अस्मिता पर पालीवुड का भूत कभी सवार नहीं हुआ लेकिन अनेक लड़कियाँ ऐसी भी थीं जो पालीवुड से ज्यादा बॉलीवुड की चकाचौंध से प्रभावित थीं। पैरी सबको ज्यादा आकर्षित कर रही थीं।
दरअसल पालपुर महानगर बनने के लिए बुरी तरह से उतावला हो चुका था।
फैशन प्रतियोगिताएं...
सौन्दर्य प्रतियोगिताएं...
पॉप, रॉक एंड रोल और डीजे...
पूरी तरुणाई इसी दिशा की ओर भागती नज़र आ रही थी। यही थी आधुनिक होने की परिभाषा।
छोटे-छोटे कॉलेजों में मिस एंड मिस्टर कॉलेज प्रतियोगिताएं होने लगी थी। एकाएक सबको जैसे सबसे सुंदर दिखने का भूत सवार हो गया था। सबसे सुंदर दिखना और मॉडर्न नज़र आना। यही था अधिकांश लड़के-लड़कियों का सपना। इसके लिए लड़कियाँ या तो कम से कम कपड़े पहनतीं या फिर शरीर को उभारने वाले कपड़े पसंद करतीं। लड़के भी ऐसे वस्त्र पहनने का शौक पाले हुए थे जो पहली नज़र में मैले-कुचैले दिखते थे। कुछ स्थानों से फटे भी रहते। लेकिन यह मॉडर्न फैशन था। ऐक दौर था जब फटे कपड़े पहनकर निकलो तो शमर् आती थी। लगता था घर की बदहाली का प्रदर्शन हो रहा है, लेकिन अब यह नए जमाने का नया चिंतन है कि फटा-चिथड़ा भी चलेगा, बशर्ते वह जीन्स हो।
15, निराला नगर की श्रीमती गायत्री बरमन भी नए दौर के साथ चलना चाहती है।
“भई इक्कीसवीं सदी है” यह तकिया कलाम है गायत्री जी का। वह खुद बिंदास रहती हैं और अपनी लड़की को भी बिंदास बनाए रखना चाहती हैं। बिंदास मतलब स्लीवलेस ब्लाउज़। पतले से पतला कपड़ा। नाभि से नीचे बंधी हुई साड़ी। अगर सलवार कुरता पहना है तो चुन्नी का बोझ लादने से क्या मतलब। आंगिक उभारों पर किसी की नज़र पड़े तो उसकी बला से।
“इससे मुझे क्या ? भई यह इक्कीसवीं सदी है। इसमें इतनी भी आज़ादी नहीं तो क्या फायदा ? मॉडर्नाइज़ेशन की बातें बेकार हैं। बिंदास मतलब मांग में सिंदूर जरूरी नही। भई यह...”
गायत्री बरमन के पति सुरेश बरमन शांत प्रकृति के आदमी हैं। तेज़ प्रकृति औरतों के पति अकसर शांत होते हैं। होते क्या, हो जाते हैं। एक आग रहे तो दूसरा पानी वरना रोजाना महाभारत हो और पड़ोसी बैठे-ठाले मुफ़्त में मनोरंजन करें। घर से लेकर दफ्तर तक सबको सहना सुरेश बरमन की दिनचर्या ही बन चुकी है। पत्नी को शुरू-शुरू में सुरेश बरमन टोकते भी थे कि ‘ढंग से रहा करो’, लेकिन गायत्री बरमन ऐसे फट पड़ती थीं जैसे पता नहीं उन पर कितना बड़ा अत्याचार हो रहा है। इतनी जोर-जोर से चीखतीं कि आस-पड़ोस के घरों तक आवाज चली जाती। तब पड़ोसी अपने धर्म का निर्वाह करके कान लगाकर गायत्री का भाषण सुना करते थे। सुरेश भाई समझाते कि ‘ज़रा धीरे बोलो’ लेकिन गायत्री बरमन रुकने का नाम नहीं लेतीं। हार कर सुरेश बरमन मैदान छोड़कर भाग खड़े होते। धीरे-धीरे उन्होंने हालात से समझौता कर लिया। वे मौन रहने लगे। पत्नी की हरकतों को अनदेखा करने लगे। बीस साल तो निकल गए वैवाहिक जीवन के। बाकी भी निकल जाएंगे। गायत्री जैसा चाहती है करे, मुझे उससे क्या। मैं कितना टेंशन पालूं।
पति के शांत पड़ जाने को गायत्री बरमन ने नारी स्वतंत्रता का उदाहरण मान लिया और ‘लेडीज़ क्लब’ में अपने भाषणों में अक्सर इसका जिक्र करने लगीं। उन्होंने साफ चेतावनी दी –
“बहनों, अगर आगे बढ़ना चाहती हो तो, जीवन में कुछ करना चाहती हो, तो बंधनों से मुक्त होना पड़ेगा। तुम्हें जो अच्छा लगता है, वह करो। अरे यह इक्कीसवीं सदी है। परम्परा भंजन सदी। ‘पोस्ट मॉडर्नाइज़ेशन’ यानी उत्तर आधुनिकता का दौर है। ऐसे समय में वही बुरका प्रथा, परदा प्रथा। हमें शर्म आनी चाहिए।”
तालियां दर तालियां...
