3/09/2006

आज की कविता-2


मेरा आकाश

ऊबड़-खाबड़ सड़क
धूल के गुब्बारे
ट्रकों की गड़गड़ाहट
मनुष्यों के रेले
फिर भी सूरजर उगता है प्रतिदिन
और डूबता है संध्याओं में
चिरन्तन जैविक संभावनाओं के साथ
चलता हुआ पार करता हूँ
हजारों पड़ाव
तमाम विसंगतियों के बावजूद
ओझल नहीं होता
मेरी निगाहों से मेरा आकाश
0000000000

-विजय राठौर

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