3/09/2006
आज की कविता-3
खुद को पक्षी समझा करो
जिसके आकाश का कोई अंत नहीं
खुद को फूल समझा करो
जिसकी सुवास की कोई सीमा नहीं
खुद को पृथ्वी समझा करो
जिसमें सहनशीलता का है अक्षय-कोष
खुद को सूरज समझा करो
जिसके शब्द-कोष में अँधरारा होता ही नहीं
मनुष्य !
तुम्हारे घुटने पेट ढंकने के लिये मुड़ने चाहियें
या प्रार्थना के लिये/यह भी समझा करो कभी
- विजय राठौर
जांजगीर, छत्तीसगढ़
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