जैसे-जैसे तालियां पिटतीं, गायत्री बरमन का उत्साह द्विगुणित होता जाता और वह कम कपड़े पहनने से लेकर समलैंगिक संबंधों के लिए भी तैयार रहने का आह्वान करने से नहीं चूकती थीं।
मतलब इक्कीसवीं सदी में बाईसवीं सदी की महिला थी गायत्री बरमन।
गायत्री बरमन जहां कहीं भी जातीं, उनकी बेटी सूजी भी साथ होती। सूजी के नाम पर उसकी सहेलियां उसका मजाक भी उड़ातीं –
“ए सूजी... ए सूजी। आ तेरा हलुआ बनाएंगे।”
सूजी माँ से कहती कि मेरा नाम बदल दो तो माँ का दो टूक जवाब होता – “तुम अपनी सहेलियां ही बदल दो। अरे तेरा नाम तो मैं पहले ही बदल चुकी हूँ। तू जब पैदा हुई तो तेरे डैड ने तेरा नाम रख दिया था सुजाता। बड़ा परम्परावादी नाम था। मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आया तो मैंने सुजाता को सूजी बना दिया। कितना मॉडर्न, कितना अच्छा नाम है और तू चाहती है कि इसे बदल दूँ ? धत्।”
धीरे-धीरे सूजी को भी अपने नाम में रस आने लगा। माँ की बिंदास अदाएं उस पर नशे की तरह छाने लगीं। माँ ही उसका आदर्श बनती गई। और सोलह साल तक पहुंचते-पहुंचते सूजी बरमन पालीवुड की उभरती हुई प्रतिभा के रूप में पहचानी जाने लगी।
बेटी को हीरोइन बनाने के बाद गायत्री बरमन की बड़ी इच्छा थी की वह भी फिल्मों में काम करे। एक-दो फिलमों में हीरोइन बनने की कोशिशें भी की, लेकिन निर्माताओं के समझाने पर साइड हीरोइन का रोल करने पर राजी हो गई। अब पैंतालीस साल की उमर में कोई हीरोइन तो रखने से रहा। साइड हीरोइन भी मजबूरी में बनाई गई। रंगीले रतन रंजीत मालपानी ने ‘कास्टिंग काउच’ का सहारा लिया।
गायत्री बरमन ने दो टूक कहा – “मुझे तो बस काम चाहिए। जिस्म का दाम देने को तैयार हूँ। लेकिन एक शर्त है। अगली फिल्म में मेरी बेटी को चांस दोगे।”
रंजीत तो ऊँची (और पालीवुड वालों की जुबान में कुत्ती) चीज था। चट से बोला – “क्यों नहीं, क्यों नहीं, माँ जब इतनी मीठी है तो बेटी भी कम स्वीट थोड़े न होगी?”
“खबरदार, मेरी बेटी पर बुरी नज़र डाली तो।” गायत्री ने शरारती मुसकान के साथ कहा, “अपने सारे शौक पूरे कर लो। मैं हूँ न, लेकिन मेरी बेटी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखना वरना आँखें नोच लूँगी।”
रंजीत मन ही मन बड़बड़ाया – “मैं नहीं देखूँगा। खुद तेरी बेटी मुझे आँख उठाकर देखेगी, तब क्या कर लेगी ?”
रंजीत लाफागढ़ी भाषा में एक एलबम निकाल रहा था।
उसने सूजी से बात की।
सूजी तैयार हो गई। शर्त यह थी कि एलबम के बाद वह रंजीत की फिल्म में ‘हीरोइन’ बनेगी।
रंजीत ने कहा – “ओक्के!”
गायत्री बरमन को जब पता चला कि सूजी एलबम के लिए राजी हो गई है तो उसने सूजी को डांटा – “तू मेरी बेटी है। एलबम-फेलबम का चक्कर छोड़, सीधे फिल्मों में काम कर, वरना हर निर्माता तुझे एलबम वाली बनाकर रख देगा, समझी।”
लेकिन सूजी बरमन अपने जीवन के इस पहले अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। उसकी सहेलियां ईशा, सुषमा, निशा सभी तो एलबम में धूम मचा रही हैं। ‘रिमिक्स’ कर रही हैं। पैसा भी कमा रही हैं। कितना भी मिले। पॉकेट खर्च तो निकल रहा है। घर पर बोझ तो नहीं है। मोबाईल का खर्चा, कपड़े-लत्ते, पेट्रोल, ब्यूटी पार्लर आदि के खर्चे कहां से निकलेंगे ? एलबम में काम करने से इतना तो मिल ही जाता है कि मम्मी-डैडी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता।
रंजीत ने सूजी के साथ पहला एलबम किया – “कांटा लगा”।
इस एलबम में सूजी पर छः डांस फिल्माए गए। हर डांस बड़ा सेक्सी था। लखनपुर के फार्म हाउस में एलबम की शूटिंग हुई थी।
सूजी रोज सुबह घर से निकलती तो सीधे रात को पहुंचती। कई बार तो रात को भी घर नहीं आती थी। बस, मोबाईल कर देती – “हाय मॉम, आज नहीं आ सकूंगी। शूटिंग रात भर चलेगी। कड़ी मेहनत करूँगी तभी तो हिट होऊँगी न।”
गायत्री बरमन खुश होती। सोचती – “आने वाला कल सूजी का है। मैं तो कुछ न कर सकी, लेकिन मेरी बेटी धमाल करेगी। मेरा नाम रौशन करेगी।”
सुरेश बरमन नाराज होते। कभी-कभार गुस्से में कह देते – “तुम मेरी बेटी को बरबादी के रास्ते पर ले जा रही हो। एक दिन पछताओगी।”
“तुम अपने पुराने खयालों को अपने पास रखो। मेरी बेटी का पहला एलबम तो रिलीज होने दो। देख लेना, छा जाएगी मीडिया में। तब खुद गर्व से कहोगे कि सूजी मेरी बेटी है।”
सुरेश सिर पीटते हुए आगे बढ़ जाते। अब तो आदत-सी पड़ गई है। “सहै तौन लहै”
यानी सहनशक्ति वाला सबके साथ निभा लेता है।
आखिर सूजी का एलबम आ ही गया। “कांटा लगा” में उन्मुक्त भाव-भंगिमाओं वाले नृत्य थे। जैसे बोल थे, वैसा ही आंगिक अभिनय था। सूजी मुख्य भूमिका में थी। सहायक के रूप में छः लड़कियां थीं। कम कपड़ों में अंगों को चौतरफा घूम-घूम कर नाचना था। कानफाड़ू संगीत में थिरकती सूजी को देखकर गायत्री बरमन फूली नहीं समा रही थी। वह सोच रही थी यह एलबम तो तहलका मचा देगा। राष्ट्रीय स्तर पर धूम मच जाएगी। लेकिन त्रासदी यह थी कि एलबम तैयार किया था लोकल कम्पनी मालपानी के एम सीरीज़ ने। लाफागढ़ राज्य के बाहर एलबम जा नहीं सकता था। देशभर में मार्केटिंग करने में ही तेल निकल जाता। मालपानी की उतनी बड़ी आर्थिक हैसियत भी नहीं थी। उसने राज्य भर के कुछ इलाकों में एलबम को जरूर पहुंचा दिया था। लेकिन उसने सूजी को फूटी-कौड़ी नहीं दी। गायत्री ने पैसे की बात की भी लेकिन मालपानी तो नंबर एक का घाघ था। चट से बोल पड़ा –
“अरे, एलबम तो बिकने दो मैडम, मनचाहा पैसा दूँगा, माँ कसम, लेकिन अभी तो बाजार मंदा है। डिमांड कम है। प्रॉफिट होते ही रॉयल्टी दूँगा साईं। डोंट वरी।”
“लेकिन बिक तो रहा है, मैंने पता किया था।” गायत्री बरमन बोली, “कुछ तो पैसे दे दो।”
“देखो मैडम, आपकी लड़की को हमने इतना बड़ा ब्रेक दिया है नी, और क्या चाहिए। अगर आप पैसे की बात करेंगी तो फिर अगले एलबम के लिए सोचना पड़ेगा। यहां लड़कियों की कमी है क्या ?
