीं। उमर चढ़ नहीं पायी कि उसने देखा कि सानी उसकी लगाम थामे है। वह आज लाया और बरस बाद ही उसके पेट की अंतड़ियां खिंचने लगीं।
दर्द और पीड़ा के बीच गांव की औरतों ने नाच-गाकर रात बितायी और पूरब दिशा जब सिंदूर लगाकर जाती तो रसीली ने अपनी बाजू में एक फूल पड़ा देखा ! उसकी किहें-किहें ने रसीली की जिंदगी में वह रस घोल दिया कि आज भी जब वह उस दर्दभरे सुख का अनुभव करती तो शारदा मइया के सामने सिर झुका देती है – हे मईया, जिंदगी की वह घड़ी एक बार ला दे ! उमर का यह बोझ पलभर को उतर जाए तो भला। पर शारदा मइया कुछ नहीं सुनती। सारी चढ़ोतरी हजम कर जाती है। पत्थर की देवी तब पत्थर रह जाती है ! सिंदूर से लाल उसका तन तब जैसे खून से रंग जाता है। रसीली ने दस लड़के-लड़कियों को जन्म दिया। वह और चाहती है, यह बात नहीं है। दरअसल वह बुढ़ापे को भूलना चाहती है। उसे झुठला देना चाहती है और इसलिए उन दिनों को याद करती है। कारण बचपन से उसने सुना है – लड़कपन उचटने और हंसने के लिए है। जवानी बच्चे जनने के लिए और बुढ़ापा रोने के लिए। वह रोने से डरती है और इसलिए फिर जवानी के दिनों में लौट जाना चाहती है पर जब उसकी नज़र सामने बैठे बीरसिंह पर पड़ती है, तो उसके मन में अपने-आप एक हूक उठती है। वह अपनी आंखों को आंचल के छोर से बंद कर लेती है। वह बीरसिंह का अधिकार छीनना चाहती है। उस बीरसिंह का, जो दस में दूसरा है और उसका अब इकलौता बेटा रह गया है, जिसे उसने बड़े लाड-दुलार से पाला-पोसा है। उसके बाद जितने आये, सब धोखा दे गये। सबसे बड़ी है बेटी। जब वह बारह साल की हुई तो वह चिड़िया की तरह फुर्र से उड़ गयी –
चिड़िया मैं परदेस की
मोर पंख हिराने हो माय।
बचपन के गीत, बचपन के बीतते-बीतते अपने-आप डूब जाते हैं, जैसे सबेरे के सूरज के पहले ही आसमान के तारों को एक-एक कर नीचे समंदर में कूद जाना पड़ता है; मानो कोई ग्वाला उनके पीछे लगा, उन्हें इसके लिए विवश कर रहा है। रसीली क्या करती ? गाड़ी के चक्के की तरह जिंदगी घूम रही है। आदमी उसकी लीक पर खड़ा है। लीक पर कितना खतरा है, वह जानता है, पर जानते हुए वह उसे मोल लेता है। एक अजीब मृगतृष्णा है, इस जिंदगी में ! रेत के असीम छोर को वह छूना चाहता है, चमकती रेतों को पानी की लहराती झीलें समझकर ! बेटी चली गयी पर उसका साहस नहीं गया। बीरसिंह जो उसके पास था – वह बीरसिंह जिसने बचपन में कितने नटखट नहीं किये ! गांव के कितने लोगों को परेशान नहीं किया ! कितनी छोकरियों के गले के छूटे उसने नहीं उतारे ! कितनी इठलाती, बलखाती, पनिहारिनियों की गगरियां नहीं फोड़ीं! कितनी लड़कियों से उसने दोस्ती नहीं की और जितनों के साथ वह आया, एक से उसने ब्याह करने की बात कही। पर ब्याह भला आदमी के वश की बात है ! वह तो भाग का लेखा है। कपाल की लकीरें जन्म के साथ खिंच जाती हैं। उन्हें है कोई जो मेटे ?
