3/13/2006
सप्ताह की कहानी
आखिर क्या मजबूरी थी !
के.पी. सक्सेना “दूसरे”
हालाँकि इस बात को तीस वर्ष बीत चुके होंगे किन्तु याद आते ही सारी बातें टी.वी. सीरियल की भाँति सामने आने लगती हैं। यह जानते हुए भी कि जिस पात्र की मैं आज चर्चा करने जा रहा हूँ शायद इस समय वह अपने नाती-पोतों के पोतड़े धो रही होगी या पता नहीं संसार में है भी या नहीं, पर बात मैं ज्यों की त्यों आपके सामने रखूँगा, केवल नाम काल्पनिक होंगे, ये मेरा वायदा रहा।
आप टोक सकते हैं कि इतने वर्षों बाद ऐसी क्या आन पड़ी जो मैं किसी के कपड़े उतारने के लिए उतावला हो गया (जी हाँ, ठीक ही शब्दो का इस्तेमाल हो गया – इसे कपड़ा उतारना ही तो कहेंगे), तो इसका मुख्य कारण है कि इन तीस वर्षों में अक्सर मुझे यह प्रश्न अक्सर कचोटता रहा कि आखिर उसकी क्या मजबूरी थी जो...। आज चूँकि मेरी ट्रेन उसी स्टेशन से गुजर रही है, जहाँ इस वाकये का जन्म हुआ था, मैं उसे पहली बार आपके समक्ष उदघाटित करने जा रहा हूँ इस आशा के साथ की हो सकता है कि कहीं यह उसके पढ़ने में आ जाय और वह तरस खा कर मेरे प्रश्न का समाधान कर दे ! यकीन मानिए कि अगर खुदा न खास्ता ऐसा हो पाया तो एक कहानी फिर लिखूँगा।
चलिए बात को ज्यादा न खींचकर मैं एक ही एपीसोड में इसे आप तक पहुँचाने का प्रयास करता हूँ। उन दिनों मेरी पोस्टिंग इस कस्बेनुमा तहसील के एकमात्र कॉलेज में हुई, तो मुझे जरा भी नहीं सुहाया था। बस्ती में मनोरंजन के नाम पर केवल एक सिनेमा-घर था, जिसमें पिताजी के जमाने की हीरोइनों की पिक्चर ही अक्सर देखने को मिलतीं। आबादी इतनी कि एक घन्टे में यदि आप एक कोने से दूसरे कोने को पैदल नापें तो बहुत संभव है कि वही चेहरे आपको दुबारा, तिबारा देखने को मिल जाएँ। हाँ, स्टेशन अलबत्ता जंक्शन होने की वजह से गुलज़ार रहता था, जहाँ इस बस्ती के नौजवान प्रायः टाइम-पास करने या आँख सेंकने के लिए दिन में कई बार चक्कर लगाया करते थे।
मैं अकेला होने के कारण एक होटल में कमरा लेकर रहने लगा था, ताकि दुनियाभर की गृहस्थी संबंधी झंझटों से मुक्त रह सकूँ। चूँकि यह इस बस्ती का इकलौता होटल था, जो माहवारी पर कमरे देता था, मेरे जैसे कई नौकरीपेशा लोगों की यह शरणस्थली थी। अतः अच्छी कंपनी बन गई थी। कॉलेज के बाद अक्सर हमारी महफ़िल जम जाती और गपशप करते-करते टाइम कट जाया करता। छुट्टियों के दिन तो यह आलम सुबह से ही शुरू हो जाता, जिसका एक बड़ा फायदा यह था कि लोग परदेश में एकाकी होने की मनहूसियत से बचे रहते और एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँट लिया करते थे।