“नहीं-नहीं भई ऐसा मत करना। लड़की के भविष्य का सवाल है” गायत्री घबरा गई, “मैं तो बस यूँ ही कह रही थी। हड़बड़ी नहीं है। जैसे ही कुछ कमाई हो, दे देना। सूजी को भी अच्छा लगेगा।”
गायत्री बरमन चुपचाप लौट आई। मन ही मन तो खूब कोस रही थी मालपानी को। उसका बस चलता तो कच्चा चबा जाती। लेकिन रंजीत तो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी था। उसे नाराज भी तो नहीं कर सकती थी। आज नहीं तो कल वह मुझे घास जरूर डालेगा।
कुछ दिन बाद रंजीत ने दूसरे एलबम की तैयारी शुरू कर दी। यह हिन्दी में था। उसने इसका शीर्षक रखा “हुस्न के लाखों रंग”।
इस एलबम के लिए भी उसने सूजी को याद किया और गायत्री ने अपनी बेटी को भेज दिया रंजीत के पास।
रंजीत ने सूजी से कहा – “यहां ठीक से बात नहीं हो पाएगी। चलो, किसी होटल में चलकर चाय पिएंगे। वहीं डिस्कशन करेंगे।”
“ओके, आय एम रेडी” बालों को पीछे फेंकते हुए सूजी ने कहा, “लेकिन मैं चाय भर नहीं पिऊँगी, नाश्ता भई करूँगी।”
“ठीक है भई, जैसी तुम्हारी मर्जी।”
“वैसे आप तो बड़े कंजूस हैं। पैसे तक तो देते नहीं। नश्ता क्या खाक कराएंगे।”
“किसने कह दिया कि मैं कंजूस हूँ।” मालपानी ने मुसकराते हुए कहा, “अभी तुमने मेरा दिल नहीं देखा है। मैं तुम्हें पैसों से लाद दूंगा। लेकिन मेरी बात भी तो मानो।”
“मैं तो आपकी हर बात मानती आई हूँ” सूजी बोली, “कांटा लगा में कितने बोल्ड सीन दिए हैं मैंने। पालीवुड की कोई लड़की इतना बोल्ड सीन नहीं दे सकती थी। आपके कहने पर ही मैं राजी हुई और आप कहते हैं बात नहीं मानती।”
“खैर, यह बात तो है” रंजीत ने सूजी के गाल पर हौले से हाथ फेर दिया, “लेकिन कभी-कभार टेंशन रहता है तो आराम करने की इच्छा होती है। तब तो कोई पानी पूछने वाला भी नहीं होता। आज भी काफी टेंशन है। होटल में भोजन करके वहां आराम करने का मूड है। क्या तुम भी मेरे साथ आराम फरमाना चाहोगी ? आराम करने के बाद अपन चर्चा कर लेंगे। मैं तुमको दो हजार रुपए दे दूंगा। बोलो राजी हो ?”
सूजी कुछ देर सोचती रही फिर बोली, “ओके, जैसा आप चाहें।”
रंजीत भीतर ही भीतर कुटिलता के साथ हंस रहा था।
वह जानता था कि सूजी को अपना कैरियर बनाना है। इसके लिए वह समझौता कर सकती है।
मछली को कांटे में जरा-सा दाना दिखता है और वह उसमें फंस जाती है।
सूजी को समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह मछली बन चुकी है। या फिर समझ में आ भी गया हो क्या पता। आजकल तो न जाने कितनी लड़कियां सोचती हैं कि मंजिल पाने के लिए खुद को मछली भी बनना पड़े तो कोई नुकसान नहीं। पालीवुड से लेकर बॉलीवुड तक आगे बढ़ने का यही एक सहज सरल तरीका बच गया है।
सूजी रंजीत के साथ होटल चली गई। पहले दोनों ने चाय पी। फिर लंच लिया। होटल के एक कमरे में दोनों आराम करने चले गए।
...आराम करने के बाद जब सूजी बाहर निकली तो उसके पर्स में दो हजार रुपए थे।
सूजी मुसकरा रही थी कि उसने रंजीत को उल्लू बना कर दो हजार रुपए कमा लिए।
और रंजीत सोच रहा था – दो हजार में यह मछली महंगी नहीं है।
सूजी थकी-मांदी घर पहुंच ही रही थी कि रंजीत का मोबाईल बज उठा। कह रहा था – “अपनी मां को बता देना कि रंजीत ने पुराने एलबम का दो हजार रुपया दिया है। अगले एलबम का एडवांस भी दे देगा।”
सूजी मुसकराई – “मैं भी यही बताने वाली थी। अब मैं बच्ची नहीं हूँ। सब समझती हूँ। आप चिंता न करें।”
अब तो सूजी लगभग रोज ही रंजीत से मिलने पहुंच जाती। एलबम की शूटिंग खत्म होने के बाद भी दोनों घंटों बैठे रहते। बाकी लड़कियों में काना-फूसी शुरू हो गई। रंजीत-सूजी बाहों में बाहें डाले घूमते। एकांत में बैठकर ठहाके लगाते। फिर कमरे में बंद हो जाते। रंजीत पचास साल का और सूजी बीस साल की। उम्र का बड़ा अंतर, लेकिन सूजी रंजीत की ऐसी दीवानी हो गई कि लोग दबी जुबान से तरह-तरह की बातें भी करने लगे थे –
… “रंजीत की रखैल बन गई है सूजी।”
…“अपना जीवन बर्बाद कर रही है यह लड़की।”
…“ऐसी कैरियरिस्ट लड़की हमने तो अब तक नहीं देखी। एलबम में काम करने के लिए अपनी इज्जत को ही दांव पर लगा दिया, छीः।”
…“इसके माता-पिता भी ऐसे ही हैं शायद।”
…“अरे माँ ही जब इतनी चालू है तो बच्ची क्यों नहीं होगी ? खून का असर कहां जाएगा ?”