बैरी की हरकतों से तंग आकर सानी और रसीली ने अपने बाप-दादों का गांव छोड़ा था। गांव-वालों ने उन पर रोज हरजाने लगाने शुरू कर दिये थे। रोज पंचायत जुड़ती। रसीली की नयी-नयी दलीलें और बीरसिंह की नयी-नयी बातें किसी काम न आतीं। कब तक जुर्माने की रकम वे देते। उन्होंने गांव छोड़ दिया। इकलौता बेटा, समझे तब न? पर भाग का फेर उसी जुर्माना करने वाले सरपंच की लड़की ने हरे मड़वा के नीचे सरीली की लाज रख ली। पुराने गांव में उन्हें फिर आना पड़ा और आज ही शाम को कहारों ने डोली उतारी थी कि...।
“दादी, अब तो चला नहीं जाता”, बीरसिंह के सुर थक गये थे। सानी और रसीली इस थकावट का कारण जानते हैं। उसका मन पास हो तब वह तो जैसे निर्जीव देह लिये गाड़ी की चौंर पर बैठा है। मां-बाप का कहना न माने, वह भी तब अनसुना कर जाए जब उसे पता चले कि उसकी इकलौती बहन ही रांड हो यी। कहारों ने डोली उतारी थी। दुलहन भीतर गयी और उसे पहुंचाकर जैसे ही रसीली बाहर आयी कि बाहर से दहाड़ मारकर रोने की आवाज़ आयी। सब-कुछ छोड़कर बैरी बाहर गया तो देखता है उसकी मां अचेत पड़ी है। साने पोस्ट ऑफिस का हरकारा खड़ा है। उसने अपनी ऐसी सूखी आंखों से उसे देखा, जिनका पानी जैसे आग में तपते तवे ने एकदम सोख लिया है। हरकारे ने चिट्ठी बांचकर सुना दी और बैरी की छाती पर जैसे रारा पहाड़ उठाकर दे मारा। उसने गाड़ी फांदी और फूल-सी महकती नयी दुलहिन को कमरे में छोड़कर यहां चला आया।
“वह क्या है रे बैरी ?” सानी ने अपनी सिकुड़ी हुई आंकों से सामने दिखाते हुए पुछा। बीरसिंह ने नज़रें घुमायी – दो बार, चार बार, नीलमणि की तरह घटाटोप अंधेरे में जैसे तारे चमक रहे थे। धरती पर और तारे ! बीरसिंह प्रसन्न हुआ। बोला, “गाड़ी आ रही है, बापू ! बैलों की आंखें चमक रही हैं।”
तीनों सतर्क हो गये। चलते-चलते रात थक रही थी पर इनकी यात्रा का अंत नहीं था। घंटियों की आवाज़ पास अदी गयी और फिर गाड़ी भी किनारे आकर रुक गयी। जब गाड़ीवान ने बताया कि बस आगे का गांव ही अमरवाड़ा है तो बीरसिंह खुश हुआ। बूढ़ा सानी कथरी संभालकर सतर्क बैठ गया और रसीली ने तूमा में रखे पानी को गले के नीचे उतारा, ताकि आगे की कसरत के लिए वह गले को ताजा कर सके।
अंधेरा भागा। सूरज ने अपनी सोनिया किरनें नये गांव की नयी गलियों में बिछा दीं। तब रहट चल रही थी। बैलों की घंटियां बड रही थीं। गेंवड़े में मरद-औरतों के सुर तैर रहे थे और कुओं पर जवान औरतों ने घेरा डाल दिया था। और दिन होता तो बीर सिंह इन कुओं की ओर मुड़ जाता, पर आज उसकी नज़रें भी उस ओर नहीं उठीं। सानी ने बुढ़िया को धकियाया और उसे जैसे “सिंगल” मिल गया। उसका बूढ़ा गला एकदम फट पड़ा। अनवरत क्रंदन एक नदी के प्रवाह की भांति बह चला। रसीली ने अपनी बेटी-दामाद के भूले-बिसरे किस्से उस क्रंदन के साथ दुहराने आरंभ कर दिये। यह एक परंपरा थी। उसका निर्वाह रसीली न करे, तो गांव में उसकी थुड़ी-थुड़ी हो जाए। सारा गांव उसके सिर पर आसमान पटक दे।जवान बेटी का खसम नहीं रहा ! दामाद के मरने पर सास न रोये!