उस दिन भी अवकाश था। बरसात का मौसम रात से पानी जो शुरू हुआ तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। शायद दो-तीन दिन की लगातार छुट्टियाँ थी इसलिए फोर्स्ड बैचलर घर चले गए थे और होटल सूनसान था। मैंने सुबह नौ बजे बिस्तर छोड़ा। लेकिन करूँगा क्या यह सोचकर मुँह धोकर फिर बिस्तर में घुस गया। पड़े-पड़े दो-तीन चाय पी डाली और दोनों दैनिक पेपर चाट डाले। ‘आवश्यकता है’ से लेकर ‘बवासीर’ के इलाज तक का कालम पढ़ डाला, लेकिन समय अजगर हो गया था, सरक ही नहीं रहा था। हारकर खाना खाया और एक उपन्यास लेकर फिर बिस्तर में घुस गया। जाने कब नींद आ गयी।
जब नींद खुली तो चार बज रहे थे, तभी मनोहर आ गया। उसे देखकर मैंने राहत की साँस ली और चाय मंगाई। बाहर का हाल पूछने पर उसने बताया कि अभी थोड़ी देर पहले ही बरसात थमी है। घर में बोर हो रहा था, इसलिए मेरे पास टाइम पास करने चला आया।
मनोहर स्थानीय व्यक्ति था। नौकरी न मिलने के कारण कुछ ही समय पहले ठेकेदारी शुरू की थी। स्वभाव का अच्छा था लेकिन लिखा-पढ़ी में कमजोर था। अक्सर मेरे पास आ जाया करता था, कभी बिल चेक कराने तो कभी कोई लेटर लिखवाने। कोई वैधानिक अड़चन आने पर भी कभी-कभी वह मुझसे सलाह लिया करता था और इसीलिए वह मुझे अक्सर बड़ा भाई कहकर संबोधित किया करता। उसकी एक आदत यह भी थी कि हम जब कहीं खाने-पीने बैठते, वह मुझे कभी खर्च नहीं करने देता था, शायद इसी बहाने मुझे उपकृत करना चाहता हो, उसे समय-समय पर दी गयी सलाहों की एवज में।
चाय पीकर हम लोग बाहर घूमने निकल पड़े। सड़क पर बहुत चिपचिप थी, लेकिन भीनी-भीनी हवा चलने के कारण मौसम बड़ा खुशगवार लग रहा था। रूटीन के अनुसार छु्ट्टी के दिन अगर शाम को हम लोग घूमने निकलते तो लगभग यह तय रहता था कि सिनेमा चौक से होते हुए रेल्वे स्टेशन तक जाएंगे, एक दो मैगजीन खरीदेंगे, ट्रेन का वक्त हुआ तो प्लेटफार्म के एक-दो चक्कर लगाएंगे और चाय-साय पीकर वापस हो लेंगे। कभी-कभी कोई बहाना मिल गया या किसी की जेब ज्यादा उछलती नज़र आई तो पास के ढाबे में जाकर थोड़ा मौज-मस्ती कर ली और खाना खाकर अपने-अपने दड़बे में।
लगभग इसी स्वाभाविक क्रम में हम स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे कि सिनेमा चौक पर एक रिक्शेवाले ने सलाम ठोंका। मैंने सोचा कि सवारी पाने की लालच में वह ऐसा कर रहा है। लेकिन वह तो मनोहर का परिचित निकला। वह मनोहर को एक ओर ले जाकर बात करने लगा। थोड़ी देर तक मैं चुप रहा, लेकिन जब देर होती दिखी तो मैंने उनकी ओर गौर किया। मुझे लगा कि मनोहर किसी बात के लिए मना कर रहा है और बार-बार वह उसका हाथ पकड़कर कुछ मनुहार सा कर रहा है।
“क्यों जिद कर रहा है भाई, कोई और सवारी देख ले।” मैं उसकी ओर देखकर बोला।
“वो बात नहीं है ।” मनोहर बोला।
“फिर क्या बात है ?” मेरे यह पूछने पर वह बात टालने की गरज से उससे बोला, “अच्छा चल स्टेशन तक छोड़ दे।”