जिसके जी में जो आता, बोल देता। सूजी के कानों तक भी ये बातें पहुंचती थीं, लेकिन वह अनसुनी कर देती। कभी कोई पूछने की कोशिश करता तो साफ-साफ कह देती – “लोग मुझसे जलते हैं न। मैं तो रंजीत का आदर करती हूँ, बस। ऐसी-वैसी कोई बात नहीं।”
रंजीत भी कहता – “सूजी तो मेरी बेटी के बराबर है। लोग खामख्वाह शक करते हैं। भई, ये लाइन ही ऐसी है कि साथ-साथ रहना पड़ता है। अब लोग गलत समझें तो मैं क्या कर सकता हूँ।”
रंजीत की पत्नी को भी सूजी और रंजीत के लफड़े के बारे में पता चल चुका था। इसीलिए वह कभी-कभार शूटिंग स्थल पर पहुंच कर घंटों बैठी रहती। उस वक्त रंजीत और सूजी एक-दूसरे की तरफ देखते भी नहीं थे। गोया छत्तीस का आंकड़ा हो। लेकिन जैसे ही रंजीत की बीवी लौटती, दोनो फिर एक-दूसरे के पास आकर खूब हंसते कि अच्छा उल्लू बनाया। बाकी लोग इस अवैध प्रेम संबंध का रस लेते थे। आपस में बतियाते – “हमें इससे क्या ? मरे जिएं, रसातल में जाएं, अपनी बला से। हमें हमारा मेहनताना भर दे दें वक्त पर।”
देखते ही देखते दूसरा एलबम भी आ गया। रंजीत ने उसे पूरे पाँच हजार दिए।
गायत्री बरमन खुश हो गई। उसने सूजी की पीठ ठोंकी।
“शाबाश बेटी, इसी तरह मेहनत करना। मैं तुझे टॉप की हीरोइन देखना चाहती हूँ। अब तू मिस पालपुर कांटेस्ट की तैयारी कर। फिर मिस इंडिया में भाग लेना है। अब कड़ी मेहनत करनी है तुझे।”
सूजी ने माँ के कंधे पर झूलते हुए कहा – “तेरा सपना एक दिन जरूर पूरा होगा ममा। डोंट बॉदर! एक दिन मैं बॉलीवुड में धूम मचाऊंगी और मल्लिका सेहरावत को भी मात दे दूँगी। सपने अक्सर पूरे नही होते।
सूजी की पटकथा में अचानक यू टर्न आ गया।
एक दिन सूजी को पता चला कि वह तो पेट-से है। यानी कि वह माँ बनने वाली है।
उसने माँ गायत्री बरमन को बता देने में ही भलाई समझी। पिता सुरेश बरमन को पता चलता तो वह जान से ही मार देते। माँ थोड़ा उदार है। आधुनिक दृष्टि वाली है। वह समझती है कि नए जमाने की लड़की है। कभी-कभार ऐसा-वैसा भी कुछ हो सकता है। लेकिन हर समस्या का समाधान है। इसका भी हल निकल जाएगा।
गर्भपात!
भ्रूण हत्या!
माँ एक दिन सूजी को एक प्राइवेट नर्सिंग होम में ले गई। गर्भपात हो गया। रंजीत ने खर्चा उठाया। गायत्री बरमन को इस बात का संतोष था कि रंजीत ने अपनी गलती मानी। पैसे खर्च किए।
“देखो रंजीत! इतनी बड़ी बात हो गई है। अब तुम सूजी का हर पल साथ देना। अगली फिलम में सूजी हीरोइन रहेगी, मैं अभी से बताए देती हूँ हां।”
“कैसी बात करती हैं आप! मैं किसी दूसरी हीरोइन के बारे में सोच ही नहीं सकता।”
“मैंने सुना है कि तुम पैरी को ले रहे हो, वो तो बड़ी चालू टाइप की लड़की है। उसे मत लेना। मेरी सूजी बेटी के आगे वह कुछ भी नहीं। इसमें एक ग्रेविटी है, पैरी कॉलगर्ल है।”
“सूजी के अलावा मैं किसी और को लेने की सोच ही नहीं सकता। मेरी हीरोइन तो सूजी ही रहेगी। पैरी सहायक हीरोइन है। आजकल दर्शक पैरी की डिमांड करते हैं, लेकिन मैं सूजी का ध्यान रखूंगा। सूजी पर चार गाने फिल्माए जाएंगे और पैरी पर केवल एक।”
“तब ठीक है। पैरी को ज्यादा भाव मत दिया करो। पोस्टर में सूजी को ही हाइ लाइट करना।”
“सूजी ही मेरी सबकुछ है।”
“और मैं नहीं ?”
“आ... प...? हां, हां आप भी सब कुछ हैं।” रंजीत हकला गया।
उसने गौर से देखा गायत्री बरमन मुसकराते हुए घूर रही थी। वह मतलब समझ रहा था। बोला, “सूजी तो अभी कुछ दिन आराम करेगी। आपको वक्त मिले तो दो-तीन दिन के बाद आइए न, नई फिल्म पर कुछ चर्चा कर लेंगे। मैं आपको कुछ एडवांस भी दे दूँगा।”
गायत्री बरमन की आँखों में चमक आ गई। उसे लगा, उसकी मार्केट वैल्यू अभी खत्म नहीं हुई है।
वह बोली – “मैं जरूर आऊंगी।”
मतलब यह कि माँ-बेटी दोनों ही मुट्ठी में! जय हो पालीवुड की!!
