2/27/2006
मेरे साथ क्या-क्या नहीं हुआ ?
कहानीः भरत प्रसाद
अंत – “अभी आपने अपने हृदय में एक नारी की पीड़ा नहीं सही है, नहीं महसूस की है।”
आप देख लीजिएगा मैं उस हैवान दरिंदे को एक न एक जरूर खत्म कर दूंगी। मैं उसे छोड़ूंगी नहीं चाहे कुछ भी हो जाय। आप क्या सोचते हैं कि मैं औरत हूं तो मर्दों का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। बिलकुल गलत सोचते हैं जनाब, भारी गलतफहमी में हैं। चलिए माना कि औरत सहनशील, शांत और गम बर्दाश्त करने वाली होती है, लेकिन यह मत भूलिए कि ऐसा वह एक सीमा तक ही करती है। जब उसे लगता है कि उसकी सज्जनता का गलत फायदा उठाया जा रहा है – तो वह आग हो जाती है, जिसकी लपट में आपका घमंड और आपकी मर्दानगी जलकर ख़ाक हो जाएगी। आप उसकी मौन-विनम्रता को जब कमजोरी समझ बैठते हैं, तभी आपकी गलती शुरू हो जाती है। वह ज़माना चला गया जब मर्द अपनी पत्नी को रात-दिन पीटता रहता था, गंदी-गंदी गालियां बकता था, और पत्नी उसे बिना कोई मजा चखाए रो-गाकर चुपचाप साफ-साफ बच जाएं। भूल जाइए वे दिन ! आपका मुंह नोंच लूंगी, चबा डालूंगी जी ! अभी किसी ने अपमान के प्रतिशोध में क्रोधोन्मत्त नारी के भयानक रूप को देखा कहां है ? जिस दिन देख लेंगे न, उस दिन आप किसी औरत को हाथ लगाने का मतलब समझ जाएंगे।
वैसे, जिस दिन से मैं यहां आयी हूं, तब से न जाने कितनी बार मेरी इच्छा हुई कि आत्महत्या कर लूं, लेकिन फिर मैं सोचती हूं कि क्या इससे वे भेड़िए समाप्त हो जाएंगे, जिनके चलते मैं इस दुर्दशा को पहुंची ? क्या उनके वे घिनौने कारनामे बंद हो जाएंगे, जिसके कारण हमारी जैसी कितनी बहू-बेटियां बर्बाद हो रही हैं ? नहीं, हरगिज नहीं। हम खुद को मारकर अत्याचार का ऐसा आत्मघाती विरोध करते हैं – जो दुश्मन से लड़ पाने में अक्षम होने के कारण अन्ततः हार मान बैठता है, और अत्याचारी को दण्ड न दे पाने की आत्मग्लानि में खुद को दण्डित करने लगता है। इसलिए आत्महत्या जीवन के प्रति मन की अंतिम हार है, और ऐसी हार, जिसमें शत्रु को अपनी खटिया जीत का आनंद महसूस होता है और वह अपनी नीचता रोकने या उस पर पछताने के बजाय, अपनी बदतमीजी को दुगुनी इच्छा के साथ आगे भी जारी रखता है। अतः जरूरत इस बात की है - कि हम अपमान का जवाब उसके घोर अपमान के रूप में देकर अत्याचारी को अंततः यह एहसास दिला दें कि दरअसल वह कितना नीच है। उसे यह पता चल जाय कि वह आदमी नहीं, जावनर है, बल्कि जानवर से भी गया-गुजरा। जानवरों के पास कुछ तो दिमाग होता है, वे प्रायः सीधे भी होते हैं। खैर, मेरा यह साफ-साफ मानना है कि कुकर्मी को उसके किए की सजा मिलनी ही चाहिए, ताकि वह अपनी नीचता की पीड़ा का एहसास करके दूसरों को फिर पीड़ित न करने का सबक सीख जाय। इसलिए मैंने आत्महत्या का विचार फिलहाल छोड़ दिया है।
अब आप या कोई भी मेरे इस निर्णय को नहीं बदल सकता और यह सिर्फ निर्णय नहीं, बल्कि मेरी समस्या का समाधान भी है, जो न सिर्फ अपमान से व्याकुल मेरी आत्मा को गहरी शांति देगा, बल्कि उन लड़कियों को भी साहस और शक्ति प्रदान करेगा, जो पुरुषों द्वारा अपने ऊपर किए जा रहे अपराधों को अंतिम नियति मान बैठी हैं, जिन्हें इस सच्चाई का जरा भी भान नहीं कि उनमें अपना स्वतंत्र विकास करने की कितनी अजेय शक्ति छिपी हुई है। इसलिए मैंने अपनी वर्तमान बर्बादी के बाद भविष्य का जो रास्ता चुना है, वह भले ही हमको दुख के अथाह अंधकार में पुनः भटकने के लिए मजबूर कर दे, लेकिन रौशनी का एहसास करेंगी, और उसके द्वारा इस समाज के ऐसे आदमियों की भद्दी वास्तविकताओं को देख सकेंगी, जो भीतर से भ्रष्ट और बाहर से निहायत सभ्य नजर आते हैं। वे यह जान सकेंगी कि इस लड़की ने कैसे और क्यों हिंसा का रास्ता अपनाया, जबकि स्वभाव से वह शांत और नरम व्यवहार की होती हैं। उसे आज क्यों मजबूर किया जा रहा है कि अपने अच्छे-भले स्वभाव को छोड़कर निर्मम व्यवहार और कठोर मानसिकता की हो जाय। खैर, ये सवाल मेरे लिए बहुत सामान्य बन चुके हैं, जो सवाल के बजाय समाधान का रूप धारण कर लिए हैं। हां, इस पर सवाल उठाएं आप सब क्योंकि अभी आपने अपने हृदय में एक नारी की पीड़ा नहीं सही है, न ही महसूस की है। आपका भविष्य हमारी तरह बचपन में ही नहीं मर गया है, खैर हमारी वर्तमान ज़िदगी की तरह आपका जीवन इतना निरर्थक नही बन गया है। चूंकि मैंने इसी पच्चीस साल की उम्र में ही औरत के अपमानित और लांछित जीवन की दुखद से दुखद स्थितियों को जीते-मरते देख लिया है, इसीलिए मैं कहती हूं कि वे सवाल ही मेरे उत्तर हो गए हैं।
मैं आगे क्या करने जा रही हूं और आगे क्या करूंगी, यह अभी किसी को नहीं बताया है, और न बताऊंगी। जब तक मैं अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो जाती, तब तक चैन से नहीं बैठूंगी। मेरी मां, मेरी भावुक, सीधी-सादी और प्यारी मां आज मेरे साथ, अपनी अभागी बेटी के साथ है। कभी वे भी दिन थे, जब मैं मां को सबसे सच्चे दोस्त और सबसे अच्छे दोस्त की तरह मन की एक-एक बात बताती थी, उससे कुछ भी छिपाना मेरे लिए कठिन था। जैसे लगता था कि यह मां तो है ही लेकिन उससे भी अधिक मेरी आदरणीय सहेली, मेरी प्रिय शुभचिंतक और हर सुख-दुख को समझने वाली दोस्त है। आज मुझे लगता है कि बच्चों की उम्र बढ़ने के साथ-साथ मां-बाप का अनुशासन अपने आप ढीला होने लगता है, और उनके भीतर बच्चों को आजादी देने का विश्वास पनपने लगता है । लेकिन आज मैं जिस हालत में हूं, उससे मेरी मां कतई निश्चिंत नहीं और न ही सुखी है। बल्कि अब उसकी चिंता – मुझसे भी गहरी हो उठी है। कभी-कभी उसकी हालत देखकर मैं खुद को विक्षिप्त-सी महसूस करने लगती हूं कि हाय रे बदनसीब संतान ! एक भोली-भाली मां तेरे ही कारण चिंता, बेचैनी और मार्मिक पीड़ा में दिन-रात डूबती-उतराती अपने आपको भूलती जा रही है। वह भूल चुकी है कि सुख-चैन क्या होता है ? वह भूल चुकी है कि भूख-प्यास किसे कहते हैं ? हाय रे ममता ! तू अपनी संतान से पागल कर देने वाला इतना प्रेम क्यों करती है ? ओह, मैं उसी दिन क्यों नहीं मर गई। आज इस तरह घुट-घुटकर मरने के लिए क्यों जिंदा हूं ? ऐसा नहीं कि मैं मां की पीड़ा नहीं समझती, नहीं महसूस करती। करती हूं, खूब करती हूं। मां नहीं हूं तो क्या ? एक औरत तो हूं। मेरे भी भीतर ममता की निर्मल शक्ति है, हां, वह पत्थरों के नीचे दब गयी है। उसे कभी खाद-पानी, उन्मुक्त आकाश और सुखद हवा नसीब नहीं हुई, उसे कभी उज्ज्वल, ऊर्जामय प्रकाश हासिल नहीं हुआ, नहीं तो आज वह भी अपने फूलों और पत्तियों के साथ पूरा विस्तार ले चुकी होती। खैर, आज मेरी इस भावुकता का कोई मतलब नहीं, बल्कि जिस मार्ग पर मैं चल पड़ी हूं, उसके लिए यह भावुकता कांटे का काम करेगी, और मैं अपने लक्ष्य तक पहुंचना तो दूर, बीच रास्ते में ही थक-हारकर बैठ जाऊंगी।
अब मैंने अपने आपको निर्ममतापूर्वक मजबूत बनाना सीख लिया है, क्योंकि जो काम मुझे करना है, उसमें जितनी ही कठोरता सध सके, उतना ही अच्छा है। आज मुझे पता चला था कि कमजोर हृदय से कठिन मार्ग पर चलना कितना कठिन है। इन दिनों मैं लगातार ऐसी रोमांचक और दिल कंपा देने वाली घटनाओं को बड़े ध्यान से पढ़ती हूं, जो अक्सर हमारे समाज में घटित होती रहती हैं। इनको पढ़ते ही मेरे भीतर अपमान की सुलगती आग सहसा धधक उठती है, और यही जी करता है कि इस तरह की वारदात करने वालों को अभी इसी वक्त खत्म कर दूं। जिस बात को जिस घटना को खुद मैंने झेला है, उसको सुनते ही मेरी नस-नस में हिंसा और प्रतिशोध का पागलपन दौड़ने लगता है। मेरे रोम-रोम में जबरदस्त उफान भर उठता है, और क्रोध के भारी आवेश में पूरा शरीर थर-थर-थर-थर कांपने लगता है, सांसों में जैसे तूफान मच गया हो। ऐसा पता नहीं क्यों होता है ? मैं कुछ समझ नहीं पाती। जो मैं निश्चित तौर पर करना चाहती हूं, उसे करने से मन बार-बार रोकता है, लेकिन हृदय के किसी कोने से आवाज भी उठती है कि अपमान सहकर चुप बैठे रहना और उसका कोई भी जवाब न देना अपने प्रति और अपनी ही तरह से दुखी अन्य नारियों के प्रति अन्याय है। कहीं न कहीं, कभी न कभी हमें इन सबके सामने तनकर खड़ा होना ही पड़ेगा। जब तक हम सवाल करना नहीं सीखेंगी, तब तक कहीं से कोई उत्तर हमें नहीं मिलने वाला। यद्यपि इन सबको हमारे हर प्रश्न का उत्तर खूब पता है, लेकिन चूंकि उनके उत्तर में उनकी बदनामी छिपी हुई है, उनकी काली असलियत खुल जाएगी, बनावटी सज्जनता का नकाब हट जाएगा और सबसे कष्टकर उनके लिए यह कि हम उनके बराबर खड़ी हो जाएंगी इसीलिए वे उत्तर को चुपचाप निगल जाते हैं। अब आप ही बताइए, कभी ऐसा हुआ है कि आज हो जाएगा ? उन्हें पूरे संदेह के साथ डर है कि शताब्दियों से औरत की आत्मा पर जमी हुई उनके तानाशाही शासन की कुर्सी उठ जाएगी। इसीलिए वे उत्तर देने के डर से हमारे सवालों को बराबर टालते रहते हं, जान-बूझकर अनसुना करते रहते हैं, और जब बात खुलती नजर आती है, तो हमारे बहाने हमारे जिंदा सवालों की हत्या कर डालते हैं।
आज मेरे बंदी जीवन का मुक्ति-दिवस है। आज की रात मेरी आत्मा का एक पीड़ित उद्देश्य सिद्ध होगा। यह वह रात नहीं जो हर रोज शाम के रूप में आती है, और सुबह के पहले चली जाती है। यह हमारे स्वाभिमान की अमिट उदाहरण और कुछ लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण होने जा रही है। विशेषकर उन लोगों के लिए जो यह मान बैठे हैं कि वे चाहे कुछ भी कर लें, उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। यदि बचा सकें, जो खुद को बचा लें वे लोग, जिन्होंने अपनी विषाक्त भावना के अंधेपन को अपनी जीवन-दृष्टि बना लिया है। उनका यह खेल अब अधिक दिन तक हरगिज नहीं जलने वाला। कम से कम मैं इसे जीते-जी नहीं चलने दूंगी, इसे उखाड़ फेंकूंगी और इसे नेस्तनाबूद करने के लिए अपना सारा जीवन लड़ा दूंगी।
