2/28/2006

भारतीय कविताः असमिया

असमिया कविता की यात्रा
(मूल्याँकन)
आसाम प्रान्त की भाषा असमिया कही जाती है। अठारहवीं शताब्दी के अंतिम चरण और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में आसाम का इतिहास अत्यन्त शिथिल एवं गतिहीन रहा। घरेलू विद्रोह, बर्मी आक्रमण और अफीम का घातक व्यसन इसके कारण हैं। सन् 1854 में जब समूचे आसाम को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया तब अपने गौरव के मद में डूबी आसाम की जनता की नींद टूटी। जब होश आए तब तक अंग्रेजी थोपी जा चुकी थी। इस नीति के विरुद्ध पियलि फुकन मलिराम देवान, आदि ने विद्रोह किया जिन्हें फाँसी की सजा दे दी गई। आसाम ने इस प्रकार इस युग में केवल अपनी स्वतंत्रता को ही नहीं खो दिया अपितु भाषिक स्वतंत्रता भी जाती रही। सन् 1836 ई. में आसाम के स्कूलों तथा अदालतों से असमिया भाषा को निष्कासित कर दिया गया और उसके स्थान पर बंगला भाषा का प्रचलन किया गया। पादरी रेवरेन्ड नैथन ब्राउन और ओ.टी. कौटर ने धर्म प्रचार के लिए असमिया भाषा सीखी और असमिया की पहली पुस्तक प्रकाशित की। इसके पूर्व असमिया को बंगला की एक गौणभाषा मानी जाती थी, जिसका कोई साहित्य नहीं था।
कई उठापटक के बाद सन् 1872 ई. में आनन्दराम ढेंकियाल फुकन के प्रयत्नों से असमिया को अपना उचित स्थान प्राप्त हुआ। मसीही धर्म प्रचारकों के माध्यम से असमिया बाषा पनपी और साहित्यिक रूप प्राप्त कर सकी। आधुनिक असमिया साहित्य का इतिहास यह है कि पहले तो धर्म प्रचारकों और आसाम के कुछ लोगों ने असमिया भाषा को उसका उचित स्थान दिलाया और फिर कुछ अधिक जागरुक लोगों ने यह अनुभव किया कि स्वाधीनता छीन जाने और उसके बाद की सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा से देश की स्थिति क्या से क्या हो गई है ? पर राष्ट्रीय भावना को परिपक्व रूप में प्रस्फुटित होने में कुछ समय लगा। राजा राममोहन राय के समकालीन श्री आनन्दराम ढेकियाल फुकन ने असमिया लोगों में राष्ट्रीय भावना फूँकी और उनमें जागृति लाई। सन् 1853 में मनीराम दीवान ने आसाम पर अंग्रेजों के अधिकार की विस्तृत आलोचना की। स्व. लक्ष्मीकांत बेजबरुआ को असमिया साहित्य के भारतेन्दु और द्विवेदी के रूप में हम पाते हैं। हेमचन्द्र बरुआ और गुणाभिराम बरुआ आदि ने जो परंपरा स्थापित की, बाद के कवियों-लेखकों ने उसी का विर्वाह किया। गत और विगत शताब्दी के बीच रचना करने वाले कुछ लेखकों में देशभक्ति की यह भावना और भी स्पष्ट रूप से प्रखर और उत्कट रूप में प्रकट हुई। इस प्रकार की रचनाओं में साहित्यिक प्रतिभा न रही हो ऐसा नहीं है। हेमचन्द्र बरुआ के कार्यों को इन्होंने पूरा किया। वस्तुतः एक राष्ट्रीय कवि व युग चेतना के मार्गदर्शक स्व. लक्ष्मीकांत बेजबरुआ के उदय से असमिया साहित्य में संजीवनी शक्ति आ गई, अपितु समग्र भाव जगत में नवीन स्पंदन छा दिया, एक नवीन चेतना का संचार किया। राष्ट्रीय जागरण की यब भावना देशभक्त कमलाकांत भट्टाचार्य के गीतों और लेखों में मुखरित हुई। श्री भट्टाचार्य ने “चिन्तानल” नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखा था – “न जाने असमिया कब एक होंगे।” अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा है – “आसाम की शिल्प-कृतियों से प्रेरित होकर किसी न किसी दिन लोग पुनः गौरव प्राप्त करेंगे। उस दिन इस महत्वपूर्ण दिख पड़ने वाले प्रस्तर खंड से सैकड़ों मैजिनियों का जन्म होगा। सैकड़ों ‘गैरीबाल्डी’ जन्म लेकर भारत भूमि को आलोकित करेंगे।” इसी काल में ही मातृभूमि के प्रति ममत्व, उनके सम्मान की रक्षा के लिए आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रत्येक हृदय में हिल्लोर लेने लगी थी। असमिया काव्य-साहित्य भी इसी युग में राष्ट्रीय कविताओं द्वारा सबसे अधिक समृद्ध हुआ जिसका समारंभ इन्होंने ही किया था और आगे “जोनाकी” साहित्य गोष्ठी द्वारा विकसित हुआ।