दरअसल पालपुर महानगर बनने के लिए बुरी तरह से उतावला हो चुका था।
फैशन प्रतियोगिताएं...
सौन्दर्य प्रतियोगिताएं...
पॉप, रॉक एंड रोल और डीजे...
पूरी तरुणाई इसी दिशा की ओर भागती नज़र आ रही थी। यही थी आधुनिक होने की परिभाषा।
छोटे-छोटे कॉलेजों में मिस एंड मिस्टर कॉलेज प्रतियोगिताएं होने लगी थी। एकाएक सबको जैसे सबसे सुंदर दिखने का भूत सवार हो गया था। सबसे सुंदर दिखना और मॉडर्न नज़र आना। यही था अधिकांश लड़के-लड़कियों का सपना। इसके लिए लड़कियाँ या तो कम से कम कपड़े पहनतीं या फिर शरीर को उभारने वाले कपड़े पसंद करतीं। लड़के भी ऐसे वस्त्र पहनने का शौक पाले हुए थे जो पहली नज़र में मैले-कुचैले दिखते थे। कुछ स्थानों से फटे भी रहते। लेकिन यह मॉडर्न फैशन था। ऐक दौर था जब फटे कपड़े पहनकर निकलो तो शमर् आती थी। लगता था घर की बदहाली का प्रदर्शन हो रहा है, लेकिन अब यह नए जमाने का नया चिंतन है कि फटा-चिथड़ा भी चलेगा, बशर्ते वह जीन्स हो।
15, निराला नगर की श्रीमती गायत्री बरमन भी नए दौर के साथ चलना चाहती है।
“भई इक्कीसवीं सदी है” यह तकिया कलाम है गायत्री जी का। वह खुद बिंदास रहती हैं और अपनी लड़की को भी बिंदास बनाए रखना चाहती हैं। बिंदास मतलब स्लीवलेस ब्लाउज़। पतले से पतला कपड़ा। नाभि से नीचे बंधी हुई साड़ी। अगर सलवार कुरता पहना है तो चुन्नी का बोझ लादने से क्या मतलब। आंगिक उभारों पर किसी की नज़र पड़े तो उसकी बला से।
“इससे मुझे क्या ? भई यह इक्कीसवीं सदी है। इसमें इतनी भी आज़ादी नहीं तो क्या फायदा ? मॉडर्नाइज़ेशन की बातें बेकार हैं। बिंदास मतलब मांग में सिंदूर जरूरी नही। भई यह...”
गायत्री बरमन के पति सुरेश बरमन शांत प्रकृति के आदमी हैं। तेज़ प्रकृति औरतों के पति अकसर शांत होते हैं। होते क्या, हो जाते हैं। एक आग रहे तो दूसरा पानी वरना रोजाना महाभारत हो और पड़ोसी बैठे-ठाले मुफ़्त में मनोरंजन करें। घर से लेकर दफ्तर तक सबको सहना सुरेश बरमन की दिनचर्या ही बन चुकी है। पत्नी को शुरू-शुरू में सुरेश बरमन टोकते भी थे कि ‘ढंग से रहा करो’, लेकिन गायत्री बरमन ऐसे फट पड़ती थीं जैसे पता नहीं उन पर कितना बड़ा अत्याचार हो रहा है। इतनी जोर-जोर से चीखतीं कि आस-पड़ोस के घरों तक आवाज चली जाती। तब पड़ोसी अपने धर्म का निर्वाह करके कान लगाकर गायत्री का भाषण सुना करते थे। सुरेश भाई समझाते कि ‘ज़रा धीरे बोलो’ लेकिन गायत्री बरमन रुकने का नाम नहीं लेतीं। हार कर सुरेश बरमन मैदान छोड़कर भाग खड़े होते। धीरे-धीरे उन्होंने हालात से समझौता कर लिया। वे मौन रहने लगे। पत्नी की हरकतों को अनदेखा करने लगे। बीस साल तो निकल गए वैवाहिक जीवन के। बाकी भी निकल जाएंगे। गायत्री जैसा चाहती है करे, मुझे उससे क्या। मैं कितना टेंशन पालूं।
पति के शांत पड़ जाने को गायत्री बरमन ने नारी स्वतंत्रता का उदाहरण मान लिया और ‘लेडीज़ क्लब’ में अपने भाषणों में अक्सर इसका जिक्र करने लगीं। उन्होंने साफ चेतावनी दी –
“बहनों, अगर आगे बढ़ना चाहती हो तो, जीवन में कुछ करना चाहती हो, तो बंधनों से मुक्त होना पड़ेगा। तुम्हें जो अच्छा लगता है, वह करो। अरे यह इक्कीसवीं सदी है। परम्परा भंजन सदी। ‘पोस्ट मॉडर्नाइज़ेशन’ यानी उत्तर आधुनिकता का दौर है। ऐसे समय में वही बुरका प्रथा, परदा प्रथा। हमें शर्म आनी चाहिए।”
तालियां दर तालियां...