पता नहीं क्यों यह जानते हुए भी कि उसका घर यहां से दूर है, मुझे वह दो कदम से अधिक कुछ नहीं लगता। अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण के जोश से इतनी भरी हुई हूं कि आज बड़ी से बड़ी दूरी मुझे अपने पैरों तले नजर आएगी। जिधर चल दूंगी, वह रास्ता मेरा साथ देने लगेगा। इस वक्त जहां कहीं भी चाहूं पलक झपकते पहुंच सकती हूं। कोई भी दूरी मेरे अडिग संकल्प के सामने बौनी है। आज सुबह से ही मैं इसी शाम की प्रतीक्षा कर रही थी कि कितना जल्दी से जल्दी दिन बीते और मैं अपनी बहुप्रतीक्षित योजना में जुट जाऊं। यह शाम अब अपने चरम पर अंततः रात का रूप धारण करने वाली है। वहां मेरे चलने का समय हो गया है, मुझे अब चल देना चाहिए। थोड़ा-सा भी रुकना अपनी आत्मा के प्रति अक्षम्य अपराध होगा। अब मुझे किसी कीमत पर पुनर्विचार नहीं करना है, क्योंकि पुनर्विचार कभी-कभी आदमी को लक्ष्य के प्रति कमजोर बना देता है। और फिर मैं पुनर्विचार करूं ही क्यों ? आज जिसने मुझे यह रास्ता अख्तियार करने पर मजबूर किया, क्या उसने एक बार भी थमकर सोचा कि वह क्यों करने जा रहा है ? उसके मन में क्या एक बार भी डर पैदा हुआ कि दुनिया और समाज के लोग उसे क्या कहेंगे ? काश, उसने खुद को स्वयं से सवाल करने लायक बचाए रखा होता। वह कमीना बेफिक्र होकर आराम की जिंदगी जी रहा है। अरे, उसे तो अपने जीने पर धिक्कारना चाहिए, अपनी नजरें किसी के भी सामने उठाने पर शर्म करनी चाहिए। लेकिन ऐसी आदमियत उसमें कब से आने लगी ? वह तो भरे समाज के बीच सज्जनता की नकाब ओढ़े वर्षों से इज्जतदार लोगों को धोखा दे रहा है। वह तो ऐसा गुप्त शातिर है कि बहुत मंजे हुए लोग तक धोखा खा जाएं, सीधे-साधे लोगों की बात ही क्या ?मैं अब घर से निकल पड़ी हूं। शाम अभी कुछ देर पहले बीती है। चारों ओर अंधकार ही अंधकार घिरा हुआ है। यह अंधकार मुझे बहुत अच्छा लग रहा है, इससे इतनी राहत महसूस करती हूं कि क्या बताऊं। जैसे शिकारी के तीर से बुरी तरह घायल कोई पक्षी किसी तरह उड़ते-उड़ते कांटों की घनी झाड़ियों में जा छिपे। जब मैं घर से निकली तो मां कहीं गयी हुई थी। मैं तो बिल्कुल इसी मौके की तलाश में थी कि मां कहीं और चली जाय, और मैं यहां से चल दूं, क्योंकि यह मैं बिल्कुल नहीं चाहती कि मां को मेरी इस योजना के बारे में जरा-सी भी भनक लगे। यह तय मानिए कि मेरा इरादा जानने के बाद वह किसी भी की मत पर मुझे घर बाहर नहीं निकलने देती। इसलिए नहीं कि उसे उससे हमदर्दी है। वह भी घृणा करती है, थूकती है – उसके नाम पर। लेकिन उसे भय है कि कहीं वह अपनी बेटी से हाथ न धो बैठे, कहीं उसके जीवन की निष्फल टहनी से लगे हुए घोंसले को वक्त का कोई झोंका अलग न कर दे। वह जमाने से इतनी डरी हुई है कि मुझे दुधमुँहे बच्चे की तरह हमेशा चिपकाए रहना चाहती है। ओह ! वह कारण तू ही है मां। तू ही मेरे जीने का कारण है। तू ही मेरे जीवन की मूल-शक्ति है। आज तू न होती तो मैं उसी दिन अपना प्राण दे देती , जिस दिन मैं अपने ससुराल में सारे गांव के सामने बुरी तरह से अपमानित करके बाहर निकाली गयी।
उसका घर पता नहीं अभी कितनी दूर है ? वैसे मैं जितनी तेजी से जा रही हूं, इस रात में क्या कोई चल पाएगा। यह रात ज्यों-ज्यों गहराती जा रही है, मेरी चाल और तेज होती जा रही है। जैसे यह अंधकार मेरे साहस में उत्प्रेरक का काम कर रहा हो और चलने की शक्ति को निरंतर तेज करता जा रहा हो। वैसे मैं इधर कई वर्षों के बाद आयी हूं। बहुत बचपन में कभी-कभी मां के साथ ाकर अपनी हमजोली में खेला करती थी, तब से मुझे याद नहीं पड़ता कि मैं फिर कभी जी भरकर हंस-खेल पायी हूं। आज जब पूरे बीस साल बाद यहां आयी हूं, न जाने क्यों अपना वह बचपन बहुत याद आ रहा है। वही पार्क, वही बूढ़ी दादी जैसी चुपचाप निहारती हुई गलियां, वही अमरूद का पेड़, अब तो बूढ़ा हो चला है, उस समय बिल्कुल हमरी उम्र का था, अपने साथी की तरह। इन सबको देखकर लग रहा है – जैसे मुझे यहां आया हुआ महसूस कर इन सबमें रौनक लौट आयी हो। अब आप ही देखिए न, ये सब मुझसे शिकायत कर रहे हैं कि तुम इतने दिनों तक कहां रही बेटी ? तुम्हें क्या पता कि उस दिन से तुम्हारे अचानक चले जाने के बाद मेरे ऊपर कई दिनों तक बच्चे खेलने तक नहीं आए। हम सबको तो वैसे भी न जाने क्यों चुपचाप रहकर तन्हाई में जीवन काट देने का अभिशाप मिला हुआ है। उस दिन के बाद से यदि भूलकर भी कोई बच्चा हमारी गोद में हमारे पास आ जाता, तो किसी अदृश्य खतरे के आतंक से सहमा-सहमा दबे पांव भाग निकलता था। बेटी गोदावरी, तुम्हें देखकर देखकर आज मेरा हृदय नन्हें बच्चों के हंसते-खिलखिलाते, उछलते-मचलते बचपन को एक बार फिर देखने को बेचैन हो उठा है। कई सालों से मैं बच्चों की किलकारियों की भूखी हूं, बेचैन हूं कि कोई छोटा-मोटा नन्हा-सा बच्चा आए, जिसके भोले-भाले तन का स्पर्श पाकर अपने जीवन को धन्य कर सकूं। बेटी, मेरी बच्ची ! अब अपनी बेजान, गूंगी और सबके कदमों में दिन-रात पड़ी हुई मां की गोद को छोड़कर फिर कभी मत जाना, मत जाना।
लेकिन मैं इन सबको कैसे समझाऊं, कैसे क्या कहूं कि मैं यहां रुकने या बचपन में लौटने के लिए नहीं आयी हूं। मुझे तो अपने माध्यम से उन लोगों के हारे हुए दिल को राहत पहचान है, जो कदम-कदम पर भ्रष्टता की अभेद्य दीवारों से घिरे हुए हैं। जिनकी स्थायी नियति बन चुकी है कि हर गलत के सामने चुपचाप घुटने टेक दें। वैसे मैं उसके घर के बिल्कुल नजदीक तो आ गयी हूं, लेकिन मुझे बड़ी सावधानी से कदम उठाना है। यह तो मुझे पता है कि राक्षसों के घर में मनुष्यों का वास नहीं हो सकता, फिर भी संभव है बुढ़िया और उसके दो बच्चे रहते ही हों। यदि वे होंगे, तो मुझे अपने काम को अंजाम देने में थोड़ी बाधा आ सकती है, क्योंकि यदि वे सब सामने आ गये तो मैं कह नहीं सकती, कि वहां भी इतना साहस जुटा पाऊंगी। इनमें से यदि कोई भी उसकी तरफ से क्षमा मांगने लगा, तब मैं क्या करूंगी ? लेकिन क्या मैं उसे छोड़ दूंगी, क्या उसे माफ कर दूंगी ? नहीं-नहीं, यह तो मेरी बहुत बड़ी कायरता होगी। वैसे, यह हो सकता है मेरी इस कायरता को उदात्त मानवता का नाम दिया जाए, लेकिन ऐसी निष्क्रिय औरक अशक्त मानवता किस काम की जिसमें अपराधी छुट्टा घूमता रहे और भुक्त-भोगी अपमान-बोध से ग्रसित होकर जीवन भर विक्षिप्त बनकर जीये। मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि इस घटना के बाद मेरा क्या होगा ? लेकिन क्या उसका मुझे भय है ? हं-हं-हं-हं! यह क्या चीज है ? चकोई मुझे बताए कि अब भय क्यों नहीं होता ? अरे, अब जो होगा, सो होगा। हमें जो करना है – करूंगी, क्योंकि बहुत शिक्षित न होने के बावजूद अपने लम्बे अनुभव और खुद पर बीते हुए भयावह दिनों के चलते इतना तो अच्छी तरह से जानने लगी हूं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा! आपबीती दुर्गति से अब मैंने जान लिया है कि न्याय सबसे पहले प्रताड़ित के भूखे हृदय में जन्म लेता है। कानून की बड़ी-बड़ी पुस्तकें तो आत्मा की कसौटी पर खरे उतरे हुए नियमों की तरह दस्तावेज मात्र हैं। वैसे अभी फिलहाल कानून की व्याख्या में उलझने का मेरा समय नहीं है। अभी तो जो करने आयी हूं, उसे पूरा करूं, उसके बाद ही और कुछ।
इतने वर्षों बाद समय के दुष्चक्र ने मुझे लाकर पुनः ऐसे दरवाजे पर खड़ा कर दिया है, जिसके भीतर युद्ध है, और बाहर चुनौती। जिसके इस पार खड़ी रहती हूं-तो जीने का दुख होता है, उस पार जाती हूं-तो मरने का आत्मसंतोष। जिसके भीतर अपमान ही अपमान लिखा हुआ है और बाहर प्रतिशोध के लिए ललकार। ठीक दरवाजे की आड़ में हौले से खड़ी होकर मैं चुपचाप आंकने लगी कि घर में कौन-कौन हैं ? काफी देर तक कुछ अंदाजा नहीं मिला। इसी बीच खड़ी-खड़ी मैं न जाने क्या-क्या सोचती रही। एक साथ कई तरह के विचार हृदय में बुलबुलों की तरह उठते और थोड़ी ही देर में बुझ जाते। खास चिंता इस बात की थी कि आगे क्या किया जाय ? मैं अपनी तरफ से पूरी तरह चौकस और तत्पर थी, और बिल्कुल दम साधकर वर्षों से प्रतीक्षित उस क्षण के इंतजार में थी, कि वह कब आ जाय और मैं अपना लक्ष्य पूरा करूं। लगभग आधे घण्टे बाद मुझे छत पर बातचीत की हल्की-फुल्की आवाज सुनाई पड़ी। मेरी गहरी राहतपूर्ण खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इतने में भीतर से खांसने की आवाज आयी। इस प्राणघातक ध्वनि को पहचानने मैंने जरा भी गलती नहीं की। अब मैं अधिकतम सावधान की मुद्रा में खड़ी हो गयी, जैसे शरीर ने विद्युत का रूप धारण कर लिया हो। वह इधर ही आ रहा है मैं पदचाप को एकदम ध्यान लगाकर सुनने लगी। इस समय मेरा हृदय, मेरा दिमाग अपनी-अपनी जगह छोड़कर कानों में बैठ गए थे, और आत्मा ने पूर्णतः श्रवण-चेतना का रूप धारण कर लिया था। एक पैर दिखा, ये, ये, ये... दूसरा पैर भई दिखा। अब पूरा शरीर मेरे सामने है। इस वक्त सर्प के फन और उसके धड़ में मुझे कोई अंतर नहीं दिख रहा था; फिर देरी किस बात की ? बादलों में कड़कती बिजली की रफ्तार से मेरा हाथ उठा और उसमें कसकर जकड़ा हुआ शस्त्र उसकी गर्दन में विधिवत समा गया।
मध्य “शरीर जैसे क्षण-भर में रक्तशून्य होकर सफेद हो गया हो। बुद्धि कुछ काम नहीं कर पा रही थी, कि आखिर हुआ क्या ?”
