2/23/2006
बस्तर की कविताएँ
वह डूब गया अबूझ पहेली के साथ
संगलू ने फिर
ज़मीन को छूकर देखा
मिट्टी ज्याद गीली या पथरीली हो
नदी की बहती धार
पानी की धार तिक्ष्ण हो
कटाव गहरे बालू भरे हों
कल-कल बहती धार की ध्वनि
मधम, धीमी हो
शायद नदी ने बहने से मुँह मोड़ लिया हो
पर ऐसा न था
बस्तर की पहाड़ी छोटी
नदियों में मछलियाँ
अब पूरी चंचलता से
मचलती फिर रही थी
पानी अब भी
ठंडा गहरा नीला था पानी-सा
पेड़ों की छाल धब्बेदार और परतवाली थीं
तनों पर पेड़ों के
कुल्हाड़ी के घाव अभी भी ताजा थे
साल सागौन के पत्ते अब फैले-फैले
आकाश को निहारते
बतियाते हिल रहे थे
फिर उसने महसूसा
शरीर में गहरे ज़ख्मों से बहते अनवरत लहू के रंग को
शायद बस्तर के बदलते मिजाज से
बदरंग हो गया हो
फिर उसने आत्मा से छुआ
बस्तर की बारूदी हवा को
उस वहसियाना दरिंदगी को जो
कसैली आँखों की बेवजह चमक को
वह इन सबके अलावा
अलग ऐसा कुछ भी अलग न पाकर
बह गया अपने गहरे
अनवरत रिसते घावों को लेकर
अबूझ पहेली के साथ
बस्तर की लहुलुहान धरती में
आवाज नहीं आती है खच्च की
सचमुच किस हाड़-माँस में क्या होगा
घने-घने पेड़ी के तनों सा
मानव जंगल
अबूझमा़ड़ तितैया या गंगालूर की घाटियों में
कभी सप्रयास दिखाई देते हैं
लम्बे से
गगन के नीचे
मानव तन
सकुचाते मूक
मानवीय जंजाल से परे तथा अन्जान
नहीं आवाज आती जिस तरह
गहरे हाते घावों की
कटते हैं
पत्तियों पेड़ों की तरह
हाड़-माँस की पौध भी कट जाती है
एक ही बार में
बारूदी कुल्हाड़ी से
और कटने की
खच्च सी आवाज भी नहीं होती
और खत्म हो जाती है
ऐसी सारी की सारी
आवाजें पेड़-पत्ती और टहनियों में
गहरे कहीं
अबूझमाड़ गंगालूर या मारडुम के जंगलों में
पदचाप से हिलते वनालय
पदचाप से
दबती धरती
सूखे पत्तों से भर उठता घना वन
और फिर
पत्तों का दबता धीमा स्वर
गहरे पहर
एकरूपता को भेदती
गहरे पदचापों की मूक ध्वनि
संकुचित कर देती है
झाड़ फानूस से रचे बसे वनआलयों को
कभी एक अदद चिंगारी
नलकी की
राख का ढेर बना देती है
पूरे पैरावट के गाँव को
और आदि मानव के जलते माँस की गंध
समा जाती है
गहरे पदचाप की ध्वनि में
और आकाश के फैले बादलों के
ढेरों में
यह भी एक जूनून
बहुत पहले
देश की परतंत्रता पर सवाल उठते
विदेशियों की धरती से
हटाने कई-कई हाथ हवा में उठते
मुठ्ठियाँ भींची जाती
आँखो में शोले होते थे
आज भी गहरे घने जंगल में
मटमैल विचारों के
सोच की परतंत्रता वालों को
जंगल से उखाड़ फेंकने
मानव मन की
आजादी हेतु
आवाजें उठती
हाथ भी उठते हैं और सैलाब भी
जुलूस की शक्ल में
निहत्थे तीर कमान के साथ
विरोध करते हैं बारूद का
चिंगारियों का परतंत्र मलीन
समाजविरोधी मंसूबों का
और होता हे
विरोध फटे चिथड़े
कपड़ों में लिपटे
भोले आदि मानवों द्वारा
उन हथियारों का
जिनके मन मस्तिष्क में
भरी है कुण्ठा
अमानवीय संवेदना और कुत्सित मनोभावों के
मानव विरोधी आचार
क्या पतझड़ यूँ ही पसरा रहेगा
अमलताश के
मुस्काते फूलों की
फैलती जब भी गंध
तब अमलताश भी शर्माकर
हिचहिचाकर
अपनी टहनियां सिकोड़ लेता है
अपनी ही बाहों में
और डहलिया, कचनार भी
गुनगुनाते है गीत बसंत के
सहलियों की तरह
खिलखिलाती है
अंजानी सी फ़िजाओं में
तब ऐसे ही गीत उभरते हैं
चित्रकोट और ओरछा के छोटे-छोटे घोटूल में
जन्म लेती है एक शुद्ध मानव की काया
और शुरू होता है
निर्बाद्व मासूम और भोलेपन पर
पिछली कुछ बयारों में
छायी है- कालिख
और न तो अब
अमलताश गुनगुनाते हैं
न ही कचनार के ओंठ
कभी तिरछ होकर मुस्कराते दिखते हैं
टहनियों शर्माना
बसंत के साथ उसकी बाँहों में सिमट गया
अब पतझड़ पत्तियों में नहीं
फूलों में नहीं
पूर जंगल में समा गया है
और घोटूल में नहीं आती
खिलखिलाने की आवाजें
अब पत्तियों में पूरे समय
यूँ ही परस गया है
पूरा का पूरा पतझड़
संजीव कुमार ठाकुर
चौबे कालोनी, रायपुर
छत्तीसगढ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
बस्तर पर लिखा हुआ सब कुछ एकाएक इतना हरीतिम और नम नज़र आने लगता है कि उस पर विचारों और प्रतिक्रियाओं का बोझ डालने को जी ही नहीं चाहता.छत्तीसगढ़िया होने की भावुकता में ही शायद.
कितना अच्छा होता यदि आप विनोद कुमार शुक्ल से लेकर विष्णु खरे तक कुछ बड़े कवियों की छत्तीसगढ़ पर लिखी कविताएँ इसमें शामिल कर पाते.
एक टिप्पणी भेजें