जैसे-जैसे तालियां पिटतीं, गायत्री बरमन का उत्साह द्विगुणित होता जाता और वह कम कपड़े पहनने से लेकर समलैंगिक संबंधों के लिए भी तैयार रहने का आह्वान करने से नहीं चूकती थीं।
मतलब इक्कीसवीं सदी में बाईसवीं सदी की महिला थी गायत्री बरमन।
गायत्री बरमन जहां कहीं भी जातीं, उनकी बेटी सूजी भी साथ होती। सूजी के नाम पर उसकी सहेलियां उसका मजाक भी उड़ातीं –
“ए सूजी... ए सूजी। आ तेरा हलुआ बनाएंगे।”
सूजी माँ से कहती कि मेरा नाम बदल दो तो माँ का दो टूक जवाब होता – “तुम अपनी सहेलियां ही बदल दो। अरे तेरा नाम तो मैं पहले ही बदल चुकी हूँ। तू जब पैदा हुई तो तेरे डैड ने तेरा नाम रख दिया था सुजाता। बड़ा परम्परावादी नाम था। मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आया तो मैंने सुजाता को सूजी बना दिया। कितना मॉडर्न, कितना अच्छा नाम है और तू चाहती है कि इसे बदल दूँ ? धत्।”
धीरे-धीरे सूजी को भी अपने नाम में रस आने लगा। माँ की बिंदास अदाएं उस पर नशे की तरह छाने लगीं। माँ ही उसका आदर्श बनती गई। और सोलह साल तक पहुंचते-पहुंचते सूजी बरमन पालीवुड की उभरती हुई प्रतिभा के रूप में पहचानी जाने लगी।
बेटी को हीरोइन बनाने के बाद गायत्री बरमन की बड़ी इच्छा थी की वह भी फिल्मों में काम करे। एक-दो फिलमों में हीरोइन बनने की कोशिशें भी की, लेकिन निर्माताओं के समझाने पर साइड हीरोइन का रोल करने पर राजी हो गई। अब पैंतालीस साल की उमर में कोई हीरोइन तो रखने से रहा। साइड हीरोइन भी मजबूरी में बनाई गई। रंगीले रतन रंजीत मालपानी ने ‘कास्टिंग काउच’ का सहारा लिया।
गायत्री बरमन ने दो टूक कहा – “मुझे तो बस काम चाहिए। जिस्म का दाम देने को तैयार हूँ। लेकिन एक शर्त है। अगली फिल्म में मेरी बेटी को चांस दोगे।”
रंजीत तो ऊँची (और पालीवुड वालों की जुबान में कुत्ती) चीज था। चट से बोला – “क्यों नहीं, क्यों नहीं, माँ जब इतनी मीठी है तो बेटी भी कम स्वीट थोड़े न होगी?”
“खबरदार, मेरी बेटी पर बुरी नज़र डाली तो।” गायत्री ने शरारती मुसकान के साथ कहा, “अपने सारे शौक पूरे कर लो। मैं हूँ न, लेकिन मेरी बेटी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखना वरना आँखें नोच लूँगी।”
रंजीत मन ही मन बड़बड़ाया – “मैं नहीं देखूँगा। खुद तेरी बेटी मुझे आँख उठाकर देखेगी, तब क्या कर लेगी ?”
रंजीत लाफागढ़ी भाषा में एक एलबम निकाल रहा था।
उसने सूजी से बात की।
सूजी तैयार हो गई। शर्त यह थी कि एलबम के बाद वह रंजीत की फिल्म में ‘हीरोइन’ बनेगी।
रंजीत ने कहा – “ओक्के!”
गायत्री बरमन को जब पता चला कि सूजी एलबम के लिए राजी हो गई है तो उसने सूजी को डांटा – “तू मेरी बेटी है। एलबम-फेलबम का चक्कर छोड़, सीधे फिल्मों में काम कर, वरना हर निर्माता तुझे एलबम वाली बनाकर रख देगा, समझी।”
लेकिन सूजी बरमन अपने जीवन के इस पहले अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। उसकी सहेलियां ईशा, सुषमा, निशा सभी तो एलबम में धूम मचा रही हैं। ‘रिमिक्स’ कर रही हैं। पैसा भी कमा रही हैं। कितना भी मिले। पॉकेट खर्च तो निकल रहा है। घर पर बोझ तो नहीं है। मोबाईल का खर्चा, कपड़े-लत्ते, पेट्रोल, ब्यूटी पार्लर आदि के खर्चे कहां से निकलेंगे ? एलबम में काम करने से इतना तो मिल ही जाता है कि मम्मी-डैडी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता।
रंजीत ने सूजी के साथ पहला एलबम किया – “कांटा लगा”।
इस एलबम में सूजी पर छः डांस फिल्माए गए। हर डांस बड़ा सेक्सी था। लखनपुर के फार्म हाउस में एलबम की शूटिंग हुई थी।
सूजी रोज सुबह घर से निकलती तो सीधे रात को पहुंचती। कई बार तो रात को भी घर नहीं आती थी। बस, मोबाईल कर देती – “हाय मॉम, आज नहीं आ सकूंगी। शूटिंग रात भर चलेगी। कड़ी मेहनत करूँगी तभी तो हिट होऊँगी न।”
गायत्री बरमन खुश होती। सोचती – “आने वाला कल सूजी का है। मैं तो कुछ न कर सकी, लेकिन मेरी बेटी धमाल करेगी। मेरा नाम रौशन करेगी।”
सुरेश बरमन नाराज होते। कभी-कभार गुस्से में कह देते – “तुम मेरी बेटी को बरबादी के रास्ते पर ले जा रही हो। एक दिन पछताओगी।”
“तुम अपने पुराने खयालों को अपने पास रखो। मेरी बेटी का पहला एलबम तो रिलीज होने दो। देख लेना, छा जाएगी मीडिया में। तब खुद गर्व से कहोगे कि सूजी मेरी बेटी है।”
सुरेश सिर पीटते हुए आगे बढ़ जाते। अब तो आदत-सी पड़ गई है। “सहै तौन लहै”
यानी सहनशक्ति वाला सबके साथ निभा लेता है।
आखिर सूजी का एलबम आ ही गया। “कांटा लगा” में उन्मुक्त भाव-भंगिमाओं वाले नृत्य थे। जैसे बोल थे, वैसा ही आंगिक अभिनय था। सूजी मुख्य भूमिका में थी। सहायक के रूप में छः लड़कियां थीं। कम कपड़ों में अंगों को चौतरफा घूम-घूम कर नाचना था। कानफाड़ू संगीत में थिरकती सूजी को देखकर गायत्री बरमन फूली नहीं समा रही थी। वह सोच रही थी यह एलबम तो तहलका मचा देगा। राष्ट्रीय स्तर पर धूम मच जाएगी। लेकिन त्रासदी यह थी कि एलबम तैयार किया था लोकल कम्पनी मालपानी के एम सीरीज़ ने। लाफागढ़ राज्य के बाहर एलबम जा नहीं सकता था। देशभर में मार्केटिंग करने में ही तेल निकल जाता। मालपानी की उतनी बड़ी आर्थिक हैसियत भी नहीं थी। उसने राज्य भर के कुछ इलाकों में एलबम को जरूर पहुंचा दिया था। लेकिन उसने सूजी को फूटी-कौड़ी नहीं दी। गायत्री ने पैसे की बात की भी लेकिन मालपानी तो नंबर एक का घाघ था। चट से बोल पड़ा –
“अरे, एलबम तो बिकने दो मैडम, मनचाहा पैसा दूँगा, माँ कसम, लेकिन अभी तो बाजार मंदा है। डिमांड कम है। प्रॉफिट होते ही रॉयल्टी दूँगा साईं। डोंट वरी।”
“लेकिन बिक तो रहा है, मैंने पता किया था।” गायत्री बरमन बोली, “कुछ तो पैसे दे दो।”
“देखो मैडम, आपकी लड़की को हमने इतना बड़ा ब्रेक दिया है नी, और क्या चाहिए। अगर आप पैसे की बात करेंगी तो फिर अगले एलबम के लिए सोचना पड़ेगा। यहां लड़कियों की कमी है क्या ?
