3/30/2006

कुछ गीत कुछ कविताएँ

गीत

प्राण हो तुम

अधर पर तुमने
हिमालय धर लिया
और सब कुछ जानकर अनजान हो तुम

दिवस बीता और बीती कितनी सदियाँ
अश्रुओं से बही जाने कितनी नदियाँ
पीर का सागर समाया हृदय मेरे
आँधियाँ तूफान आई हैं घनेरे
पर हृदय पाषाण तेरा नहीं पिघला
फिर भी मेरी हो, मेरी पहचान हो तुम

भावनाओं का समुंदर कितना गहरा
और मावस लगाती दिन रात पहरा
क्यों रूला जातीं बसंती ये हवायें
हर तरफ ख़ामोश-सी लगती फ़िजायें
इक अज़ब तूफान साँसों में समाया
डोलती रहती है पातों-सी ये काया
भूलना मुमकिन नहीं है इस जनम में
तुम ही मेरी हो, मेरी ही प्राण हो तुम

जब तेरे नयनों की भाषा तौल लाया
मेरे मन का गीत कुछ ना बोल पाया
तब ग़ज़ल इक शे’र बनकर रह गई
और मेरा कवि ये सब सह गई
दिल की हर तनहाइयों में तेरी छाया
श्वास में निःश्वास में बस तुझे पाया
तू भले माने न माने ये अलग है
तुम ही मेरी उदय औ अवसान हो तुम

क्या पता ये जीव कब तक जी सकेगा
विरह का ये घूँट कब तक पी सकेगा
मिलन की घड़ियाँ पुनः आये ना आये
और दिल ये बात सुन पाये न पाये
घर घड़ी तूफान भी सहता रहूँगा
सौ समुन्दर पार हो बहता रहूँगा
पर किनारा मिलेगा, यह ध्रुव अटल है
तुम ही मेरी नाव हो, जलयान हो तुम

डॉ. नथमल झँवर
झँवर निवास
मेन रोड, सिमगा
जिला-रायपुर, छत्तीसगढ़
लघु कविताएँ
एक

पिंजडे का शेर
मजबूर है
कमजोर नहीं

दो

मुफ़लिस है
आशिक तेरा
बेईमान नहीं

तीन

दोस्ती का हाथ
बढ़ाता है भी
आतंक फैलाता भी

पी. अशोक शर्मा
एन-4, दौलत एस्टेट, डंगनिया
रायपुर, छत्तीसगढ़

गीत
कठपुतलियो

कठपुतलियो
नाचती हो
जाने कब नाचती हुई
गिर पडती हो
कठपुतलियो, हँसती हो
हँसती-हँसती हो
लड़ पड़ती हो
दुश्मन बन जाती हो
होती हुई भी दोस्त

कठपुतलियों
रोती हुई भी
निःशब्द हो जाती हो
मचाती कोलाहल
कहाँ खो जाती हो
अधरों की हँसी
अपनी आवाज
परदे के पीछे किसे दे आती हो
नहीं करके कुछ भी
सब कुछ करती हो
करके भी सब कुछ
श्रेय किसी और को दे आती हो
सदा आतंकित रहतीं
परदे के पीछे क्या-क्या सहती हो
कुछ क्षण दिखतीं
अदृश्य हो जाती हो

परदे के पीछे अपनी डोर
किसे सौंप आतीं हो
तुम्हारे न होने पर भी
तुम बच रहतीं
हँसती-रुलाती
फुसलातीं-डराती हो

तुम्हारे चेहरों पर हावी
चेहरों को
सामने क्यों नहीं लातीं हो
कठपुतलियो

बस्तर की बालाएँ

एक

दिन भर चुनतीं
चार और महुआ
सिर का आँचल
बचातीं दांतो तले
खिलखिलाती बेपरवाह
जंगल से सांझ ढले
बेख़ौफ
घर लौट रही हैं

दो

सुबह-सुबह
बढ़ रहीं शहर की ओर
सिकुड़ती मुस्कान
चेहरे हलाकान
छा रहा आतंक
किसी अनजाने हिंस्त्र का
जाती हुई शहर भरी दोपहर
डर रही हैं
डॉ. मृणालिका ओझा
चंगोरा भाठा, रायपुर

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