आज एक साल बीत चुका है। मैं यहां जेल में बंद हूं। लेकिन इस एक साल के भीतर मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं कैदी हूं। जानते हैं क्यों ? यह इसलिए कि मेरा वास्तविक कैदी जीवन आज से बहुत पहले शुरू हो गया था, जो कि न जाने कितने सालों से बरकरार है – और वो आज भी है। सच पूछिए तो मेरा सासा जीवन बन्दीयुग के रूप में बीता है। मैं अपना रोना रोकर आपको दुखी नहीं करना चाहती, लेकिन इतना मुझे पता है कि यदि आप लोग मेरी कहानी नहीं जानेंगे, तो दमन से मर्माहत एक निर्दोष औरत की दुर्दशा से अपरिचित रह जाएंगे; यदि आपने उसकी विक्षिप्त मानसिक स्थिति को जान भी लिया तो कोई आवश्यक नहीं कि आप उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए उठ ही खड़े हों। इसीलिए मैं कहती हूं कि दूसरों की असहाय दशा को देखकर बेहिसाब बेचैनी से तड़प उठना बहुत जरूरी है। मेरे घायल हृदय का दुखी राग इसीलिए छिड़ा है।
आज से करीब छः साल पूर्व मेरी शादी गांव के एक नौकरीशुदा आदमी से सम्पन्न हुई। वे स्टेट बैंक में क्लर्क थे, काफी शिक्षित थे, समझदार भी थे और भले आदमी कर तरह आचरण-व्यवहार भी करते थे। शादी के समय मेरे भीतर कई तरह की शंकाएं भविष्य के प्रति काफी चिंता पैदा करती थीं। ससुराल कैसा होगा ? सास-ससुर किस स्वभाव के होंगे, वे हमें मानेंगे कि नहीं, न जाने कैसा बर्ताव करें ? पास-पड़ोस के लोग पता नहीं किस पसंद के निकलें ? पहले-पहल ससुराल जाने वाली लड़की तो उस मूक गाय की तरह होती है, जिसको बचपन से पाल-पोसकर बड़ा करने वाले अपने ही लोग सयानी हो जाने पर किसी अनजाने ग्राहक के हाथ बेच देते हैं। उस गाय को यह क्या पता कि वहां अपने अनुसार मन-भर खुलकर चरने की छूट नहीं मिलेगी। घास के फैले हुए खेतों, ऊंचे-नीचे टीलों और चारों ओर विस्तृत मैदानों में अपनी टोली के साथ अलमस्त प्रसन्नता में विचरने के दिन शायद ही लौटें। खुले मौसम की घास जो उन्मुक्त हृदय से चरी जाती है, गाय के शरीर को बहुत जल्द लगती है, लेकिन खूंटे बांधकर उसे खिलाई गई जा रही सानी, चाहे उसमें रोज हलुवा-पूड़ी क्यों न डाला जाय, उसके शरीर को नहीं लगती, जैसे वह अन्न न हो जहर हो। क्या यह सच नहीं कि बंधन में, विकसित हो रहे हृदय को क्षीण कर देने की शक्ति होती है ? वैसे मैं तो केवल उन चिंताओं की बात कर रही हूं – जो प्रायः हर ब्याही जा रही लड़की के साथ होती हैं।
जिसके पास हम बराबर रह रहे हैं, जिसके साथ जीवन के बहुत सारे पहलुओं पर खुलकर बातचीत हो जाती है या जिसके व्यवहार और सोच के माध्यम से चरित्र काफी कुछ समझ लेते हैं – उसके प्रति भविष्य को लेकर एक निश्चिंतता हो जाती है कि अच्छा चलो यह ऐसे हैं और कम से कम इससे नीचे नहीं जाएंगे या उस सीमा को कभी पार नहीं करेंगे जो उनके मूल स्वभाव के विपरीत हो। यह मानती हूं कि ससुराल में पति ही संतोष और खुशी का आधार होता है, और उसी के सहारे ही कोई दुल्हन घर-परिवार, पास-पड़ोस, हितू-दोस्त या अन्य लोगों के साथ खुशियां बांटती है या उमंगपूर्वक इन सबके प्रति अपनी सामाजिक जिम्मेदारी कोपूरा करती है। अगर उसका पति पास में नहीं है, कहीं और है या रोजी-रोजगार के लिए बाहर निकल गया है तो वह उसको बहुत याद करने या उसकी मीठी-मीठी चिंता करने के बावजूद उतनी परेशान नहीं होती, जितनी कि मर्द के बेकार घूमने या लम्पट निकल जाने पर। सौहर अगर निकम्मा निकल गया तो समझिए कि औरत की जीते-जी मौत है, तब उसका सारा जीवन कठिनाइयों एवं संघर्ष के दुर्गम पहाड़ों से घिररा हुआ समझिए। ऐसा मर्द अगर पास भी है तो बहुत खराब लगता है, क्योंकि दूर रहकर भी पत्नी को इज्जत और सम्मान के साथ जिलाना, घर में बैठकर बेइज्जती कराने से लाख गुना बेहतर है। इसलिए मेरे विचार के मुताबिक ऐसी शायद ही कोई औरत हो, जो यह चाहे कि उसका पति हमेशा उसके पीछे-पीछे घूमे, चाहे कोई काम-धन्धा करे या नहीं। अगर ऐसी कोई होगी, तो वह पतुरिया ही होगी। चूंकि मेरे साथ ऐसी निर्लज्ज बात नहीं थी, इसीलिए मैं उनके तरफ से पूरी तरह निश्चिंत थी। यदि पति सर्विस वाला होने के साथ-साथ अच्छे आचरण का, सुशील और सुंदर निकल गया तो फिर कहना ही क्या ? समझिए जनम-जनम की मुराद पूरी हो गई, जीवन तर गया।
मैं शादी के पहले उनसे बस एक ही बार मिली थी, वो भी मिली क्या थी, बस देखी थी। जहां मिलते समय लड़के या लड़की के मां-बाप, रिश्तेदार या भाई-बहन खड़े हों, वहां न तो कोई कायदे से मिल सकता है, न ही बात कर सकता है। इच्छा तो बहुत जोर की हुई कि कहीं एकांत में बैठकर कायदे से बातचीत कर लें, लेकिन ऐसा चाहने के बावजूद मारे शर्म और लाज के सीधे देखने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, खुलकर बात कर लेना तो बहुत दूर की बात थी। जहां पहले से यह तय हो जाय कि इनके साथ जीवन-भर के लिए बंधन में बंध जाना है, वहां मिलते समय न जाने कैसी आत्मीयता की ऐसी आकुल भावनाएं उठने लगती हैं – कि शरीर उसकी प्रबलता में शिथिल हो जाता है। जुबान निशक्त होकर बुझी-बुझी सी मंद पड़ने लगती है। हृदय में जैसे मीठे कुतूहल ने घर कर लिया हो, वह सहज न हो पा रहा हो। उस पर जैसी किसी के अपरिचित मोह का पर्दा पड़ गया हो। आज जब इन सब बातों को सोचती हूं तो दिल में बड़ी हूक सी उठती है। खुशहाली के बीते हुए दिन आदमी के बुरे समय में सुकून और संतोष तो देते हैं, लेकिन उनकी याद क्षणिक ही होती है। और चूंकि उनको फिर लौटा पाना मुश्किल होता है, इसीलिए वे भविष्य में एक भूख बनकर मन को काफी तकलीफ देते हैं। ऐसे दिन कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे फिर सच नहीं सकते, इसलिए उन्हें याद करने के बावजूद उनका मोह छोड़ देना ही बेहतर है, क्योंकि बीता हुआ कल मर चुका है, वह कभी जिंदा नहीं हो सकता। लीजिए, मैं अपनी बात करते-करते कहां से कहां पहुंच गयी। वैसे मेरे मां-बाप गरीब न थे। रोजी-रोजगार की चिंता से मुक्त, सुकून की जिंदगी जी रहे थे। मेरी मां को न तो आप शिक्षित कहें, न अशिक्षित। वह उस दर्जे तक पास, जिसे गंवई मुहावरे में अक्षर जानने का शौक मिटाना कहते हैं, यानी कक्षा 5 पास। लेकिन मेरे डैडी दर्शनशास्त्र में एम.ए. की डिग्री हासिल किए थे; वह भी पूरब का आक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। डैडी का बड़ा कि उनकी इकलौती बेटी इसी विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल करके अपने पापा का नाम रोशन करे, लेकिन भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था। काश उनकी यह इच्छा पूरी हो पायी होती।
जिस समय मेरी शादी पक्की हुयी, उस समय मैं एम.ए. के अंतिम साल में थी। सुनकर थोड़ी चिंतित हुई कि परीक्षा कैसे दूंगी, लेकिन मन में एक उम्मीद जागी कि चलिए कोई बात नहीं, पति महोदय किस दिन काम आएंगे ? उन्हें मनाकर परीक्षा दिलवाने लेते आऊंगी। मानेंगे कैसे नहीं ? कई उपाय हैं – सीधे-सीधे नहीं माने तो ‘उस तरह’ से। और कहीं श्रीमान नाजुक हृदय वाले निकल गये, तब तो अपना ही राज समझिए। बिना किसी अतिरिक्त कलाकारी के सारी सत्ता अपने हाथ में। ये सब बातें मैं उनदिनों सोचती थी, जब शादी होने वाली थी। शादी के बाद तो परिस्थितियां ऐसी बदलीं कि इन सारी बातों को भूल गयी और घर संभालने की जिम्मेदारी ने पिछले सारे शौक और सपने भुला दिए। ससुराल आने के बाद किताबों को पलटकर फिर कभी नहीं देख पायी। वैसे पुस्तकों से मुझे दीवाने भक्तों जैसा लगाव है। नित नयी-नयी किताबें मेरे मन में कीमती सौंदर्य भरने वाली नई-नई खिड़कियां तैयार करती हैं। उन्हें मैं जीवन के सम्भावित विकास के गहरे, निर्मल स्रोत मानती हूं। उस समय तो यही समझिए कि बस पास होने के लिए पढ़ती थी। पढ़ती क्या थी, रटती थी। लेकिन अब, जबकि उनसे बहुत दूर हो चुकी हूं- लगता है- पुस्तकें ममता और त्याग से भरी हुई वे मांएं हैं, जो अपने बच्चों जैसा डांटती हैं, मारती हैं, चेतावनी देती हैं, सपनों-भरी नींद सुलाती हैं और ठीक सुबह जगा भी देती हैं। वे हमको निहायत ममता के साथ समझा-बुझाकर, अबोध हाथों को थामे मिट्टी वाली राह दिखाती हैं। पर अब हो भी क्या सकता है ? घर-परिवार को देखूं या किताब संभालूं। और जहां आदमी दिन-रात अपनी हालत सुधारने में परेशान हो, उसे ज्ञान सीखने की बात कहां सूझती है ? ससुराल वाले तो प्रायः बहुओं की शिक्षा के विरोधी ही होते हैं। बुढ़िया सासुजी यदि देख लें, कि बहू किताब खोलकर बैठ गयी है, उनका भीतर ही भीतर कुढ़ना शुरू हो जाता है। त्योंरियां बदलने लगती हैं। शुरुआत में तो कुछ बोलेंगी नहीं, लेकिन जब यह जान जाएंगी कि पोथी रोज-रोज खुल रही है, तो एक दिन सीधे बरस पड़ेंगी और तैश में आकर हाथ झमकाते हुए बोलेंगी – “अच्छा, बंद करो अपना कथा-पुराण। मैके में तो किताब का मुंह नहीं देखा और यहां कलट्टर साहब बनेंगी। आजकल की बहुएं तो जैसे त्रिया चरित्तर पेट में से ही सीखकर आती हैं। अरे कलजुग है कलजुग। इनको समझ पाना इतना आसान नहीं।जब काम करने का मन नहीं करेगा, तब पोथी-पत्तरा खोलकर बैठ जाएंगी। बड़का पढ़ाकू बनने चली हैं।”