मैं कुछ समझा नहीं। स्टेशन तो हम कभी रिक्शे से नहीं आते थे। फिर भी मनोहर की इच्छा देखकर बैठ गया। बस्ती से स्टेशन जाने के दो मार्ग थे। एक शार्टकट, जिससे प्रायः पैदल यात्री आया-जाया करते थे और दूसरा मुख्य मार्ग जो रेल्वे कॉलोनी से होकर गुजरता था। चूँकि हम लोग रिक्शे में थे, स्वाभाविक है कि रिक्शा कॉलोनी से होकर जाएगा। इसलिए मैंने मनोहर की ओर प्रश्नवाचक निगाह उठाई। वह धीरे से कान में फुसफुसाया, “बड़े भाई, दरअसल ये रिक्शेवाला हमें मनोरंजन के लिए एक जगह ले जाना चाहता है।”
“क्या बकवास करते हो।”
“वही तो। मैं भी इससे यही कह रहा था, पर मानता ही नहीं। कहता है बस एक बार मिल लो। कोई ऐसी-वैसी जगह नहीं है, देखकर तबियत खुश हो जाएगी। वह आपको भी जानता हैकि आप कॉलेज में पढ़ाते हैं।” बोलते-बोलते एक क्षण को मनोहर मेरी प्रतिक्रिया देखने को रूका।
“मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता। तुझे जाना है तो जा।” मैंने रिक्शेवाले को रिक्शा किनारे लगाने को कहा।
मनोहर ने मुझे उतरने न दिया। वह रिक्शेवाले से बोला, “अच्छा चलो, स्टेशन तो चलो।” रिक्शा बड़े अनमने ढंग से आगे बढ़ा और स्टेशन के मेन गेट पर लाकर खड़ा कर दिया। मनोहर पैसे देने लगा तो मैं सिगरेट लेने के लिए आगे की ओर बढ़ गया। सिगरेट लेने के बाद पलट कर देखा तो वह अभी भीमनोहर के पीछे लगा हुआ दिखा। जाने क्यों मुझे लगा कि मनोहर की भी थोड़ी इच्छा है, किन्तु मेरे कारण संकोच में है। अब मैं आप लोगों से सच बताऊँ, तो क्यूरोसिटी मेरी भी बढ़ गयी थी। कभी-कभार दोस्तों के संग गाना-वाना सुनने तक का मेरा अनुभव था, लेकिन उसे आगे नहीं। बस इसीलिए दुविधा थी। तभी मनोहर मेरे पास आकर बोला –
“उसका कहना है कि एक बार हम मिल भर लें मिलने में कोई खतरा नहीं – कोई खर्चा नहीं। बात नहीं जमी तो तो वह वापस यहीं छोड़ देगा। हाँ, ये आदमी भरोसे का है और हमसे कोई चाल नहीं चलेगा, इतना मैं जानता हूँ लेकिन मेरी मर्जी के बिना आपके नहीं है ये आप जान लो।”
यह सोचकर कि ऐसा भी एक अनुभव अपने जीवन में जोड़ा जाय, मैंने मनोहर पर मानो एक एहसान करते हुए कहा, मैंने मनोहर पर मानों एक एहसान करते हुए कहा, “चलो, अब तुम्हारा दिल नहीं तोड़ता, लेकिन ज्यादा देर रुकूँगा नहीं। तुम उससे कह दो कि पास ही कहीं खड़ा रहेगा और मुझे तुरंत होटल छोड़ देगा।”
ऐसा लगा कि मेरी बात मनोहर को मनमाफिक लगी। उसने रिक्शावाले को इशारा किया जो शायद अपनी अनुभवी आँखों से ताड़ चुका था कि तीर निशाने में लग चुका है। रिक्शा फिर रेल्वे कॉलोनी की ओर बढ़ने लगा और एक दो चौराहे से घूमता हुआ एक जगह सड़क के किनारे खड़ा हो गया। सड़क के एक ओर रेल्वे अधिकारियों के एवं दूसरी ओर स्टाफ के क्वार्टर्स लाइन से बने हुए थे। आगे चलकर बड़ा सा मैदान था, जिसके पीछे कुछ झुग्गी-झोंपड़ी। मैं समझ गया कि अब यह किसी गली मे घुस कर किसी झोपड़पट्टी में जाएगा। मैं उसे जाता देखता रहा। लेकिन यह क्या, उसने तो सामने वाले बंगले की घन्टी बजा दी। मैं चौंका और मनोहर की ओर प्रश्नवाचक निगाह दौड़ाई।
“तुम पहले कभी इसके साथ आए हो ?”