“नहीं-नहीं भई ऐसा मत करना। लड़की के भविष्य का सवाल है” गायत्री घबरा गई, “मैं तो बस यूँ ही कह रही थी। हड़बड़ी नहीं है। जैसे ही कुछ कमाई हो, दे देना। सूजी को भी अच्छा लगेगा।”
गायत्री बरमन चुपचाप लौट आई। मन ही मन तो खूब कोस रही थी मालपानी को। उसका बस चलता तो कच्चा चबा जाती। लेकिन रंजीत तो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी था। उसे नाराज भी तो नहीं कर सकती थी। आज नहीं तो कल वह मुझे घास जरूर डालेगा।
कुछ दिन बाद रंजीत ने दूसरे एलबम की तैयारी शुरू कर दी। यह हिन्दी में था। उसने इसका शीर्षक रखा “हुस्न के लाखों रंग”।
इस एलबम के लिए भी उसने सूजी को याद किया और गायत्री ने अपनी बेटी को भेज दिया रंजीत के पास।
रंजीत ने सूजी से कहा – “यहां ठीक से बात नहीं हो पाएगी। चलो, किसी होटल में चलकर चाय पिएंगे। वहीं डिस्कशन करेंगे।”
“ओके, आय एम रेडी” बालों को पीछे फेंकते हुए सूजी ने कहा, “लेकिन मैं चाय भर नहीं पिऊँगी, नाश्ता भई करूँगी।”
“ठीक है भई, जैसी तुम्हारी मर्जी।”
“वैसे आप तो बड़े कंजूस हैं। पैसे तक तो देते नहीं। नश्ता क्या खाक कराएंगे।”
“किसने कह दिया कि मैं कंजूस हूँ।” मालपानी ने मुसकराते हुए कहा, “अभी तुमने मेरा दिल नहीं देखा है। मैं तुम्हें पैसों से लाद दूंगा। लेकिन मेरी बात भी तो मानो।”
“मैं तो आपकी हर बात मानती आई हूँ” सूजी बोली, “कांटा लगा में कितने बोल्ड सीन दिए हैं मैंने। पालीवुड की कोई लड़की इतना बोल्ड सीन नहीं दे सकती थी। आपके कहने पर ही मैं राजी हुई और आप कहते हैं बात नहीं मानती।”
“खैर, यह बात तो है” रंजीत ने सूजी के गाल पर हौले से हाथ फेर दिया, “लेकिन कभी-कभार टेंशन रहता है तो आराम करने की इच्छा होती है। तब तो कोई पानी पूछने वाला भी नहीं होता। आज भी काफी टेंशन है। होटल में भोजन करके वहां आराम करने का मूड है। क्या तुम भी मेरे साथ आराम फरमाना चाहोगी ? आराम करने के बाद अपन चर्चा कर लेंगे। मैं तुमको दो हजार रुपए दे दूंगा। बोलो राजी हो ?”
सूजी कुछ देर सोचती रही फिर बोली, “ओके, जैसा आप चाहें।”
रंजीत भीतर ही भीतर कुटिलता के साथ हंस रहा था।
वह जानता था कि सूजी को अपना कैरियर बनाना है। इसके लिए वह समझौता कर सकती है।
मछली को कांटे में जरा-सा दाना दिखता है और वह उसमें फंस जाती है।
सूजी को समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह मछली बन चुकी है। या फिर समझ में आ भी गया हो क्या पता। आजकल तो न जाने कितनी लड़कियां सोचती हैं कि मंजिल पाने के लिए खुद को मछली भी बनना पड़े तो कोई नुकसान नहीं। पालीवुड से लेकर बॉलीवुड तक आगे बढ़ने का यही एक सहज सरल तरीका बच गया है।
सूजी रंजीत के साथ होटल चली गई। पहले दोनों ने चाय पी। फिर लंच लिया। होटल के एक कमरे में दोनों आराम करने चले गए।
...आराम करने के बाद जब सूजी बाहर निकली तो उसके पर्स में दो हजार रुपए थे।
सूजी मुसकरा रही थी कि उसने रंजीत को उल्लू बना कर दो हजार रुपए कमा लिए।
और रंजीत सोच रहा था – दो हजार में यह मछली महंगी नहीं है।
सूजी थकी-मांदी घर पहुंच ही रही थी कि रंजीत का मोबाईल बज उठा। कह रहा था – “अपनी मां को बता देना कि रंजीत ने पुराने एलबम का दो हजार रुपया दिया है। अगले एलबम का एडवांस भी दे देगा।”
सूजी मुसकराई – “मैं भी यही बताने वाली थी। अब मैं बच्ची नहीं हूँ। सब समझती हूँ। आप चिंता न करें।”
अब तो सूजी लगभग रोज ही रंजीत से मिलने पहुंच जाती। एलबम की शूटिंग खत्म होने के बाद भी दोनों घंटों बैठे रहते। बाकी लड़कियों में काना-फूसी शुरू हो गई। रंजीत-सूजी बाहों में बाहें डाले घूमते। एकांत में बैठकर ठहाके लगाते। फिर कमरे में बंद हो जाते। रंजीत पचास साल का और सूजी बीस साल की। उम्र का बड़ा अंतर, लेकिन सूजी रंजीत की ऐसी दीवानी हो गई कि लोग दबी जुबान से तरह-तरह की बातें भी करने लगे थे –
… “रंजीत की रखैल बन गई है सूजी।”
…“अपना जीवन बर्बाद कर रही है यह लड़की।”
…“ऐसी कैरियरिस्ट लड़की हमने तो अब तक नहीं देखी। एलबम में काम करने के लिए अपनी इज्जत को ही दांव पर लगा दिया, छीः।”
…“इसके माता-पिता भी ऐसे ही हैं शायद।”
…“अरे माँ ही जब इतनी चालू है तो बच्ची क्यों नहीं होगी ? खून का असर कहां जाएगा ?”