इस तरह के मौके सिर्फ एक-दो बार नहीं, कई बार आए, जब मुझे अपनी बुढ़िया का कोप-भाजन बनना पड़ा, लेकिन मैं सब सहती थी, चुपचाप सुन लेती थी, सुनकर पचा जाती थी। अंदर-अंदर दुख तो बहुत होता था कि देखो बहू तो इनकी हूं- बेटी के समान हूं। पढ़-लिख ली तो क्या बुरा हो जाएगा। इनको तो खुश होना चाहिए कि मेरे घर में इतनी पढ़ी-लिखी बहू मौजूद है। पढ़कर और समझदार ही बनेगी, लेकिन अब इस उमर में इन्हें समझाए भी तो कौन ? किसे मुफ्त में आफत मोल लेनी है। सही बात कोई कह दे तो तुरंत लड़ बैठें, बाल की खाल निकालने लगें कि अच्छा ये बता कि तूने यह बत कही क्यों ? इसीलिए तो बाबा, मैं उनसे चार कदम दूर ही रहती थी। बोलती थी तो बस काम-भर के लिए, कहीं कोई बात लगी, कि बवाल मचा। वे जब अपने असली रूप में आती थीं, तो क्या मजाल की सामने कोई टिक जाय। एक सांस में सात पुश्त तारती थीं। बेचारे लोग इज्जत बचाकर धीरे से खिसक लेते थे। कौन कांटे से उलझे ? ससुरजी में वैसे इस तरह मीन-मेख निकालने वाली आदत नहीं थी। याहं आने के बाद पहली बार मैंने जाना कि पिता के अलावा भी उन्हीं की तरह प्यार करने वाला और कोई होता है। आप मेरी हर बात का खयाल रखते थे, बुलाकर पूछते रहते थे कि बेटी कोई दिक्कत तो नहीं ? निःसंकोच मुझसे बोल देना। किसी बात की चिंता मत करना। हम तो हैं न। तुम्हारे मा-बाप न सही, ससुर तो हैं। और देखो बेटी, ससुराल में ससुर ही बहू का पिता होता है। अरे, जैसी मेरा ममता, वैसी तुम। उसके अपने ससुराल चले जाने से घर में पड़ा सूनापन लगता था। बिना लक्ष्मी का घर भूतों का डेरा लगता है। अब तुम आ गयी हो, तो लगता है, घर भर उठा है। मैं अब निश्चिंत हो गया हूं। बेटी ! तुम्हें जब देखता हूं तो अपनी ममता याद आती है। पता नहीं वहां कैसी होगी ? गोदावरी बेटी, तुम बिल्कुल चिंता मत करना। हम हैं न। कभी-कभी वे मुझे गोदावरी के बजाय गोदरी कहकर बुलाते थे। इस बुलाने में लगता था जैसे मेरे बाबूजी अपनी बच्ची को गोद लेने के लिए बुला रहे हैं। वे मेरे बाबूजी ही थी। अपने खून का न होकर भी तीसरा कोई अपनों जैसी आत्मीयता दे सकता है, इसे मैंने अपने ससुरजी से जाना।
रेलवे की नौकरी से रिटायर होने के बाद अक्सर घर पर ही रहते थे। इधर-उधर जाने या ऐसे ही मन बहलाने के लिए भी वे बाहर कम ही निकलते थे। घर के पिछवाड़े करीब दस मण्डी का खेत था, उसी में आलू, गोभी, लौकी, और ? और हां, सरपुतिया, कोहड़ा, सेम जैसी मौसमी सब्जियों का बड़ा ही सुंदर बाड़ा तैयार कर दिया थाथ एकदम दीवार की तरह चारों तरफ टाटी से घेरकर; क्योंकि गांव में छु्ट्टा घूमने वाले सांड़ों का आतंक मचा रहता कि कहीं मौका पाते ही बाड़े में घुसकर सारी मेहनत पर पानी न फेर दें। जरा नजर हटी, कि उधर सारी कमाई चौपट। जैसे एकजुट होकर कहीं ताक लगाए बैठे हों, कि रखवाला उठे, तनिक खिसके यहां से, और हम सब चलकर खेत का निबटारा करें। लेकिन ससुरजी अपने परिवार की तरह खेत को पालते थे। सब्जियों की बड़ी जतन से देखभाल करते थे। एक-एक पौधे को मन से निराना, उसमें खाद-पानी डालना, जड़ में कीटनाशक दवाइयां छिड़कना, क्या कुछ नहीं करते थे ? अरे तो, इसीलिए पौधे भी हर मौसम में जान छोड़कर फलते थे, बाड़े से इफरात की सब्जी निकलती थी। घर में चाहे कोई सीजन हो, सब्जी भरी रहती थी, बल्कि अड़ोस-पड़ोस के लोग भी इस सम्पन्नता का लाभ उठाते थे। लेकिन मैं ऐसा सभी करती थी, जब ससुरजी घर पर नहीं होते थे, क्योंकि वे पड़ोस के लोगों को भी देना पसन्द नहीं करते थे। कहते थे – “सबके सब ससुरे निकम्मे हैं। मेहनत करते हुए नानी मरती है। काम से जी चुराएंगे। बैठे-बैठाए मिल जाता है तो रोज दौड़ पड़ेंगे। बिना हर्र फिटकरी के कुछ भी मिल जाय बस। वही बेहयाई वाली निर्लज्ज आदत पकड़ लिए हैं। अब किसी को इधर झांकने तो देंगे नहीं और आने की बात करते हैं तो आएं इधऱ आ जायं। ले लें लौकी, रखी तो है, उठा ले जायं। अरे, सड़ी तो पाएंगे नहीं और सही की कौन चलाए ? खरीदकर खा लें, कौन किसी से दुबले हैं। पीठ पीछे घूम-घूमकर मजाक उड़ाएंगे और काम पड़ने पर काका भी कहेंगे, हूंह।”
उनके इसी क्रोध के कारण कई बार मैं भी पीछे खिड़की से ही सब्जियां भेजवा देती थी। किसी पड़ोसी के घर का कोई लड़का यदि खेलते-कूदते इधर आ निकला तो उसे चुपके से बुलाकर खिड़की पर ही थमा देती थी। वह शर्ट के भीतर छुपाकर हड़बड़ी में दबे पांव घर की ओर भाग निकलता था। वैसे किसी न किसी तरह बाबूजी को इस बात की कानों-कान खबर लग जाती थई कि इधर-उधर कुछ पहुंचाया जा रहा है, पर इतना सब जानने के बावजूद वे न तो मना करते थे, न ही कभी कुछ कहते थे, कभी नहीं। उनके चेहरे पर मैं शिकन या क्रोध की झलक तक नहीं पाती थी। इस तरह ससुराल के दिन अपने घर की तरह बीतने लगे। खेती-बारी भी ठीक ही थी। कुछ तो अपने ही कराई जाती थी और कुछ को अधिया-बटाई पर दे दिया गया था। छोटे से परिवार में कितना अन्न चाहिए। अपनी उपज और अधिया से मिला हुआ अनाज पूरे साल-भर के लिए पर्याप्त होता था। कभी-कभी तो बच भी जाता था, और उसे नरम-गरम दाम पर बेच देना पड़ता था। वैसे बाबूजी को पेंशन मिलती थी। थी तो कम ही, लेकिन जो भी थी, घर की खुशहाली का आधार थी। पैसा तो मेरे वे भी कमाते थे, और ठीक-ठाक कमाते थे, लेकिन महीने के अंत तक बड़ी मुश्किल से कुछ बच पाता था। पहले तो नहीं, लेकिन बाद में जब लगा कि इनकी यह परमार्थ सेवा सी मा से बाहर हो रही है तो हमने मीठी शिकायत के साथ मौन नाराजगी जाहिर की। लेकिन इससे उन पर भला क्या फर्क पड़ता ? उनकी आदत नशा बनकर उन्हें लगातार बर्बादी की ओर खींचती रही और वे भी मोहांध आशिक की भांति आंख मूंदकर उसके पीछे-पीछे भागते रहे, और पैसा दिन-रात दोस्तों में लुटाते रहे। मैं कह नहीं सकती कि वे बाहर क्या करते थे ? इतना पैसा कहां खर्च करते थे ? वैसे उनको मैंन न तो कभी शराब के नशे में देखा और न ही सिगरेट-बीड़ी पीते पाया, फिर ये करते क्या थे ? स्वार्थी दोस्त कितना पूछते थे, इसके बारे में विश्वासपूर्वक कुछ कह पाना बड़ा मुश्किल है। हां लेकिन, एक दिन अनायास ही उनके कपड़ों की अलमारी में एकदम नीचे रखी हुई कुछ ऐसी चीजें देखीं, जिनके बारे में कुछ कहते हुए मुझे बहुत शर्म आती है।
ससुरा में करीब दो साल इसी तरह की छोटी-छोटी खुशियों, चिंताओं और सपनों को सजाने में बीत गये। किसी के मन में किसी के प्रति जन्मे राग-द्वेष के उतार-चढ़ाव तो जीवन के स्वाभाविक नियम की तरह है- जो बारी-बारी से आएंगे ही। इसीलिए मैं इन सबको झेलने के बावजूद बहुत दुखी नहीं थी। और सच कहूं तो मैं वहां के अनुसार धीरे-धीरे ढल भी गयी थी, बल्कि यों कहें कि परिस्थितियों ने मुझे अपने सांचे में ढाल लिया था। जब मुझे सारा जीवन वहीं का बनकर रहना था, रोज-रोज झंझट से क्या फायदा ? क्योंकि अपनी इच्छानुसार जीवन चला पाना उस पार जाने को तैयार नदी की उस नाव की तरह है जो किनारे से छूटते समय शांत जल में कुछ दूर तक तो ठीक चलती है, लेकिन बीच धार में लहरों का झोंका नाव को भटकाकर कहां का कहां पहुंचा देता है। ठीक किनारे पर तो वही नाव लग पाती, जिसका नाविक धाराओं के विपरीत नाव खेने की कला में पारंगत हो और लहरों के प्रचण्ड जोश पर विजय हासिल कर उनकी पीठ को सीधे चीरते हुए आगे बढ़ने का हौसला रखता हो। मेरा जीवन भटकी हुई इसी नाव की तरह है।