“चन्द्रकुमार अग्रवाल (1858-1938ई.) लक्ष्मीकांत बेजबरुआ (1867-1938) और हेमचन्द्र गोस्वामी (1872-1928) इन तीनों महान लेखकों को वर्तमान असमिया साहित्य का निर्माता कहा जाता है। “जोनाकी” (जुगनू) नाम पत्रिका का शुभारंभ इसी मित्रमंडली ने कोलकाता में अध्ययन करते हुए किया था। उसने देशप्रेम की नई लहर से आधुनिक असमिया साहित्य में नवजीवन का संचार किया। स्वदेशप्रेममूलक “वैरागी और वीणा” की तरह बहुत ही उच्च स्तर की है। सौंदर्य की खोज, मानव प्रीति, वेदान्तिक प्रभाव, नूतन समाज का आह्वान और आशावाद चन्द्र कुमार की कविता की विशेषताएं हैं। (डॉ. सत्येन्द्र नाथ शर्मा, असमिया साहित्यर इतिवृत्त)”
प्रारंभिक बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रतिभाशाली लेखक बेजबरुआ हैं। उनके जीवन का अधिकांश समय हावड़ा और सम्बलपुर (उड़ीसा) में बीता। किन्तु वे चाहे जहाँ भी रहे हों उनका मन सदा आसाम के पार्वत्य रमणीय प्रदेशों में रमता रहता था। उनकी “वैरागी और वीणा” कविता असमिया में देशप्रेम संबंधी सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसके कुछ भाव ये हैं:-
“ओ ! वैरागी,
अपनी वीणा पर
मंद मधुर धुन छेड़,
मेरे हृदय को शांति मिले
तेरे शब्द, मैं नहीं समझ पाता
किंतु तेरी वीणा माधुरी
नस-नस में व्याप्त है मानो
जन्म-जन्मांतर से उसे ही सुनता रहा हूँ,
उस दूर लोक की मादक स्मृति
रह-रह कर जगाता तू
अपनी उस वीणा से
ओ वैरागी !”
उन्होंने कई ऐतिहासिक नाटक भी लिखे हैं, जिनमें से दो हैं – ‘बेलिमार’ (आसाम की स्वतंत्रता का सूर्यास्त) और ‘चक्रध्वजसिंह’ जो रामसिंह की पराजय पर आधारित है। “मेरा देश” नामक उनका एक गीत संग्रह आसाम का राष्ट्रगीत स्वीकारा जा चुका है।
असमिया काव्यों में मधुसूदन के प्रभाव से राष्ट्रीय भावना को बल मिला। अम्बिका गिरिराय चौधरी सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी हैं वे राजनैतिक आन्दोलनकर्त्ता और देशभक्त हैं। उनकी “इन्द्र धनुष” की कुछ पंक्तियों में उन्होंने कहा है – “मैं विद्रोही ! मैं आराधक!” इसमें उन्होंने सामाजिक दुर्गुणों की निन्दा की है। राजनैतिक बंदी के रूप में राय चौधरी ने जेल में राजनैतिक स्फूर्ति पैदा करने वाली अनेक कविताओं की रचना की है। इनमें रौद्र रस का प्राधान्य है। उनकी कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं –
“मेरे गीत हर्ष या आल्हाद के नहीं
जिनसे श्रांत भुजाओं में स्फूर्ति आ जाये।
मेरे स्वर अग्नि वीणा के स्वर हैं
जिसकी ज्वाला से शिथिल और
द्रुतगामी दोनों ही में स्फूर्ति का
संचार होता है।”
विनन्द्र चन्द्र बरुआ की रचनाओं में देशप्रेम का बाहुल्य है। ये राष्ट्रीय चेतना के कवि हैं। “शंखध्वनि” और प्रतिध्वनि, “रंगाभुवावीर”, “आगिया ठुठिर वीर” जैसी मनोरम देशात्मबोधक करुण रस से सिक्त कविताएं संग्रहीत है।
शैलधर राजरखोवा ने भी सुन्दर देशप्रेम प्रेरक रचनाएं की है।
सूर्य कुमार भुइयाँ की “आपोनसुर” कविता एक उल्लेखनीय आव्हान-रचना (ओड़) है, जिसमें प्रेम का गुणगान किया गयाहै। उनकी “टिपामर डेका”, “असमगौरव” जैसी देशप्रेममूलक विवरणात्मक कविताओं ने अत्यन्त ख्याति पायी है।
डिम्बेश्वर मेओम की रचनायें वर्णनात्मक हैं। “इन्द्रधनुष”, “शापमुक्ता”, “स्वर्गपुरी”, “मोरगाँव”, “बुरजी लेखक” जैसी उनकी उच्च कोटि की देशप्रेम मूलक कविताएं हैं।
