एक
अपनों को समझाने निकले
हम भी तो दीवाने निकले
सच कहने की ज़िद है अपनी
जीते जी मर जाने निकले
हर उदास चेहरे के पीछे
दर्दों के अफसाने निकले
अंधों की बस्ती में किसको
दर्पण यहां दिखाने निकले
भीतर आंसू, बाहर हँसना
तुम भी बड़े सयाने निकले
दो
मर गया लेकिन कभी टूटा नहीं
शख्स था खुद्दार वो झूठा नहीं
है बड़ा दिलदार वो इंसान जो
दुश्मनों से भी कभी रूठा नहीं
दोस्ती है इक इबादत की तरह
मुफलिसी में साथ गर छूटा नहीं
ऐसा करने चंद घड़ियाँ वे आयी
उसके पापों का घड़ा फूटा नहीं
हाय जनता और ये गुंडे सभी
कौन जिसने इसे लूटा नहीं
गिरीश पंकज
संपादक, सदभावना दर्पण, रायपुर
2/27/2006
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4 टिप्पणियां:
आपकी दो ग़ज़लों ने मन को छुआ है।
सृजन सम्मन का कार्य सराहनीय है। और भी अन्य शायरों की अच्छी ग़ज़लें पढ़ने की इच्छा रहेगी।
पहली गज़ल बहुत अच्छी लगी । अच्छा काम कर रहे हैं आप ।
अनूप
बहुत ही सुंदर गजल है दोनों . शुंदर शेर है
है बड़ा दिलदार वो इंसान जो
दुश्मनों से भी कभी रूठा नहीं
देवी नागरानी
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