अब आगे सुनिए। एक दिन की बात है, मैं दोपहर के समय गांव के ही एक पट्टीदार के घर गयी हुई थी। पूरे दिन में यही एक समय बचता है, जब आप घर के काम-धंधों से छुट्टी पाकर किसी के पास बैठकर दो ठो बात कर सकते हैं। कुछ दिन पहले उस घर में एक शादी हुई थी, जो पद में मेरे देवरजी लगते थे। वे अक्सर मौका पाते ही हमसे मिलने चले आते थे। बड़े खुले स्वभाव के थे। बात-बात पर मजाक कर बैठते थे, जैसे कहीं से इसकी ट्रेनिंग लेकर आए हों। गप्प हांकने में भी पूरे उस्ताद थे। उस दिन मैं इन्हीं की दुल्हन देखने गयी थी। मन में बड़ी चाहत थी, कि अगर स्वभाव एक-दूसरे से बैठ गया तो सखी बना लूंगी। वहां दुल्हन देखी, इक्यावन रुपया भेंट दिया और कान में धीरे से अपने मन की बात कहकर करीब घण्टे-भर के भीतर ही वहां से चल दी। अब मैं आपको क्या बताऊं ? बड़ी ही सुंदर दुल्हन थी। धीरे से घूंघट उठाकर मुखड़ा देखा तो एकदम ठगी की ठगी रह गई और अपने आपको भूली हुई-सी उसे एकटक देखती रही। वैसे में भी अपने आपको कुछ मानती थी, लेकिन वाह रे बनाने वाले ! कैसा सांचे में ढला हुआ चेहरा दिया है उसे ? यही सब सोचते-विचारते मैं घर के भीतर अभी दो कदम रखी ही थी की पता चला मायके से कोई मेहमान आए हुए हैं। मेरे भीतर उत्सुकता जगी कि जरा सासूजी से पूछूं कि कौन हैं ? लेकिन कुछ देर तक असमंस की हालत में खड़ी रही कि क्या करूं ? पता नहीं वे जलपान किए कि नहीं ? घर से खाना खकर तो चले नहीं होंगे। मुझे उनके खाने की कुछ व्यवस्था करनी चाहिए. रसोईघर की अलमारी में सुबह की बनी हुई रोटी-सब्जी अभी बची है, लेकिन वह तो ठण्डी हो गयी होगी। फिर से क्यों न बना दें ? खीर, पूड़ी, सब्जी बनाएं तो कैसा रहेगा ? जल्दी बन भी जाएगा। लेकिन पहले अम्माजी से पूछ लें तभी कुछ करें। इतने में बाहर सुनाई पड़ा कि वे जा रहे हैं। मैं तो मारे घबड़ाहट के हकबका गयी। काफी आश्चर्य में थी, कि आज ही आए और आज ही जा रहे हैं। ऐसा क्यों ? आज रुकते, कल चले जाते। एक दिन में कौन-सा काम बिगड़ जाएगा ? मैं भी बुलाकर थोड़ा मिल लेती। अम्मा को एक चिट्ठी लिख देती। पता नहीं क्यों इधर उसकी बहुत याद आती है। आज उसके सिवा याद करने के लिए मेरे पास और है ही कौन ? कितने महीने बीत गए मायके से कोई आया नहीं। कुछ समझ में नहीं आता।
मायके की इन्हीं सब यादों में खोई-खोई-सी पलंग पर बैठी रही और मुझे याद तक नहीं रहा की वे जा रहा हैं, जरा बुलाकर थोड़ी देर बातचीत कर लूं, घर-परिवार का हाल-चाल पूछ लूं। जब वे सबको प्रणाम करते हुए कुछ दूर निकल गये, तब मुझे अचानक होश आया कि हाय रे, मैं तो मिली ही नहीं। भईतर से दौड़ी-दौड़ी ड्योढ़ी के चौखत तक आयी और सहमी आवाज में सासुजी को धीरे से संकेत दिया। वे मेरी तरफ विचित्र ढंग से घूमीं और एक निगाह से अपलक घूरने लगीं। उनकी ऐसी नजर देखकर मैं तो मारे भय के सिहर उठी। शरीर जैसे क्षण-भर में रक्तशून्य-सा सफेद हो गया हो। बुद्धि कुछ काम नहीं कर पा रही थी, कि आखिर क्या हुआ ? अचानक इतनी ही देर में कौन-सी गलती हो गयी ? कहीं खाना न बनाना उनके इस कोप का कारण तो नहीं ? कम से कम मुझे पूछ तो लेना ही चाहिए था न, कि अम्माजी क्या बनाऊं ? इतना पूछ लेने से मेरा क्या घट जाता। भले ही कुछ भला-बुरा करतीं। इतना तो पता चल जाता कि उनकी इच्छा क्या है ? अपने दोष से मुक्त तो हो जाती। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं उनसे न मिलने पर नाराज हो रही हैं कि देखो, इस लड़की में इतनी-सी सभ्यता नहीं कि इतनी दूर से कोई मिलने आया है, दो मिनट बैठकर बात कर लूं। लेकिन इसमें मेरी क्या गलती ? क्या मैं ऐसा नहीं चाहती थी ? लेकिन पहले यह तो मालूम हो कि वे हैं कौन ? पता नहीं कभी मुझसे मिले हैं या नहीं। नई दुल्हन का किसी से मिलना लोगों को वैसे भी पच नहीं पाता है। इसी डर से मैं चाहकर भी नहीं पूछ पायी। पता नहीं सासुजी को कैसा लगे? अब जरा आप ही देखिए न ज्यादा विनम्र बनने की चिंता सबको संतुष्ट रखने की आदत डालकर हमेशा कमजोर बने रहने की स्थिति पैदा कर देती है। वे बड़े ही तैश में मेरे बेडरूम के भीतर गयीं और दरवाजे पर अजीब सवाल की मुद्रा में खड़ी होकर मुझे बुलाने लगीं। उनके इन तेवर मुझे बहुत आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि यही स्वभाव ही उनका असली परिचय था, लेकिन आज उनकी आंखें कुछ इस भाव से घूर रही थीं, जैसा पहले मैं कभी नहीं देखी थी। तुरंत समझ गयी कि जरूर कोई अनहोनी हो गयी है। कोई बात है अवश्य जो यहां के वातावरण में बवण्डर उठने के पहले चुपचाप उमड़-घुमड़ रही है, क्योंकि मेहमान के जाने के बाद इनके चेहरे पर अचानक सन्नाटा छा जाना और क्या संकेत करता है ? हर तरह की चुप्पी का एक ही अर्थ का संकेत नहीं देती, सबमें बहुत बड़ा फर्क होता है। प्रसंग के अनुसार सबका अर्थ बदलता रहता है। कई बार तो यह भावी अशांति की भूमिका सिद्ध होती है। मैंने अपने अंतर्ज्ञान के आधार पर पल-भर में ढेर सारे अनुमान लगा डाले, लेकिन ऐसा कोई भी अनुमान स्थायी ज्ञान नहीं बन पा रहा था, जो इनकी चुप्पी का रहस्य खोल सके। उस समय मुझे लगा कि मैं ऐसी नजरबंद अपराधिन हूं, जिसे अपनी गलती के बारे में उसका अपराध बताए, बिना कुछ पुछे काल-कोठरी में घसीटा जा रहा है। उस दिन सासु का वह रूप स्त्री के किसी भी भले रूप से दूर-दूर तक संबंधित नहीं था, क्योंकि उनकी आंखों में हिंसक संदेह का क्रुद्ध तेवर ज्वार मार रहा था, और तनी हुई भौंहों पर जैसे विषमय सवालों की बौछार बैठी हुई हो। खैर, अब तो मुझे कटघरे में खड़ा होना ही था। धीरे-धीरे डरी हुई-सी उनके नजदीक गयी और सिर झुकाए अपने बिस्तरे से सटकर नीचे बैठ गयी। उनकी तरफ देखे बिना ही धीमे से बोली – “अम्माजी, बैठ जाइए न !” पता वे सुनीं कि नहीं या सुनकर भी अनसुना कर गयीं। कुछ देर बाद मेरी ओर दो कदम आगे आयीं और खड़े-खड़े झाड़ना शुरू कर दिया – “तो आज पता चला कि तू कितनी मायाविनी है।” अम्माजी का यह प्रश्नमय आरोप मेरे कानों में पिघला हुआ गर्म शीशा जैसा महसूस हुआ, लेकिन यह ऐसा क्षण नहीं था कि प्रतिवाद किया जाय या पलटकर जवाब दिया जाय, क्योंकि मुझे इस बात का पूरा-पूरा एहसास हो चुका था कि बात जो कुछ भी हो, हालत काफी नाजुक है, इसलिए स्थिति की गंभीरता को देखते हुए मेरा मौन बने रहना और चुपचाप सुनते जाना ही बेहतर था और फिर, जब तक यह न पता चल जाय कि सच्चाई है क्या, तब तक क्या बोलें ? इसीलिए मैंने मन में यह गांठ बांध ली कि जब तक पूरी बात समझ नहीं लूंगी, तब तक कुछ नहीं बोलूंगी, चूं तक नहीं करूंगी। इनके जो मन में आए कहें, जो मन में आए करें। चाहे जितनी उट-पटांग बातें कह डालें, चाहे जितनी गालियां दे डालें, सब बर्दाश्त करूंगी, कुछ भी नहीं बोलूंगी। एक चुप, हजार चुप। उन्हें मैं बीच में टोकी नहीं। आक्रमण और बढ़-चढ़कर आगे भी जारी था, अभी तो यह शुरुआत थी।
“तो लूटने के लिए मेरा ही घर बचा था ? न जाने मेरे उदई का कहां करम फूट गया था, उसके सिर तुझ जैसी कुलटा मढ़ उठी। अच्छा बता, किस-किस से हो-हवाकर आयी है ? अरे, तेरे लच्छन तो हमें शुरू मे ही अनरथ के लगने लगे थे, पर मुझे क्या पता था कि तू इतनी पतुरिया निकलेगी। नाते-रिश्तेदारों ने तो और चढ़ा-चढ़ाकर मेरे बेटे को लूट लिया। कहते थे, तेरे जैसी बहू किसी को बड़े नसीब से मिलती है। अब लो नसीब, लेकर चाटो इन्हें। रात-दिन अगरबत्ती सुलगाकर पूजा करो। कल सारे गांव में डंका बजेगा कि दयानाथ की बूह भरष्ट है, बदचलन है, एक नम्बर की आवारा है। दस जगह से लुटाकर आयी है। अच्छा यह बता कि आज तक यह सब छिपाए क्यों रही ? तभी तो मैं सोचती थी, कि इतनी जल्दी-जल्दी बियाह की तारीख क्यों ठीक हो रही है ? बिना लड़की को ठीक से जांचे, परखे, समझे यह सब क्यों हो रहा है। सब महीने-भर के अंदर-अंदर निपटा दिया। कुछ विलंब होता, तो बीच में ही पोल खुल जाती न। सारी असलियत का पता लग जाता। पेट की बात सबको मालूम हो जाती।”