“बड़े भाई, इशारा तो इसने एक दो बार मुझसे किया था, पर मैने हर हमेशा टाल दिया। आज आपके साथ मैं भी पहली बार ही आ रहा हूँ। वैसे डर की कोई बात नहीं है। साले ने बदमाशी की तो कल रिक्शा चलाने लायक नहीं रह जायेगा।” मनोहर ने मुझे आश्वस्त किया।
अब तक मैंने मार्क किया था कि रिक्शे वाले ने मुझसे डायरेक्ट, कोई बात नहीं की अतः मैं उसे आता देखकर एक ओर हो गया। उसने मनोहर से कुछ बात की और रिक्शा लेकर जाने लगा तो मैं सकपकाया। तभी मनोहर पास आकर बोला, “चलो बड़े भाई, अब देख ही लेते हैं। टेंशन छोड़ो और मूड में आओ। अपनी बस्ती है, कुछ नहीं होने वाला।”
हमने फेन्स के साथ लगा लोहे का छोटा गेट पार किया। खूबसूरत लॉन के साथ बगीचा, मौसमी फूलों की सुगंध बिखेर रहा था। दस-बारह फीट आगे लकड़ी के जंगले के साथ एक दरवाजा था जो धक्का देते ही खुल गया। यह एक बरामदा था, जिसमें कुछ कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं। यहाँ एक दरवाजा सामने और एक दाहिनी तरफ था। दोनों दरवाजे उढ़के हुए थे। मनोहर आगे था। इस तरह आगे अंदर जाना ठीक न होगा, यह सोचकर मैंने मनोहर को वहीं बैठने का इशारा किया ही था कि दाहिनी तरफ का दरवाजा खुला और एक महिला ने नमस्ते करके अंदर की ओर आने का इशारा किया।
ब्रिटिश पीरियड के आम बँगलों की तरह ही यह बँगला भी था। बड़े से हाल में 1925 का सीलिंग फैन हवा कम आवाज ज्यादा कर रहा था। बीचों-बीच एक सोफा सेट लगा हुआ था। एक कोने में स्टडी टेबल के साथ चेयर पड़ी थी और दूसरे कोने में बड़ा सा रेडियोग्राम ढँका रखा था। कमरा व्यवस्थित एवं साफ-सुथरा देखकर अच्छा लगा।
“बैठिये” कह कर वह महिला अंदर चली गयी।
बगल में बैठा मनोहर कुछ कहने के लिए मेरी ओर झुका ही था कि वही महिला एक ट्रे में पानी लेकर आ गई। हमें चुपचाप बैठा देखकर बोली, “आप लोग आराम से बैठें, यहाँ किसी प्रकार का डर नहीं है।”
अब मैंने उसे जरा गौर से देखा। औसत कद, खुलता हुआ रंग, बदन में हल्की सी चर्बी की शुरूआत, मेकअप से सँवारा हुआ चेहरा, उम्र कोई पैंतीस-छत्तीस के आसपास। साधारण नाक नक्श के बावजूद वह प्रथमदृष्टया किसी का भी ध्यान खींचने में सक्षम लगी।
हम लोग धीरे-धीरे सहज होने लगे थे। मनोहर स्थानीय होने के कारण उसके बारे में शायद थोड़ा बहुत जानता था। अतः बातचीत उसी ने आरंभ की,
“गार्ड साहब नहीं हैं क्या ?”
“वो रहते ही कब हैं ! जब देखो तब, लाइन पर।”
“आपकी तो अब आदत पड़ चुकी होगी।”
“हाँ... ना भी पड़ी हो तो क्या !”
“अकेली बोर हो जाती होंगी।”
“कभी-कभी तो बहुत बोर होती हूँ और कभी-कभी आप जैसा कोई भला मानस आ जाता है तो थोड़ा टाइम पास हो जाता है।” वह मुसकरायी।
“आप इतने चुप क्यों हैं ?”
“जरा संकोची हैं और कोई बात नहीं।” मनोहर ने मेरा पक्ष लिया।
“साहब कब तक लौटेंगे ?” मैंने अपना मौन तोड़ा।
“अभी चार बजे की मेल लेकर गये हैं, रात को लौटने से रहे।” वह फिर मुसकरायी।
मैं कुछ चुटीली बात कहने को था कि बाहर कोई आहट सुनाई दी। मेरी सकपकाहट भाँपकर मनोहर ने धीरे से मेरा हाथ दबाया। वह मैं देखती हूँ कहकर उठ गई। लौटी तो मनोहर से बोली, “वो आया है।” और एक पैकेट लेकर अंदर की ओर चली गयी।