रोते-धोते, चीखते-चिल्लाते किस्से-कहानियों की अनगिनत श्रृंखलाओं के साथ ही गाड़ी रुक गयी और बीरसिंह एक उचाट भरकर नीचे उतर पड़ा। तब बीरसिंह और सानी ने भी रसीली के कंठ से होड़ लगानी शुरु कर दी थी। और इन्हीं रोती आंखों, जिसमें आंसू थे या रातभर के जागरण का आलस्य, बीरसिह ने देखा, उसकी बहन बाहर फरके में खड़ी हंस रही है। उसने दांत चबाये। उसे लगा कि वह एक पत्थर उठाकर उसके सिर पर पटक दे। उसका खसम मर गया और वह हंस रही है ! उसने देखा, गांव की औरतें, जो गैल चल रही थीं, वहां रुक गयी हैं। एक खासी भीड़ लग गयी है। बेटी आगे आकर मां से लिपट पड़ी। दोनों खूब रोयीं। सानी समधी के बाजू में खड़ा आंसू पोंछता रहा और समधी बराबर मुसकराता सबको देख रहा था। बोला, “अरी रधिया, बाबू के लिए पानी तो ला।”
बीरसिंह ने सुना तो दंग रह गया। भीतर लाश पड़ी होगी और उसका बाप पानी मंगा रहा है। बाप है कि कसाई ? बीरसिंह कुछ पास आ गया। मातम के मौसम में उसे पैर पकड़ने का भी ध्यान नहीं रहा। वह तो समाचार सुनकर ही ठूंठ बन गया था। उसने अपनी धुंधली आंखों को ऊपर उठाते हुए पूछा, “दादा, बापू को क्या हो गया था ? अभी...।”
“हां, बेटा, भीतर तो चलो...।” दादा के बनावटी स्वरों में निराशा तो थी, पर होंठ अब भी तिरछे ही थे। बीरसिंह यह देखकर कितना खिसियाया था, इसे दूसरा नहीं जान सकता। ये सब आदमी हैं या जानवर ? जवान जीव चला जाए और सब हंसते रहें। रसीली की बेटी ने अब रोना बंद कर दिया था, पर सरीली बराबर अपना सिर और छाती पीटती जा रही थी। वह इस तरह रो रही थी जैसे उसी का खसम चला गया है। इतना रोना-पीटना कि कोई अंदर जाने को तैयार नहीं और तब बीरसिंह ने अपनी आंखों को बार-बार पीटना शुरू कर दिया, जब उसने देखा कि उसका बहनोई तो लोटे में पानी लेकर बाहर आ रहा है। यह क्या सपना है ? यह शारदा मइया परताप है, जो मुर्दा जी गया। उसकी पलकें बार-बार बंद होने और खुलने लगीं। वह आकर अपने साले से जैसे लिपटा कि बीरसिंह के पैर से जमीन खिसक गयी। वह जैसे अचेत हो गया, सुन्न पड़ गया ! अब रसीली ने भी रोना बंद कर दिया था और सानी की आंखे भी पथरा गयी थीं।
“बुरा न मानो बापू !” बेटी ने शरमाते हुए कहा, “कल इनके सिर पर कौआ बैठा था तो पंडितजी ने कहा कि इनके मरने की खबर भेज दो। तुम्हीं पास थे सो... सो मैं यह भी खयाल न रख सकी कि मइया...” बेटी ने मुंह में अपनी साड़ी का छोर ठूंस लिया और भीतर चली गयी। बीरसिंह तत्काल एक खूंखार भेड़िए की तरह चीख पड़ा। उसने एक धक्का देकर अपने बहनोई को दूर फेंक दिया। अपनी जलती आंखों से एक बार उसने वहां खड़े सारे लोगों को देखा फिर फंदे बैलों की रास पकड़कर जो गाड़ी पर चढ़ा तो फिर दौड़ती गाड़ी आगे भागती गयी। किसानों ने उसे बुलाया पर अब किसी की आवाज़ उसके कानों में नहीं आ रही थी।


श्री राजेन्द्र अवस्थी
पूर्व संपादक, कादंबिनी
एफ-12, जंगपुरा एक्सटेंशन

नई दिल्ली, 110014
(हिन्दी के प्रख्यात संपादक एवं चिंतक श्री राजेन्द्र अवस्थी को उनकी पत्रकारिता एवं साहित्य साधना के लिए सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ ने वर्ष 2004 का पद्मभूषण झावरमल्ल शर्मा सम्मान से अलंकृत किया गया है । संपादक )

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