अब तो चुपचाप बैठी रहना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। उनके एक-एक शब्द दहकते अंगारों की तरह मेरे हृदय पर बरस रहे थे। इस समय मेरी क्या दशा थी, इसका आप अंदाजा नहीं लगा सकते। बस इतना ही समझिए कि उस समय सामने कोई और नहीं था, नहीं तो मैं न जाने क्या-क्या कर बैठती। सभी बड़ों को आंख मूंदकर सम्मान देने की रूढ़िवादी मान्यताओं ने हमारे भीतर उनके अन्याय को भी चुपचाप सह लेने की कमजोरी पैदा कर दी है। यही कमजोरी धीरे-धीरे आदत बनकर हमें भीतर से रीढ़विहीन कर देती है और फिर भविष्य के किसी काम लायक नहीं छोड़ती यही ज्ञान मुझे शुरू में ही आ गया होता, तो कितना अच्छा था ? कम से कम इस ऐस मौके पर बुढ़िया के चुभने वाले आरोपों का जवाब तो दे सकती। लेकिन अब जबकि सारी खेती उजाड़ हो चुकी है, खाली सोचने से क्या फायदा ? यह बुड्ढी इसी तरह हृदय चीर देने वाले आरोपों से और भी मर्मान्तक प्रहार करने लगी। आखिर मुझसे न रहा गया। वैसे ही बैठे-बैठे थोड़ा दृढ़ शब्दों में बोली – “अम्माजी, जिसने आपसे कहा हो, उसे बुलाकर ले आइए। वह मेरे सामने आकर कहे। पीछे क्यों चुगली करता है ? जिन्हें किसी के सुख को देखकर जलन होती है, वही आढ़े-आढ़े लांछन लगाते फिरते हैं। आप किसी के कहने पर मत जाइए।”
“अच्छा, अच्छा क्या कहती है तू ? किसी के कहने पर मत जाऊं ? जो कहती है उसे मान लूं ? मेरी अम्मा है न ! मेरी सासु है। अरे, यह तीन-पांच किसी और को पढ़ाना। पाटी नहीं पढ़ी हूं तो क्या ? सब जानती हूं, सब समझती हूं। अभी मेरे सामने पैदा हुई और मुझे ही बात पढ़ाने चली है। अभी और सीख ले, फिर उपदेश बघारना। हमने भी बहुत दुनिया देखी है, बाल ऐसे ही नहीं सफेद हो गए। एक तो घर फूंक दिया, ऊपर से पूछती है – किसने फूंका अम्मा ? तेरी यह जो मीठी बोली है न, बिल्कुल जहर है- जहर। जो किसी को डंस ले तो लहर न मिले। जो ज्यादा मीठा बोलता है, वह बाद में उतना ही मुड़कटवा निकलता है। अब तो तेरी वह दशा होगी कि कोई सहाय नहीं लगेगा। मैं तो सास ठहरी, जदि मर्द होती तो इसी बखत तेरा हाथ खींचकर घर से बाहर निकाल देती। पापी को एक सेकेण्ड के लिए भी बर्दाश्त करना पाप है। जा हो भगवान ! तुम्हीं इसका न्याव करना।”
अब मैं समझ गयी कि इनके सिर पर नीचता का भूत सवार हो गया है, इसलिए वहां कुछ भी सफाई देना, मानो किसी पक्के सनकी के सामने आंख मूंदकर भाषण देना था। फिर भी जब सरासर झूठा इल्जाम लगाया जा रहा हो, तो धैर्य रखने के बावजूद अपने आपको संभाल पाना मुश्किल होता है। यही जी करता है कि या तो वही रहे या मैं। बेगुनाह सह जाते हैं, ताज्जुब होता है। बड़ी दया आती है उन पर। या तो वे अपने स्वाभिमान से समझौता करते-करते अनीति के समझने की दृष्टि हमेशा के लिए खो बैठते हैं या फिर उसे अपने जीवन का नासूर मानकर मन ही मन खुद की खुद्दार इच्छाओं को उसके चंगुल में समर्पित कर चुके होते हैं।
अपने मन की सारी भड़ास निकाल लेने के बाद वे मुझे भस्म कर देने की मुद्रा में घूरती हुई उठीं, और झमककर सिर पर पल्लू सीधा करती हुई बाहर निगल गयीं। जाते-जाते एक और तीर छोड़ गयीं – “हूंह, यह मेरी बहू है।” उनके जाने के बाद लगा कि जैसे मुझे भरी सभा में अर्द्धनग्न कर दिया गया हौ, और हर कोई मेरे खुले रूप पर लपकना चाहता हो। कोई मेरी बेबसी पर झूम-झूमकर ठहाका मार रहा हो। कोई हाथ उठा-उठाकर मनमाना आनंद लूट रहा हो, तो कोई भद्दी-भद्दी कालियां देकर अपना क्रोध शांत कर रहा हो और मैं हतशून्य नेत्रों से विह्वल होकर खून से लथपथ, किसी घायल चिड़िया की तरह सबको असहाय दृष्टि से देख रही होऊं। मैं उस औरत की भांति थी, जिसको कटघरे की तरह घेरे हुए कई बलिष्ठ शरीर हिंसोन्माद से पागल होकर टूट पड़ना चाहते हों, और उनके सैकड़ों हाथ मुझे पत्थर मार-मारकर दफन कर देने के लिए उतावले हो रहे हों। इन्हीं प्राणघातक भावों की अवस्था में मैं विक्षिप्त-सी काफी देर तक अस्त-व्यस्त बैठी रही। रात करीब दो घण्टे बीत चुकी थी, इसी बीच मुझे कुछ भनक लगी, जैसे वे आ गये हैं। लगा जैसे घायल पीठ पर अचानक गरम पोटली रख दी गयी हो। मैं भावी बेइज्जती की पीड़ा से मन ही मन कराह उठी। वे आए, बाहर ओसारे में बैठे, पता नहीं सासुजी पानी पूछी कि नहीं ? मुश्किल से दस मिनट बीता होगा, वे फुसफुसाकर धीरे-धीरे वही जहर उगलने लगीं। उस कसाई ने मेरी बुढ़िया से कैसी आग लगायी, यह मुझे उस समय तक भी नहीं मालूम हो पाया था। हां, यह संदेह पक्का हो गया कि यह चुगली मेरी लाज और इज्जत से जुड़ी हुई है। तभी तो घर में इतना तूफान मचा हुआ है। मेरे पति को जब सारी बात मालूम हो गयी, तो पहले काफी देर तक वहीं बाहर की चारपाई पर सन्न मारे बैठे रहे, फिर बैग वहीं रखकर चुपचाप भीतर आने लगे। लगा जैसे- मुजरिम कटघरे के भीतर लाचार ऐसे जज के सामने खड़ा हो, जिसने पहले से ही घूस ले रखी हो और कैदी अपनी कठोर सजा भुगतने की बात सोच ले। वे मुझसे बिना कुछ पूछे, बिना कुछ बोले कमरे के भीतर जाकर पलंग पर लेट गए। उस वक्त मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं ? वहां जाऊं कि न जाऊं ? मेरे मन में बैठे पत्नी-भाव ने कहा- तुम्हें उनके पास जाना चाहिए, परंतु अनर्थ का डर बार-बार रोक देता था कि तेरा इस वक्त वहां जाना ठीक नहीं, क्योंकि मूड उनका गरम है, वे इस वक्त कुछ भी कर सकते हैं। हो सकता है मार-पीट भी दें। या कच्ची-पक्की बक दें। ऐसी असहज मानसिकता में अच्छा से अच्छा आदमी भी बहुत गलत कर बैठता है, जिसे वह सपने में भी नहीं सोच सकता। इसलिए जब तक वे खुद न बुलाएं तुम मत जाना, कतई नहीं। खैर! वे थोड़ी देर में मेरा नाम लेकर भीतर बुलाए और मैं लगभग कांपती हुई-सी डरी-डरी अपने कमरे में किसी अजनबी की तरह दाखिल हुई। उस समय मेरी हालत कितनी खराब हो चुकी थी, इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते, बस इतना ही समझिए कि जैसे प्रचण्ड आंधियों से भरे घुप्प अंधकार में भटकते हुए किसी राहगीर को कोई बुझती हुई रोशनी दिख गयी हो। मैं उनके सिरहाने थोड़ा दूर ही जाकर खड़ी हो गयी। ओह ! क्या ये वही मेरे पति हैं ? एक ही क्षण में सब-कुछ इतना बदल गया ? वे न तो मुझसे बैठने को कहे, न ही मेरी ओर देखे और न ही मेरे करीब आने पर सुख या आनंद का एहसास जाहिर किया। बस वैसे ही लेटे-लेटे सासु वाले सहजे में पूछना शुरू कर दिया – “बताओ! क्या हुआ था तुम्हारे साथ ?” इतना सुनते ही मुझे लगा जैसे पूरा शरीर मुर्दा हो गया हो, उसमें बस किसी तरह सांस चल रही हो। यह सवाल सुना तो जरूर, मगर ऐसी प्रश्नमय पहेली मेरी समझ के बाहर थी, इसलिए चुप रही। अब उनका संदेह और भी पक्का हो गया। मेरी चुप्पी ने उनके प्रश्न को उचित ठहराने में मजबूत नींव का काम किया। फिर दुबारा बोले; इस बार शब्दों में कुछ उत्तेजना-सी थी- “मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूं – सुनती हो कि नहीं ?”
“हां, सुन रही हूं।”
“तो बोलती क्यों नहीं ? मेरे सवाल का जवाब दो।”
“क्या बोलूं ? मुझे तो कुछ नहीं मालूम।”
“क्या कहा ? कुछ नहीं मालूम ? पागल तो नहीं हो गयी हो ? घर-भर में तुम्हारे कारण बवाल मचा हुआ है, और तुम कहती हो कि तुम्हें कुछ नहीं मालूम ? देखो, मैं अभी आदमी की तरह पूछ रहा हूं – सच-सच बता दो।”
“पहले यह तो बताइए कि बात क्या है ? अम्माजी ने आपसे क्या कहा ?”
“फिर वही फालतू वाली बात। अम्मा क्या कहेंगी ? तुम क्या समझती हो, मुझे कुछ मालूम नहीं ? सब पता है। बनो चालाक, कब तक बनती फिरोगी ?”
“मैं आपकी कसम...।”
“बस-बस, बंद करो ये बकवास। सामने सती-साध्वी बनेंगी और पीछे गुलछर्रे उड़ाएंगी।”
“मैं आपके हाथ जोड़ती हूं, आपके पैर पड़ती हूं – प्लीज झूठा इल्जाम मत लगाइए।”
“तो क्या यह झूठ है कि तुम बचपन से ही इज्जत लुटाती आयी हो ?”