मनोहर बाहर की ओर गया और थोड़ी देर में वापस आ गया।
“एक हरा पत्ता मांगा है।” मनोहर फुसफुसाया। सौ के नोट को उधर हरा पत्ता कहने का चलन था।
“चल उठ।” मैंने उसका हाथ पकड़ा।
“चले चलेंगे बड़े भाई, अब आ ही गये हैं तो थोड़ा, कलर तो देख लें।” यह उसका तकिया कलाम था। जब भी मूड में आता, एक-दो बार अवश्य दोहराता।
इस बार वह जब आई तो उसकी ट्रे में काजू, नमकीन, गिलास और जग के अलावा एक व्हिस्की की बाटल भी थी। उसने सब टेबल पर लगाया और “आप लोग शुरु करें” कह कर अंदर चली गयी। मनोहर व्हिस्की की बाटल उठाते हुए बोला – “चलो बड़े भाई, पहले थोड़ा नारमल होते हैं, फिर कलर देखेंगे।”
मैंने उसे रोकते हुए अंदर की ओर इशारा किया। मनोहर समझ कर रुक गया। थोड़ी देर बाद वो आई और हमें यूँ ही बैठा देखकर बोली, “अरे आपने अभी तक शुरू नहीं किया ! भई सोडा तो घर में नहीं है।”
“बात सोडे की नहीं, दरअसल हम आपका इंतजार कर रहे थे।”
“नहीं-नहीं, आप दोनों लीजिए।” वह बोली।
मुझे लगा कि उसकी इंकार में ज्यादा दम नहीं है, इसलिए मनुहार से बोला, “कोई बात नहीं, बैठिए तो सही। वैसे दो-चार बूँद से कोई प्राब्लम नहीं होगी। आपके गिलास में बस कंपनी के ही सही, थोड़ा सा डाल लें।” जवाब में जब वह चुप रही तो मनोहर ने तीनों गिलास में पैग बना दिये, जिसे अनदेखा किये रही। लेकिन जब चीयर्स के लिए गिलास उठाए गये तो उसने टकराने के लिए यह कहकर मना कर दिया कि “नहीं, नहीं हमें यह अच्छा नहीं लगता।” हमने भी ज़िद नहीं की।
हल्की-फुल्की बातें चल निकलीं। बस्ती, बस्ती के लोग वगैरह-वगैरह। अब हम लोग सामान्य मित्रों जैसी बातें करने लगे थे। थोड़ी देर में सुरूर आने लगा तो मनोहर अचानक बोला, “और सब तो ठीक है मैडम, पर आपने कुछ जादइ मांग रही हो।”
“देखिये, अब इस मूड में ऐसी बातें मत करिए। कुछ ज्यादा नहीं है।”
“ज्यादा तो है। वो तो देवे के बारे को समझ में आत है। अब देखो, तुमाओ आदमी हमें इते ले लाओ। हम आ भी गए, कच्छू तो खयाल करो।” ऐसा लगा मनोहर सौदेबाजी पर उतर आया है। उसका तीसरा पैग समाप्ति पर था, मेरा दूसरा और उन्होंने पहला खत्म कर गिलास हटा दिया था।
“आपने ठीक कहा कि हमारा आदमी ही आपको ले के आया है। उसे ऐसा ही निर्देश है कोई ऐसा-वैसा आदमी इस दरवाजे तक नहीं आना चाहिए।” उसने बड़ी चतुराई से हमें चने में चढ़ा कर अपनी वाणिज्यिक बुद्धि का परिचय दिया।
मनोहर को शायद तलब लगी हो अतः वह सिगरेट लेकर आता हूँ कहकर बाहर निकल गया। अब वह मनोहर की जगह में बैठ गयी। मनोहर और मैं एक ही सोफे में बैठे थे। इसलिए अब मेरे और उसके बीच न के बराबर दूरी थी। अलकोहल अपना असर दिखा रही थी, लेकिन जाने क्यों मेरे दिमाग में भी रह-हकर यह बात आ रही थी कि वास्तव में सौ रुपये बहुत होते हैं। मैं कुछ कहने की सोच ही रहा था कि उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से दबाया और बोली, “इतना क्या सोच रहे हैं ?”
