(वैचारिक टिप्पणी)
यह एक अच्छी ख़बर हो सकती है कि बुश या अमेरिका को हिन्दी से प्यार हो गया है । हो भी क्यों नहीं । हिन्दी एक समृद्ध भाषा है । उसके बोलने वालों की संख्या भी चीनी के बाद दूसरे नंबर पर है । इसमें अमेरिका का क्या स्वार्थ हो सकता है ?
विश्व-बाजार में अमेरिका ही सबसे बड़ा क्रेता और बिक्रेता है । वह दुनिया की हर श्रेष्टतम् वस्तु का खरीददार है । इसकी खरीदफ़रोख्त में बाधक तत्वों की संख्या न के बराबर है । उसके बावजूद हिन्दी के साथ भी जब वह अरबी, चीनी, रूसी, फारसी और प्रभावशाली भाषाओं को सिखाने के लिए अमेरिकनों को उत्साहित कर रहा है तो इसका मतलब क्या हो सकता है ? हमारे विचार से अमेरिका अन्य ताकतवर देशों से दोस्ती करता है भले ही यह ऊपरी तौर पर हो फिर भी वह ताकतवर से द्वंद्व नहीं चाहता । इसी प्रकार तीसरी दुनिया को कई प्रकार की सहायता करता है । या ताकत के बल पर अपने को दादा मनवा लेने के लिए बाध्य करता है तो इस दोस्ती और दुश्मनी के पीछे वह अपनी ही ताकत को बढ़ाता है । यही वज़ह है कि शेष विश्व में अनेक दृष्टि से अमेरिका सबसे ज्यादा ताकतवर देश है । उसका दूसरा विकल्प नहीं ।
गंभीरता से परखने से यह साफ-साफ झलकने लगता है कि यहाँ बात कुछ दूसरी ही है । भाषा ही विनिमय का सबसे बड़ा माध्यम है । यहाँ अमेरिका हिन्दी या अन्य भाषाओं के माध्यम से उस बहुसंख्यक क्षेत्र में सीधे ताल्लुकात रखना चाहता है जिसके बीच कोई सरकार या शासन व्यवस्था न हो और जहाँ वह विश्वसनीय हो सके । जहाँ वह अपनी पकी-पकायी वैचारिक माल के लिए ग्राहक तैयार कर सके और अपनी अपसंस्कृति को भी बिना शक-सुबहा के बेच सके । जहाँ वह भाषा के ज़रिये देश के सर्वोच्च संस्थान शिक्षा, सुरक्षा और खुफिया तंत्र में दबाव डाल सके या गड़बड़ी पैदा कर सके । यह मान कर चलना चाहिए कोई कुछ देता है तो यों ही नहीं देता, उसमें उसका अपना स्वार्थ होता है । यह बात हिन्दुस्तानियों को अच्छी तरह जान लेनी चाहिए । इससे साहित्य और संस्कृति या विश्वबन्धुत्व की भावना को कम लेकिन क्रेता-बिक्रेता को ज्यादा लाभ मिल सकेगा । इससे सदियों से अमेरिका का संजोया सपना (विश्व सरकार की स्थापना) का भी आधार मिल सकेगा । चारा न डालने से मछली फँसेगी कैसे ?
हम भारतीयों का बाजार हिन्दी से संचालित होता है । खासकर किसानों की मंडियाँ और उसके खेत- खलिहान । यहाँ जह हम हिन्दी कहते हैं तो इसमें हिन्दी की अन्य बोलियाँ को भी सम्मिलित समझना चाहिए । भारतीय ग्रामीण बाजार को नियंत्रित करने एवं उस तक पहुँचने के लिए हिन्दी एवं उसके भाव-तकनीक को जानना निहायत जरूरी हो चुका है । यह अब राज नहीं रहा कि अमेरिका व्यापार जगत की ललचायी आँखे लम्बे समय से भारतीय बीजों सहित श्रम एवं कौशल पर टिकी हुई हैं । वह हिन्दी के अस्त्र से ही भारतीय ग्रामीण उद्योग एवं उसके उत्पाद के किलों को जीतना चाहता है ।
हमारे ऐसा कहने में यह निहितार्थ नहीं है कि अमेरिका के इस कदम से हिन्दीभाषी मानव संसाधन के विकास के लिए कोई भूमिका नहीं बनेगी । हिन्दी की महत्ता अमेरिका में बढने से युवा इंजीनियर, टेक्नोक्रेट्स, डाक्टर्स आदि नये सिरे से अपना भाग्य अमेरिका जैसे विकसित देश में आजमा सकेगें । जाहिर है अमेरिका भी सोचता है कि हिन्दीभाषा में संचित ज्ञान, तकनीक, पांरम्परिक कौशल व दक्षता का क्यों न दोहन किया जाय । अब तक होता यह था कि भारत के उच्च आय वर्ग के प्रतिभा ही अमेरिका में रोजगार के नाम पर अपनी सेवा देते रहे हैं, वह भी अमेरिका की तुलना में कम और भारत की तुलना में अधिक वेतन एवं सुविधा पर । अब अमेरिका द्वारा हिन्दी के शरणागत होने के पीछे मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग की युवा संसाधनों का दोहन भी सन्निहित है जिसे अमेरिका बड़ी आसानी से कर सकेगा । इसमें किसी कोई शंका नहीं होनी चाहिए कि असली भारतीय कौशल, दक्षता तथा युगों-युगों से संचित ज्ञान का रहस्य हमारे हिन्दीभाषी मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग के पास ही सुरिक्षत है जो साधारणतः अंग्रेजी के विरोधी व हिन्दीप्रेमी रहे हैं ।
अमेरिका की वर्चस्ववादी नीतियों का प्रखर विरोध भारत का हिन्दीभाषी जनता ही करती रही है । क्योंकि वह सांस्कृतिक चेतना के मामले में अंग्रेजीभाषी भारतीयों से ज्यादा सतर्क और दृष्टि-संपन्न है । बुश के हिन्दी प्रेम का रहस्य इस बात का भी संकेत है कि ऐसा कर वह अंग्रेजी विरोधी व हिन्दीप्रेमी बहुसंख्यक भारतीयों के विरोधी-स्वरों को कम कर सकेगा ।
कुछ इसे भाषायी उदारवाद और हिन्दी की वैश्विक विस्तार का सम्मान भी कह सकते हैं । इससे हमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती किन्तु अचानक उपजे हिन्दी प्रेम को सरल कोण से सोचना शायद जल्दबाजी भी हो । इसे भावुकता से नहीं अपितु वैचारिक बुद्धिमता से ही देखा-समझा जाना चाहिए...
डॉ. बल्देव
2/27/2006
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