चारों ओर समुद्र, घनघोर समुद्र। रात है – नहीं-नहीं प्रलय है। कोई बचा है ? नहीं-नहीं सब डूब गए हैं, सब मर चुके हैं, कोई नहीं दिखता, कोई नहीं देखता। दिशाओं-दिशाओं में, जल में, थल में, आकाश में। सब कहीं, सब तरह चक्रवात, चिंघाड़ता हुआ, दहाड़ मारता हुआ चक्रवात। लहरें हैं। चक्रवात के बीचोंबीच समुद्र के महागर्त में मैं मरकर डूबती-उतराती तैर रही हूं। लहरें आकाश में उछाल देती हैं, और मैं समुद्र पर बार-बार पटक दी जाती हूं।
काफी देर बाद मुझे थोड़ा होश आया। पुरानी स्मृतियों के आतंक ने मुझे भीतर-भीतर इतना कमजोर बना दिया कि मैं वहां खड़ी न रह सकी, टूटकर गिरती हुई –सी फर्श पर आ गयी। लगा जैसे अभी मूर्छित हो जाऊंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न जाने मुझमें कैसे होश बाकी था। इस दशा का का उन्हें भी कुछ एहसास हुआ कि नहीं, मुझे नहीं पता। वे तो शायद इस संदेह के पीछे छिपी मेरी अन्य बुरी सच्चाइयों को सोच-सोचकर खोज निकालने में लगे हुए थे।
वह कंटीली रात, जब मैं छलनी होकर जमीन पर पड़ी हुई थी, और वे पलंग पर लेटे हुए थे, न जाने मुझे कब नींद आ गयी। सुबह हुई तब मुझे भान हुआ कि रात में मैं तो नीचे ही सो गयी थी। वे भी उसी उधेड़बुन में वैसे ही सो गये। मैं उठते ही थोड़ा संभलकर साड़ी ठीक करते हुए झुकी-झुकी-सी नजर ऊपर उठायी तो मालूम हुआ कि वे जाग चुके हैं।
अब मैं चुपचाप दिल थामकर प्रतीक्षा करने लगी – कि आगे क्या होता है ? करीब आठ-नौ बजे के आस-पास वे ऑफिस के लिए तैयार होकर मेरे पास आए और दो टूक शब्दों में निर्णय सुनाया – “अब तुम मेरे साथ नहीं रह सकती। आज के बाद तुम यहां फिर दिखाई नहीं पड़ोगी। अब तुमसे मेरा कोई मतलब नहीं। तुमसे मुझे कोई लेना-देना नहीं है। तुम जहां चाहो जा सकती हो, जहां चाहो रह सकती हो, बस मेरा पिण्ड छोड़ दो। आइंदा फिर कभी इधर झांकने की भी कोशिश मत करना वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा, समझी ?” आगे वे कुछ बोलने के बजाय मुट्ठी भींचकर दांत किचकिचाने लगे। हमको तो पहले से ही पता था कि ऐसा ही कुछ होने वाला है, बल्कि मैं तो और भी बुरी स्थिति झेलने को तैयार थी। मार-पीट का भी अंदेशा था, क्योंकि पत्नी के प्रति मर्द के क्रोध की अंतिम परिणति इसी रूप में होती है। बहू की वजह से से इनकी इज्जत पर उठी हुई उंगली इन लोगों को लोकनिंदा के भय से कितना निष्ठुर और अमानवीय कर देगी, यह कल्पना मेरे लिए जीते-जी मौत देखने की तरह थी। अपना दण्ड सुनाकर वे झटके से बाहर निकले और जाने लगे, फिर तो निकल ही गए। मैं भी तय कर ली कि अब यहां से निकलती हूं। झूठी इज्जत के इन पुतलों की बीच में मेरी कोई जगह नहीं, कोई अस्तित्व नहीं। धृतराष्ट्र की तरह अंधे लोक-लाज की तानाशाही जब तक इन सबके दिलो-दिमाग पर भय बनकर छायी रहेगी, तब तक इसी तरह बहू-बेटियों का घर उजड़ता रहेगा। इन्हें इसी तरह लांछित और अपमानित होकर दुनिया में बार-बार अकेला होना पड़ेगा, और वे अन्याय की लपटों में नाच-नाचकर जीवन-भर जलती रहेंगी।
और शुरुआत –
“जज साहब ! इस अभागिन को उसके जीवन से मुक्त कर दीजिए, बड़ी कृपा होगी।”
हाय रे दुर्भाग्य ! आज तू यह कैसा दिन लाया कि ससुराल की मधुर गलियां अब छूटती हैं। जिसे में अपना घर समझती थी, जिस माटी के मौन स्नेह के अशीर्वाद में मैंने सारा जीवन बिता देने का सपना देखा था; जिसकी दिशाओं, आकाश और मिट्टी को भरे दिल से निरख-निरखकर आत्मविभोर रहती थी, आज वे सब छूटते हैं। अब इन्हें फिर कब देखूंगी ? क्या मुझे ये फिर नसीब होंगे ? उस समय मेरे हृदय में ममत्व की विह्वलता का ऐसा ज्वार उमड़ा, ऐसी धधक मची, ऐसा भाव उठा कि अपने काबू में रह नहीं पायी। यही जी में आया कि अपनी धरती को अंकवार में भरकर फूट-फूटकर रोऊं। मां के कितने रूप हो सकते हैं, इसका एहसास मुझे उसी समय हुआ। मेरे हृदय का एक-एक कोना उस माटी के प्रति कृतज्ञता से लबालब भर उठा। ससुराल की चौखट बहू के अस्तित्व की सीमा-रेखा होती है। जब तक उसके भीतर है, तब तक बहू है, कुललक्ष्मी है, धर्मपत्नी है। लेकिन जैसे ही वह उस सीमा को लांघी, समझिए कि बदचलन है, कुलटा है, आवारा है, कुलनाशिनी है। वह ससुराल के लिए मर चुकी है। सास-ससुर-पति या कोई भी उसे अपनी प्रतिष्ठा का सबसे कष्टकारक शत्रु समझते हैं। कितना अंधेर है – यह कोई नहीं देखता कि आखिर बहू हमारी और आपकी तरह ही एक आदमी है। आपकी ही तरह उससे भी गलतियां हो सकती हैं। औरों की तरह वह भी अपने मन की खुशी और सुख के अनुसार जीने की ख्वाहिश रखती है। क्या औरों की तरह उसे भी अपनी पसंद की दुनिया में जीने का हक नहीं ? लेकिन इस तरह से आज सोचता कौन है ? मर्द भले नीचता के गड्ढे में गिरा पड़ा रहे, भले भोग-विलास के दलदल में डूबा रहे, पत्नी बिल्कुल पाक-साफ रहनी चाहिए। आज चौखट लांघकर में अस्पृश्य और मूल्यहीन वस्तु बनने जा रही हूं। आज से सम्मान पाने की भूख समाप्त होती है। मुझे खूब पता था कि आज के बाद बहू बनकर जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। बल्कि और साफ कहूं तो मात्र एक औरत के रूप में जी पाना दुश्वार हो जाएगा, क्योंकि मैं इस जन्मांध रीति-रिवाजों और मर्यादाओं की कूपमंडूकता और निर्ममता को अच्छी तरह से जान चुकी थी। यही समाज एक दिन इज्जत की दुहाई देकर औरत को बीच सड़क में खड़ा कर देता है, और यही समाज उसकी लुट चुकी इज्जत से खेलने के लिए हमेशा गिद्ध-दृष्टि लगाए रहता है। इतना बड़ा ढोंग ? इतना बड़ा दोमुंहापन ? फिर भी चल रहा है न जाने कब से चल रहा है।
मुझे घर से निकलने का आदेश तो मिल ही चुका था। सासुजी तो पहले से ही मुझे दूध की मक्खी समझी हुई थीं, फिर इस हालत में किससे उम्मीद करती और करती भी तो क्यों ? हां एक थे, मेरे। वे मेरे ससुरजी ही थे। मुझे उनके स्नेह पर जरा-सा भी संदेह नहीं था, लेकिन वे आज किसी घायल शुभचिंतक की तरह लाचार थे। मुझ कैसे रोकते, कैसे क्या करते ? यह सब जानने के बाद उन पर क्या बीती होगी, इसकी कल्पना करते ही मैं हीनभावना की वेदना से तड़प उठती हूं। सिर्फ वही ऐसे सज्जन थे जिनका ध्यान करते ही मेरी आत्मा बच्चा होने के लिए आतुर हो उठती है। उस समय वे घर के पिछवाड़े चले गये थे, और घर में जब से यह आग लगी, तब से मेरे सामने आने से बचते थे। आज मुझे वह रास्ता नसीब नहीं था, जिस रास्ते से मैं गाजे-बाजे के साथ सम्मानपूर्वक ससुराल आयी थी। वह रास्ता तो उन लोगों के लिए है, जिन्हें किसी से नजरें चुराने का दण्ड नहीं मिला है। मैं उन लोगों में से नहीं थी। ससुराल की वह राह जिसकी प्यारी धूल मेरी आत्मा का कोना-कोना सुगन्धित कर देने वाली चंदन राशि कर तरह पवित्र थी, जिस पर बार-बार चल कर हमने खुद को उसके प्रति जीव-भर के लिए ऋणी बना लिया था, उसको आज इन लोगों ने छीन लिया। मैं पिछवाड़े की खिडकी के रास्ते से निकल पड़ी। जाते-जाते एक बार पीछे मुड़कर घूंघट की ओट से बुजुर्ग पिता की तरह अपने घर को देखा और मन ही मन अंतिम आशीर्वाद लेते हुए भावी कष्टों के आंसू लेकर अनजाने मार्ग पर निकल पड़ी। मैं नहीं चाहती थी कि राह में ससुरजी से सामना पड़े, लेकिन वे बाड़े में बैठे-बैठे मरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे आता हुए देखकर वहां से बाहर निकल आए और सिर झुका कर मेड़ पर बैठ गये। उनके करीब पहुंचते ही मेरी गति अनायास ही धीमी पड़ गयी, लगभग जैसे रुक गयी होऊं, लेकिन रुकी नहीं। थोड़ा फासला बनाते हुए अपनी राह पर ही आगे निकलने लगी। इतने में ससुरजी उठकर खड़े हो गए और कटी हुई जिह्वा की पीड़ी भरकर बोले – “कहां जाती हो बेटी ?” मैं कह नहीं सकती उस समय मुझमें कितनी सुखद तड़प उठी। लगा जैसे दूसरा जन्म हुआ हो। मगर नहीं, यह भावुकता का समय नहीं था, मैं संभल गयी। वे फिर बोले – “मुझे माफ कर देना बेटी। तुम्हारा अभागा ससुर तुम्हारे साथ एक पिता की जिम्मेदारी न निभा सका। बुढ़ापा आदमी को कितना अधिकारहीन और लाचार बना देता है। अपनी बेटी नहीं थी, तुम्हें देखकर संतोष करता था, अब गोदरी कहकर किसे बुलाऊंगा ? तुम्हारे साथ सारा अन्याय देखता हूं पर कुछ नहीं कर पाता। मेरी गलती-सही माफ करना बेटी। बस... और क्या कहूं ???... क्या बताऊं ??... जाओ बेटी इस गंदगी से निकल जाओ। मेरा स्नेह और आशीष सदा तुम्हारे साथ रहेगा।”