“नहीं कुछ खास नहीं।” मैं सकपका या।
“जानती हूँ, आपको पैसे ज्यादा लग रहे हैं। लेकिन हमें एक स्टैण्डर्ड बनाकर रखना पड़ता है नहीं तो कोई भी ऐरा-गैरा मुँह उठाए चला आएगा और फिर खर्चे भी तो लगे हैं। अब यह रिक्शा वाला ही ले लो। भरोसे का बना रहे, अतः इसे भी सम्हालना पड़ता है। छोटी सी बस्ती है... सब देखना पड़ता है। अब आप जैसे लोग भी ऐसा सोचेंगे तो...” बात अधूरी छोड़कर वह मेरी ओर एक भेद भरी नज़र डालते हुए अंदर चली गयी।
मैं बड़ी दुविधा में पड़ गया। दस मिनट हो गये न मनोहर आया और न ही वह बाहर आई। मुझे भी थोड़ा-थोड़ा नशा होने लगा था और उसका बार-बार अंदर जाना भी जाने क्यों मुझे आशंकित सा कर रहा था। अब मैंने सोचा की अगली ‘होनी’ से बेहतर है चुपचाप निकल लूँ। मैंने गिलास में पड़ी व्हिस्की हलक से उतारी और खड़ा हो गया। दो कदम आगे ही अंदर की ओर खुलने वाला दूसरा दरवाजा था, जिसका पर्दा आधा खुला हुआ था। उस कमरे में रोशनी धीमी थी, फिर भी इतना दिख गया कि वह वहाँ दीवार से सटे पलंग पर अधलेटी है। यूँ ही बगैर कुछ कहे चले जाना असभ्यता होगी। अतः मैं उसके कमरे में पलंग के पास खड़ा होकर शब्द टटोलने लगा, क्योंकि वह उनींदी सी मेरी ओर ही देखे जा रही थी।
“मनोहर अब तक आया नहीं। आए तो कह देना कि मुझे कुछ जरूरी काम था इसलिए चला गया।” बड़ी मुश्किल से इतना कहकर मैं ज्योंही आगे बढ़ने को हुआ, “वो नहीं आयेगा।” कहकर उसने मेरा हाथ हौले से अपनी ओर खींचा। मैं चूँकि इस स्थिति के लिए तैयार न था और कुछ अल्कोहल का असर भी था, भरभरा कर उसके ऊपर गिर पड़ा। वो हँसने लगी। फिर बोली, “मैंने उसे बहाने से चलता कर दिया, क्योंकि मुझे उसके बात करने का तरीका कुछ जँचा नहीं।”
“और मैं ?” मैंने उठने का प्रयास नहीं किया।
“आप ! आप तो बस आप हैं। यकीन मानेंगे, मेरे इस कमरे तक कभी कोई यूँ ही नहीं आता।”
“बेकार की बात है। हम यूँ ही आ गये कि नहीं ?”
“यही तो... मुझे पता था तुम यही कहोगे। अच्छा बताओ, पिछले रविवार को तुम शाम को पिक्चर देखने गये थे ?” मैंने याद कर कहा – “हाँ, लेकिन तुम्हें कैसे पता ?”
“बस उसी दिन मैंने तुम्हें देखा था। देखा क्या, गोपाल ने दिखाया था।”
“गोपाल कौन ?”
“अरे वही रिक्शे वाला। जब मन उचटता है तो गोपाल को बुलाकर सिनेमा देखने चल देती हूँ, और करूँ भी क्या ? उसी ने बताया कि आप हाल में ही आये हैं। कॉलेज में पढ़ाते हैं और अकेले रहते हैं।”
“और इसीलिए तुम्हें मुझ पर तरस आ गया।” मैंने चुहल की।
उसने थोड़ा शरमाते हुए मेरे सीने में अपना मुँह छिपा लिया। हम कुछ क्षणों तक इसी तरह पड़े रहे। फिर वह अपनी दोनों कुहनियों पर शरीर का सारा बोझ डालते हुए चेहरा मेरे बिल्कुल पास लाकर बोली, “इस छोटी सी बस्ती के इस बंद-बंद कमरे में मेरा दम घुटता है। मेरे साथ बाहर चलोगे ?”