जिसके जी में जो आता, बोल देता। सूजी के कानों तक भी ये बातें पहुंचती थीं, लेकिन वह अनसुनी कर देती। कभी कोई पूछने की कोशिश करता तो साफ-साफ कह देती – “लोग मुझसे जलते हैं न। मैं तो रंजीत का आदर करती हूँ, बस। ऐसी-वैसी कोई बात नहीं।”
रंजीत भी कहता – “सूजी तो मेरी बेटी के बराबर है। लोग खामख्वाह शक करते हैं। भई, ये लाइन ही ऐसी है कि साथ-साथ रहना पड़ता है। अब लोग गलत समझें तो मैं क्या कर सकता हूँ।”
रंजीत की पत्नी को भी सूजी और रंजीत के लफड़े के बारे में पता चल चुका था। इसीलिए वह कभी-कभार शूटिंग स्थल पर पहुंच कर घंटों बैठी रहती। उस वक्त रंजीत और सूजी एक-दूसरे की तरफ देखते भी नहीं थे। गोया छत्तीस का आंकड़ा हो। लेकिन जैसे ही रंजीत की बीवी लौटती, दोनो फिर एक-दूसरे के पास आकर खूब हंसते कि अच्छा उल्लू बनाया। बाकी लोग इस अवैध प्रेम संबंध का रस लेते थे। आपस में बतियाते – “हमें इससे क्या ? मरे जिएं, रसातल में जाएं, अपनी बला से। हमें हमारा मेहनताना भर दे दें वक्त पर।”
देखते ही देखते दूसरा एलबम भी आ गया। रंजीत ने उसे पूरे पाँच हजार दिए।
गायत्री बरमन खुश हो गई। उसने सूजी की पीठ ठोंकी।
“शाबाश बेटी, इसी तरह मेहनत करना। मैं तुझे टॉप की हीरोइन देखना चाहती हूँ। अब तू मिस पालपुर कांटेस्ट की तैयारी कर। फिर मिस इंडिया में भाग लेना है। अब कड़ी मेहनत करनी है तुझे।”
सूजी ने माँ के कंधे पर झूलते हुए कहा – “तेरा सपना एक दिन जरूर पूरा होगा ममा। डोंट बॉदर! एक दिन मैं बॉलीवुड में धूम मचाऊंगी और मल्लिका सेहरावत को भी मात दे दूँगी। सपने अक्सर पूरे नही होते।
सूजी की पटकथा में अचानक यू टर्न आ गया।
एक दिन सूजी को पता चला कि वह तो पेट-से है। यानी कि वह माँ बनने वाली है।
उसने माँ गायत्री बरमन को बता देने में ही भलाई समझी। पिता सुरेश बरमन को पता चलता तो वह जान से ही मार देते। माँ थोड़ा उदार है। आधुनिक दृष्टि वाली है। वह समझती है कि नए जमाने की लड़की है। कभी-कभार ऐसा-वैसा भी कुछ हो सकता है। लेकिन हर समस्या का समाधान है। इसका भी हल निकल जाएगा।
गर्भपात!
भ्रूण हत्या!
माँ एक दिन सूजी को एक प्राइवेट नर्सिंग होम में ले गई। गर्भपात हो गया। रंजीत ने खर्चा उठाया। गायत्री बरमन को इस बात का संतोष था कि रंजीत ने अपनी गलती मानी। पैसे खर्च किए।
“देखो रंजीत! इतनी बड़ी बात हो गई है। अब तुम सूजी का हर पल साथ देना। अगली फिलम में सूजी हीरोइन रहेगी, मैं अभी से बताए देती हूँ हां।”
“कैसी बात करती हैं आप! मैं किसी दूसरी हीरोइन के बारे में सोच ही नहीं सकता।”
“मैंने सुना है कि तुम पैरी को ले रहे हो, वो तो बड़ी चालू टाइप की लड़की है। उसे मत लेना। मेरी सूजी बेटी के आगे वह कुछ भी नहीं। इसमें एक ग्रेविटी है, पैरी कॉलगर्ल है।”
“सूजी के अलावा मैं किसी और को लेने की सोच ही नहीं सकता। मेरी हीरोइन तो सूजी ही रहेगी। पैरी सहायक हीरोइन है। आजकल दर्शक पैरी की डिमांड करते हैं, लेकिन मैं सूजी का ध्यान रखूंगा। सूजी पर चार गाने फिल्माए जाएंगे और पैरी पर केवल एक।”
“तब ठीक है। पैरी को ज्यादा भाव मत दिया करो। पोस्टर में सूजी को ही हाइ लाइट करना।”
“सूजी ही मेरी सबकुछ है।”
“और मैं नहीं ?”
“आ... प...? हां, हां आप भी सब कुछ हैं।” रंजीत हकला गया।
उसने गौर से देखा गायत्री बरमन मुसकराते हुए घूर रही थी। वह मतलब समझ रहा था। बोला, “सूजी तो अभी कुछ दिन आराम करेगी। आपको वक्त मिले तो दो-तीन दिन के बाद आइए न, नई फिल्म पर कुछ चर्चा कर लेंगे। मैं आपको कुछ एडवांस भी दे दूँगा।”
गायत्री बरमन की आँखों में चमक आ गई। उसे लगा, उसकी मार्केट वैल्यू अभी खत्म नहीं हुई है।
वह बोली – “मैं जरूर आऊंगी।”
मतलब यह कि माँ-बेटी दोनों ही मुट्ठी में! जय हो पालीवुड की!!
(हिन्दी के व्यंग्य उपन्यासकार गिरीश पंकज के नवीनतम उपन्यास "पालीवुड की अप्सरा" के बारे में हमने कुछ समय पहले हमने यहीं कहा था कि यह उपन्यास विश्व के हिन्दी पाठकों लिए अंतरजाल पर उपलब्ध होगा । प्रस्तुत है एक अंश। संपादक)
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