मैं अपना सिर नीचा किए ही चलने की मुद्रा में रुकी हुई-सी उनकी बात सुनती रही। जब बोल चुके तो उनकी तरफ देखे बिना ही पैरों की ओर आकर शिशुवत अगाध भाव से झुकी और आशीर्वाद लेकर धीरे से मुड़ती हुई वही पगडंडियों वाली राह चल दी। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो नहीं, लेकिन महसूस किया कि वे मुझे ऐसे भाव से देख रहे थे, जैसे घर से उजड़ा हुआ कोई छोटा किसा भयानक बाढ़ में अपनी फसलों को डूबता हुआ असहाय-सा देखता रहता है। सदा-सदा के लिए बिछुड़ने की ऐसी असह्य दशा मन को इतना भारी और जुबान को इतना अवाक् कर सकती है, इसका ज्ञान इतनी शिद्दत से, पहले कभी नहीं हुआ था। किसी के आंसुओं में ठहरे हुए बेबस स्नेह की प्रबलता इतनी गहराई तक कचोटती है कि उसका असर जीवन-भर नहीं भूलता। लगता है जैसे उसकी सहृदयता निरीह बनकर मुझसे पूरी तरह हार मनवा लेती है और अपनी निर्दोष लाचारी से हृदय जीत लेती है। मेरी आंखों से झर-झर आंसू बह निकले, विह्वलता के कारण सामने कुछ सूझ नहीं रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं ? आंसुओं के वेग से लगा जैसे आगे दलदल है और मार्ग उसमें गुम हो गया है। लेकिन मुझे इस तथ्य तक पहुंचने में जरा भी देरी नहीं लगी कि यह स्नेहावेग का क्षणिक ठहराव है, जहां सोच-समझ सुन्न हो जाती है और भावुकता बाढ़ की तरह पूरे शरीर में छा जाती है। मैं थोड़ी ही देर में फिर सजग हो गयी। मेरे आत्मसम्मान ने मुझे आदेश दिया – “अब तुम चलो यहां से।” मैं अपनी चाल थोड़ा तेज करती हुई आगे बढ़ गयी। अब मुझे रोकता कौन ? आगे बढ़ती चली गयी और सरपट निकलती हुई सीधे जाने लगी। अगल-बगल के खेत, अभी कल तक सभी अपने थे। यहां मेरा रोज का आना-जाना होता था। कहने को तो सब निर्बोल थे, देखते ही नहीं थे। पर ऐसा कौन कहता है ? वे तो हर मौसम में अपनी हरी-भरी दौलत के साथ मुझसे जी भरकर बातें करते थे बिना बोले। और देखते तो रोज ही थे। उन्हें जैसे मैं देखती थी, लगता था वैसे ही वे मुझे देख रहे हैं। अब फिर कभी इस आत्मीय पगडंडी पर आना नहीं हो पाएगा। रास्ते तो बहुत मिलेंगे, मगर अपने खेत-खलिहानों के नहीं, बल्कि उपेक्षा-भरे दुख और आत्मग्लानि के।
इसी तरह के सोच-विचार में डूबती-उतराती मैं काफी दूर तक निकल आयी। आसपास अब कोई परिचित चेहरा नजर नहीं आ रहा था। मुझे भी लगा कि मैं गांव की चौहद्दी से बाहर आ गयी हूं। जी में थोड़ी तसल्ली हुई की चलो और कोई सामने नहीं पड़ा, नहीं तो कुछ पूछ बैठता तो क्या जवाब देती ? खेतों की मेड़ों से पार निकलते ही बीच में खूब लम्बा-चौड़ा, दूर-दूर तक फैला हुआ घास का मैदान नजर आया। मैं उसके बीचोंबीच पहुंची ही थी कि इतने में मैदान के एक कोने से किसी बच्चे की आग्रहपूर्ण कातर पुकार सुनाई पड़ी – “रुक जाओ चाची, रुक जाओ। मुझे छोड़कर मत जाओ।” उधर घूमकर देखी तो चकित रह गयी। अरे, यह तो तिलक है, लेकिन यहां क्या कर रहा है ? शायद घूमने, खेलने निकला हो। नहीं, शायद गाय चराने आया होगा। हां – तो, देखिए न, इधर गाय लेकर निकला हुआ है। घर वालों द्वारा सुबह-सुबह इसके ऊपर एक जिम्मेदारी लाद दी जाती है, फिर तो पढ़ चुका। आठ साल का हो आया, लेकिन किताब पढ़ते समय अभी भी हकला कर बोलता है। वह बेतहाशा जी छोड़कर दौड़ता हुआ आया और मेरे सामने लाठी टेकता हुआ याचक की मुद्रा में खड़ा हो गया। ओंठ सूख गए थे, कोमल-सा शरीर प्रबल अपनत्व के वेग से बुरी तरह कांप रहा था। वह कुछ देर तक ठगा-ठगा-सा मौन खड़ा रहा, फिर नन्हीं-नन्हीं सी आंखों से आंसू झरने लगे। मैं सब-कुछ समझ गयी। यही वह भोली-प्यारी शक्ति थी जिसने मुझे उस समय अपनी सरलता से शक्तिहीन बना दिया था। मैं खुद को रोक नहीं पायी और उसके रुखे, बिखरे बालों को धीरे-धीरे सहलाते हुए उसे अपनी गोद से चिपका लिया। मेरे हृदय का अतृप्त मातृत्व एक भूख बनकर धधक उठा। यह मेरा बच्चा है। मेरा छोटा बच्चा, मेरा बाबू तिलक। मैं मां हूं। कौन कहता है – मैं बांझ हूं। काफी देर बाद उठकर खड़ी होती हुई उसके आंसुओं से तर-ब-तर मुरझाए चेहरे को दोनों हाथों में लेकर शांतिपूर्वक चूमा फिर ढाढस दिलाते हुए बोली – “मैं जा कहां रही हूं – बाबू। तुम यहीं रुको, अभी थोड़ी देर में वापस आ जाऊंगी।” “लीजिए चाची देखिए- आज से कान पकड़ता हूं- फिर कभी लौकी मांगने नहीं आऊंगा, लेकिन आप मत जाइए।” लौकी को लेकर उसकी इस बाल-सुलभ चिंता पर मुझे हंसी भी आ गयी। इस तरह उसके निवेदन और मेरे समझाने-बुझाने का प्रेम-द्वंद्व बड़ी देर चलता रहा। आखिर वह थक-हारकर वहीं गुमसुम-सा बैठ गया और मैं काठ की मूर्ति की भांति किसी अमूर्त शक्ति से जबरदस्ती खींची जाती हुई उठकर चलने लगी। फिर दुबारा उसे मुड़कर देख लेने की हिम्मत नहीं जुटा पायी। वह वहां कब तक बैठा रहा ? घर कब गया ? मुझे नहीं मालूम। अब मैं क्या बताऊं ? आज इतने वर्षों बाद भी इस जेल में सोते-जागते, उठते-बैठते सबसे अधिक अपने तिलक बाबू का वही भोला-सा याचक चेहरा याद आता है। जैसे वह यहां भी आ रहा है और कहता है – “चाची घर चलो न, फिर कभी लौकी मांगने नहीं आऊंगा। लेकिन आप लौट चलिए।” ओह ! बचपन भी कैसी अनमोल चीज होती है।
हाय रे बाबू ! अब कहां लोटूंगी ? किसके पास लौटूंगी ? मेरा वहां कौन है जो इज्जत के साथ मुझे रखने का साहस दिखाएगा। अब तो यह जेल और न्यायालय ही कटघरा मेरे मरणशील भविष्य के दो ध्रुव हैं – जिसके बीच मुझे रात-दिन घूमना है, लगातार चक्कर काटना है। अब यही मेरी नियति है। ऐसा तो मुझे पहले ही आभास था, लेकिन क्या मैं इससे डरती थी ? भूल जाइए जी ! रत्ती-भर भी नहीं। डर तो तब हो, जब विकास की कोई आकांक्षा बाकी रह गयी हो या जीवन के प्रति कोई मोह शेष रह गया हो। यहां तो हर क्षण जीते हुए मृत्यु से भी भयानक एहसास की दुर्दशा में पहुंच गयी हूं। आखिर ऐसा हुआ क्यों ? कैसे मैं सुख के शांतिमय प्रभात से भटककर यातना और पीड़ा की दुर्गम भयावह रात से घिर उठी ! लीजिए आज मैं इसे बताती हूं।
जब मैं छोटी थी, लगभग चार साल की; उस समय मेरे मासूम बचपन पर अचानक वज्रपात हो गया। इसका वर्णन करने का कलेजा वैसे मेरे पास तो नहीं; लेकिन बिना सब-कुछ बताए रह भी नहीं सकती। हुआ यों कि मेरे पिताजी का चचेरा बाई कालिका एक बैंक में मामूली क्लर्क था। वह मम्मी और डैडी से मिलने या किसी और काम की वजह से अक्सर आता रहता था। उसकी और डैडी की उम्र में मामूली अंतर था। शायद एक-दो साल का अंतर रहा हो। मगर था वह बहुत नीच। उसके मन पर दिन-रात अंधी हवश का भूत सवार रहता था। वह मुझे बेटी-बेटी कहकर बहला-फुसला लेता और टाफी, बिस्कुट या केला, इत्यादि खिलाकर अपने घर के पास वाले पार्क में ले जाता था। वहां घण्टों मेरे साथ खेलता, बार-बार गोद में उठाता, चूमता और जमीन पर बैठकर मुझे गोद में ही लिए रहता। मैं उसकी नीच हरकतें भला कैसे समझती ? उस समय तो बस यही सोचती कि अंकलजी हमको कितना मानते हैं। मां या बाबूजी को उसकी इस आदत का जरा-सा भी एहसास नहीं हुआ। एक दिन की बात है – शाम होने के बाद जब पार्क से लोग धीरे-धीरे अपने घर जाने लगे, वह मुझे पार्क के ही एक सुनसान कोने में ले गया और वहां मेरा मूंह जोर से ढंक दिया। आगे क्या कहूं ? उसके द्वारा मेरी इज्जत लूट ली गयी। रात में रोते-बिलखते हुए मेरे मम्मी-पापा पार्क की तरफ आए और मुझे बेहोशी की हालत में उठाकर घर ले गए। बीच के जीवन के बारे में और क्या कहूं ? एम.ए. तक पढ़ी वह पूरा कहां हुआ ? शादी हो गयी। ससुराल से बेइज्जतीपूर्वक निकाली गयी। उसके बाद मायके आकर सारी दुर्दशा की जड़ कालिका से इस धरती को मुक्त कर दिया। समाज के श्रेष्ठ और आदरणीय संबंधों को अपने विचारों की गंदगी से भ्रष्ट करने वाले ऐसे कालिका सरीखे लोग, जब तक जिंदा रहेंगे, तब तक गोदावरी बार-बार ससुराल से वापस होगी। उसमें बार-बार प्रतिशोध की भावना भड़केगी। वह मूलतः इस प्रवृत्ति की न होते हुए भी हिंसक बनेगी। आप चाहे उसे जेल में ठूंसें या काल-कोठरी में बंद करें। चाहे उसे आजीवन कारावस दे दें या फांसी पर लटका दें। वह वही करेगी जो एक घायल अपने ऊपर प्रहार करने वाले के साथ करना चाहता है।
आज फिर अदालत लगेगी। सब लोग उपस्थित होंगे। पता नहीं मेरी मां आएगी कि नहीं ? वह न आती तो ठीक ही था। उसे सामने देखकर खुद को संभाल कैसे पाऊंगी ? जज साहब आज मेरा पुनः बयान लेना चाहते हैं। आखिर इससे फायदा ही क्या ? मैं तो कह चुकी, कई बार फरियाद कर चुकी हूं कि – “जज साहब ! इस अभागिन को उसके जीवन से मुक्त कर दीजिए, बड़ी कृपा होगी।” इसके बावजूद भी वे फैसला नहीं सुनाते। पिछली तारीख को उन्होंने निर्देश दिया था कि – “अपना बयान दर्ज कराना होगा कि आपके साथ कैसे-कैसे क्या हुआ ?” अब आप ही जरा सोचिए मैं यह सब कैसे बताऊंगी ? खैर ! मुझे तो वहां जाना ही है, और जाऊंगी भी, लेकिन अदालत के सामने यह बताने के बजाय कि मेरे साथ क्या-क्या हुआ, यह बताऊंगी कि मेरे साथ क्या-क्या नहीं हुआ ?
(कहानीकार भरत प्रसाद मूलतः गोरखपुर के निवासी हैं । जे.एन.यु., दिल्ली से हिन्दी में स्नातकोत्तर की शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात इन दिनों शिलांग के पूर्वोत्तर विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं । हाल ही में इन्हें सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ, रायपुर द्वारा 5 वें अखिल भारतीय साहित्यमहोत्सव में कहानी के लिए पं. बल्देव मिश्र सम्मान-2004 से सम्मानित किया गया । संपादक)
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