“बाहर ? बाहर कहाँ ?” मैं चौंका।
“कहीं भी... जबलपुर या...। जबलपुर ही चलते हैं। भेड़ाघाट घूमेंगे। पूर्णमासी के दिन, रात में वहाँ बहुत अच्छा लगता है। सब कुछ मेरी तरफ से। मैं, फर्स्ट क्लास कूपे में अपनी बुकिंग ले लूँगी, फिर उसमें कोई नहीं आएगा। तुम बस ऐन टाइम में स्टेशन पर आ जाना, मैं सब सम्हाल लूँगी। मेरी मौसी रहती है, गार्ड साहब जानते हैं, इसलिए उनकी कोई चिंता नहीं।”
बातों में मुझे रस आने लगा था, मगर घड़ी आठ बजा रही थी। न चाहते हुए भी मैं बोला, “अच्छा अब चलते हैं।”
“चले जाना। अभी तो प्रोग्राम बनाना शुरू किया है। अच्छा थोड़ा और रुको मैं तुम्हारे लिए एक ड्रिंक बनाती हूँ, उसे लेकर चले जाना।”
लौटी तो उसके दोनों हाथों में गिलास थे। आकर, धम्म से पलंग पर इस तरह बैठी कि मुझे रोमांच हो आया। वह एक गिलास मुझे देकर दूसरा स्वयं सिप करने लगी थी।
“इज़ इट फॉर रोड ?” मैंने हँस कर पूछा तो उसने धीरे से नकारात्मक सर हिलाकर उसे मेरे सीने में टिका दिया।
इस कमरे में कम रोशनी का कारण था इकलौता टेबल लैम्प, जो दीवार की ओर मुँह करके रखा गया था। इस कमरे में दो और दरवाजे थे। एक अंदर की ओर और दूसरा शायद सीधे बाहर बरामदे में खुलता था। नशा जो उतार पर आ रहा था, इस पैग के बाद फिर शूट कर गया। वह अपना ड्रिंक खत्म कर सीधी लेट गयी। उसके देह की गर्मी अब मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। अब मेरी इच्छा भी उसे आलिंगन में लेने की होने लगी। मैं इसके लिए ज्यों ही उसके ऊपर झुका तभी... मुझे ऐसा लगा कि कमरे में कोई दबे पाँव आया है। मैंने अपनी गर्दन घुमाकर शंका का समाधान करना चाहा तो उसने मेरा चेहरा अपने सीने में धँसा दिया।
चेहरा थोड़ा तिरछा दबा होने के कारण मेरी एक आँख खुली थी। मैंने देखा कि एक दस-ग्यारह साल का बालक सर झुकाए कमरे से गुज़र रहा था। कमरे में धीमी रोशनी के कारण कोई आकृति साफ नज़र नहीं आ रही थी।
मेरा मन उचट गया। सारा नशा हिरन हो गया। यद्यपि मैंने उसे आभास नहीं होने दिया कि मैंने लड़के को देख लिया है। पर अब मुझे एक पल भी वहाँ रुकना बहुत भारी लगने लगा।
शायद उसने मेरी मनःस्थिति भाँप ली थी। अतः मेरे “चलता हूँ, फिर मिलेंगे” कहने पर “अच्छा, पर इस तरह नहीं” कहा और हौले से अपनी गिरफ्त ढीली कर दी।
वह दरवाजे तक छोड़ने नहीं आई। बरामदे में अंधेरा था। आगे लान भी अंधेरे में डूबा हुआ था। मैंने मेन गेट धीरे से खोला और बाहर निकल आया। खुली हवा में एक लम्बी, गहरी साँस ली और मेन रोड पकड़ ली। कुछ दूर सीधे चलने के बाद पीछे मुड़ कर देखा तो चौथा बँगला बाहर से अब भी अंधेरे में ही डूबा हुआ था। हाँ ! अंदर वाले कमरे की धीमी रोशनी अवश्य रोशनदान से निकलने का प्रयास कर रही थी।
लगभग एक सप्ताह बाद मनोहर मिला। वह कहीं बाहर चला गया था। हम दोनों समान रूप से उतावले थे कहने-सुनने के लिए। मैंने उसे डांटते हुए कहा, “क्यों, मुझे अकेला छोड़कर भाग गये थे।”
“नहीं, बड़े भाई, बात कुछ जँच नहीं रही थी, सो मैं बढ़ लिया। लेकिन आप के लिए मैं सब सेट कर आया था। कोई ऐसी-वैसी बात तो नहीं हुई ना ? चलो कछु हमारे बतावे काजे हो तो बता दो। मन नई मान रौ।” मूड में आने के बाद वह अपनी बुंदेली में शुरू हो जाता था।
मैंने आगे का हाल कमेंट्रेटर की भाँति सुनाकर पूछा – “यार वो लड़का...”
