3/28/2006

छत्तीसगढ़ की लोककथा










चींटी का डर
(मूल स्त्रोत- श्रीमती सिन्धु देवी)

कहते हैं - जब ब्रह्मा ने संसार की रचना की तो उन्होंने पशुओं के लिए जंगल भी बनाया । जंगल में सैकड़ों पशु-पक्षी निर्भय होकर रहते थे किन्तु छोटे-छोटे पशुओं जैसे खरगोश, वनमुर्गी,तीतर को सदैव हाथी के भारी-भरकम पाँवों का शिकार होना पड़ता । चींटियाँ तो चटनी बन जाती थीं । पक्षियों के घोंसले उजड़ जाते थे । कुल मिलाकर हाथी से लगभग सभी जानवर भयभीत थे और हाथी भी सब पर रौब जमाता फिरता था ।

एक बार हाथी जंगल से भूलकर गाँव में जा पहुँचा । उसने गाँव के किनारे देखा कि एक छोटे से बरगद के पेड़ में हरे-भरे नए पत्ते लगे हुए हैं ।

उस बरगद पर प्रतिदिन एक शिवभक्त जल चढ़ाता था और उसकी नियमित देखभाल करता था । पानी और शीतल छाँव के कारण उसकी जड़ में लाखों चींटियाँ सुख से रहती थीं । वे कभी भी शिवभक्त को नहीं काटतीं ।

उधर हाथी को तो जोरों की भूख लगी थी ऊपरसे अपनी ताकत का घमंड । उसने सूँड से लपेटकर पूरे पेड़ को ही उखाड़ लिया और हरी-हरी पत्तियाँ खाने लगा ।

इतने में शिवभक्त बरगद के पेड़ को देखने वहाँ आ पहुँचा । पेड़ की हालत देखकर वह रो पड़ा । उसने वहीं श्राप दिया, “तुझे अपनी शक्ति का घमंड है न । अब से संसार के सबसे छोटे जी- चींटी से तुझे डरना पड़ेगा । टूट पड़ो री चींटियाँ ।‘’

बस क्या था । चींटियाँ लाखों की संख्या में सूँड में घुसकर काटने लगीं । हाथी चीखते-चिल्लाते गिरते-पड़े जंगल की ओर भाग गया।

उसे आज भी सिर्फ चींटियों का भय सताता है । शायद इसीलिए वह धरती पर बिना सूँड से फूँक मारे बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाता ।

(इसके संग्रहकर्ता जयप्रकाश मानस हैं । यह लोककथा 'चींटीं का डर' नामक किताब से चयन किया गया है जिसे देश के प्रख्यात प्रकाशक ''राधाकृष्ण प्रकाशन'', नई दिल्ली से प्रकाशित की है)

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