1942 ई. के आन्दोलन के पश्चात नवयुवक समाजवाद की ओर झुके और मार्क्सवादी सिद्धांतों की ओर आकृष्ट हुए। उनके दृष्टिकोण में स्पष्ट परिवर्तन आया। आधुनिक असमिया साहित्य में जो राष्ट्रवादी चेतना आई थी, उसके कारण समय-समय पर दलित लोगों की आवाज मुखर हो उठती थी। अब उतनी भाव-प्रवणता नहीं रह गई। 1946 में आधुनिक असमिया कविता का जो काव्य संग्रह निकला उसमें तरुण लेखकों ने पूंजीवादी शोषण और जाति भेद के विरुद्ध आवाज उठाई और परिस्थितियों को बदलने का बीड़ा उठाया। ज्योति प्रसाद अग्रवाल की रचनाओं से प्रकट यह होता है कि किस प्रकार एक देशभक्त कवि देशभक्ति की उमंगों को छोड़ स्वयं सेनानी बन गया। उनके बाद के गीत क्रांतिमूलक हैं। नई कविता का स्वर अटूट आत्मविश्वास और जीवन संघर्ष से मोर्चा लेने के उत्साह का स्वर है। केशव महन्त की कविता इस प्रकार है –
“मुत्यु पर भी विजय प्राप्त करने वाले अमर वीर
जिनके नाम पर नये युग के नये इतिहास रचे जाते हैं,
कभी मरते नहीं।
आज दिन भी जीवित हैं,
युग-युगान्तर में मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हुए,
जीवन-ज्योति को उन्होंने जलाये रखा है।”
हितेश्वर वरबरुआ की “मुख्य गामारु” में यशोगान एवं राष्ट्रीयता का उदघोष मुखरित हुआ है। इनके काव्य राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत होने के कारण अत्यन्त प्रभावोत्पादक है।
नीलमणि फुकन का अंतिम ग्रंथ “शतधारा” है, जिसमें गांधी जी और विनोबा बावे से प्रभावित कवितायें हैं।
दंडिनाथ कलिता के “असम-संध्या” काव्य में असम की स्वतंत्रता-रवि के डूबते क्षण का मार्मिक वर्णन है अर्थात “आहोम” के अंतिम राजा चन्द्रकांत सिंह को लेकर ही यह काव्य रचा गया है।
पदमधर चलिहा ने सन् 1921 में “स्वराज्य संगीत” कविता लिखी जो बड़े ही आदर के साथ लोगों के मुंह से गाई गई।
लक्ष्मीनाथ फुकन का “ब्रह्मपुत्र के प्रति” देशप्रेम मूलक कथा काव्य है।
कवयित्री नलिनीबाला देवी की “परशमणि” जैसी राष्ट्रीय कविताओं द्वारा कवि के देशप्रेम की झलक भी स्पष्ट होती है।
अतुलचन्द्र हजारिका की “पांचजन्य” कृति में कवि की राष्ट्रीय चेतना उदघोषित हुई है।
प्रसन्न लाल चौधरी की कविताओं मे स्वदेश प्रीति की उद्दाम कामना है। “इनका विद्रोह यौवन का विद्रोह है, कंकाल सदृश किसान का विद्रोह है।” (डॉ. निओम)
असम के लोकप्रिय नेता स्व. तरुणराम फुकन के आइमोर असमे कविवर नवीनचन्द्र बरदलै के “श्याम असम आइ धुनिया”, “डेका गामरुर दल” जैसे अत्यन्त प्रभावोत्पादक देशप्रेम मूलक गीत हैं।
गणेश ने उच्चस्तर की कई कविताओं की भी रचना की थी। देवकांत बरुआ की कविताओं का प्रारंभ बन्धनहीन नग्न आकांक्षा से हुआ और अन्त जड़ संस्कारों से मुक्ति की उदग्र आकांक्षा के साथ। इसी में ही अतीत गौरव और राष्ट्रीय चेतना का तूर्यनाद भी सुनाई पड़ता है। तिरस्कृत प्रेम विद्रोह बाद में देश-मातृका की सेवा में लगकर पूर्णता प्राप्त करता है और “लांचित फुकन” जैसी कविता के द्वारा उस समय के जनचित्त को प्रभावित करता है।
इसी तरह असमिया कविता में स्वाधीनता आन्दोलन की तीव्रता है। भारतीय राजनैतिक रंगमच पर गांधीजी के आविर्भाव से छुआछूत का त्याग, वर्ण-भेद, दूरीकरण की शिक्षा का प्रचलन, आर्थिक समता का स्थापन, अतीत गौरवगान, गांधी दर्शन आदि अन्तः स्वर मुखरित होते हैं।


डॉ. अर्जुन शतपथी
संपर्क, आकाशवाणी मार्ग
जगदा, राउरकेला, उड़ीसा

(रचनाकार मूलतः उड़ियाभाषी अनुवादक एवं हिन्दी के वरिष्ठ रचनाकार हैं । उच्चशिक्षा विभाग से सेवानिवृत्ति के उपरान्त साहित्य साधना में संलग्न हैं । उन्हें सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ द्वारा 12-13 फरवरी 2006 को आयोजित एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्यक्रम में छ.ग. के राज्यपाल श्री के.एम.सेठ ने अनुवादक सम्मान-2004 से अलंकृत किया है । संपादक )

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