“वो तो उसी का लड़का है।” मनोहर बड़े सहज ढंग से बोला।
“क्या ?” मुझे यकीन नहीं आया।
“हाँ बड़े भाई। वो उसी का लड़का है और सैनिक स्कूल में पढ़ता है। छुट्टियों में यहाँ आता है। पर, साब, वोए सब मालुम है।”
“तुम बकते हो।”
“नई साब, मोये तो गोपाल ने बताओ हे। वो काये खों झूठ बोले हे। कच्छू मत पूछो साब, पैंसन के काजे...” उसने बुरा सा मुँह बनाया।
मनोहर की बात मुझे अच्छी नहीं लगी। मैंने कहा, “नहीं, ऐसी बात तो नहीं लगती। अब मैंने ही उसे कोई पैसा नहीं दिया और न उसने माँगा।” मैं जानता था कि यह सुनते ही वह एकदम चौंक जाएगा।
“पैसे ! वो तो मैं गोपाल को पहले ही पकड़ा आया था। दो सौ, खाने-पीने के और...” वह फिर उसी सहजता से बोला।
अब चौंकने की बारी मेरी थी। मेरी सोच को बड़ा धक्का लगा और मैं अनमना हो गया।
इस घटना को गुजरे एक माह होने को आया लेकिन शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो कि उसकी याद न आई हो। किसी बहाने सही, अब मेरी उत्सुकता इस बात को लेकर और बढ़ गई थी कि आखिर वह क्या कारण है कि जिसके लिए वह यह सब करती है ? मेरा लेखक मन गोपाल को तलाशने लगा, लेकिन वह भी न जाने कहाँ गायब हो गया था।
एक दिन मुझे याद आया कि उसने कहा था कि वह संडे के दिन गोपाल के रिक्शे में पिक्चर देखने आती है। मैं अगले संडे शाम का शो शुरू होने के आधे घंटे पहले वहाँ पहुँच गया। रिक्शा स्टैण्ड में गोपाल को ढूँढा, पर वह नहीं मिला। मन बहुत उद्विग्न हो रहा था कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करुँ। दिलो-दिमाग से उसका चेहरा हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। सोचा रूम मे जाकर तो और बोरियत होगी। स्टेशन का एक चक्कर लगाया जाय, शायद कुछ मन बहले। रेल्वे क्रॉसिंग के आगे जहाँ से शार्ट कट शुरू होता था, मैं मुड़ते-मुड़ते अचानक मेर रोड की ओर चल पड़ा। शायद यह मेरे दिल का चोर था, क्योंकि मेन रोड में उसका बँगला पड़ता था।
जब बँगला तीन चार क्वार्टर आगे रह गया तो जाने क्यों दिल की धड़कन तेज हो गयी और चाल धीमी। बँगला उस दिन की तरह आज भी अंधेरे में डूबा हुआ था और अंदर वाले कमरे से धीमी-धीमी रोशनी बाहर की ओर फिसल रही थी। अचानक मेरे पैर उस गेट के सामने रुके और यंत्रचलित सा हाथ घंटी बजाने को उठ गया। कुछ पलों में ही वो गहरे कत्थई सलवार सूट में खुले बाल लिए दरवाजे में हाजिर हो गयी।
मैंने मुसकरा कर नमस्ते की। जवाब में उसने बगैर किसी उत्साह के सिर्फ सिर हिला दिया, जिससे मेरा सारा जोश ठंडा हो गया।
“अभी मैं खाना बना रही हूँ, आप फिर कभी आइएगा।” उसने बड़े ठंडेपन से कहा और मेरे मुड़ते ही दरवाजा लगा लिया। मुझे लगा कि मैं एकदम नंगा हो गया हूँ। सोचा, जितनी जल्दी इस इलाके से निकल जाऊँ अच्छा रहे लेकिन पैर ऐसे भारी हो गये थे जैसे उन पर मनों बोझ हो। रास्ते में कोई रिक्शा नहीं मिला। किसी तरह कमरे में पहुँचा और बगैर कपड़े बदले बिस्तर पर लुढ़क गया। सुबह देर से आँख खुली। सिर भारी था। लेकिन नौ बजे की क्लास थी सो जल्दी-जल्दी तैयार हो गया। कॉलेज दूर न था। अतः पैदल ही जाता था। अभी होटल से कुछ दूर ही निकला होऊँगा कि पीछे से एक रिक्शा आकर बगल में रुक गया। देखा तो गोपाल था। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। जिसे ढूँढते-ढूँढते थक गया वह मेरे सामने स्वयं आ गया। मैं कुछ बोलने को ही था कि वही बोला –
“साब, एक मिनट सुनेंगे।”
“हाँ-हाँ, बोलो, मैं खुद तुम्हे ही खोज रहा था।”
“आप कल वहाँ गये थे ?”
“हां, क्यों ? तुम्हें...”
“आइंदा आप वहाँ नहीं जाएंगे, बगैर मेरे।”
“लेकिन...”
“लेकिन वेकिन कुछ नहीं। हमने के दई बस।” उसकी भृकुटि जरा टेढ़ी हो गयी थी।
वह दिन और आज का दिन अभी तक मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई कि आखिर वह क्या मजबूरी थी....।
समाधान मिला तो अगली कहानी में मिलेंगे।
- शांतिनाथ नगर, टाटीबंध
रायपुर, छत्तीसगढ़- 492 099
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