3/13/2006
रम्य रचना(ललित निबंध)
ज़रा आंख में भर लो पानी
खगेंद्र ठाकुर
जब-जब हमारे देश की सीमा पर संकट दिखायी पड़ता है, तब-तब हमारे देश की आकाशवाणी और दूरदर्शन से दिन में कई-कई बार सुनाई पड़ता है-'ए लोगो, ज़रा आंख में भर लो पानी/जो शहीद हुए हैं उनकी याद करो कुर्बानी।` हमारे देश में ऐसे ही कभी-कभी देश-भक्ति का ज्वार आता है और उस-ज्वार की जानकारी देशवासियों को आकाशवाणी से होती है। दूरदर्शन पर उसके दर्शन सैनिकों को बहादुराना लड़ाई और सैनिकों की शहादत के रूप में, शहीद सैनिकों के खून और लाशों में होते हैं। यह सब कुछ सीमा पर होता है। देश के भीतर भी देश भक्ति दिखायी पड़ती है बढ़ती हुई मंहगाई और बेरोजगारी को बर्दाश्त करने के लिए, युद्ध के नाम पर टैक्स में वृद्धि को सहर्ष स्वीकार कर लेने के लिए तैयार रहने में और सब से अधिक सरकार की आलोचना बन्द करके उसकी प्रशंसा करते रहने में। देशभक्ति के ज्वार के दिनों में भुखमरी, भ्रष्टाचार या ऐसे अन्य दुर्गुणों की चर्चा करना देशद्रोह माना जा सकता है। यदि चुपचाप आकाशवाणी और दूरदर्शन पर बैठे रहे तो यह देशभक्ति में शुमार होगा। ध्यान में रखिए कि देशभक्ति की कोई धरतीवाणी नहीं होती और उसका निकट दर्शन भी नहीं होता। ठीक ही है, भगवद्भक्ति या ईश्वर भक्ति ने आधुनिक युग में जन-कार्रवाइयों के असर से देशभक्ति का रूप ले लिया तो क्या? उसमें जब भक्ति हो, तो उसे ऊपर से ही आना चाहिए। और फिर यह भी है कि भक्ति दर्शन करने की चीज़ नहीं है, दूर से भी नहीं। भक्ति तो प्रकट की जाती है, आत्मसमर्पण के जरिये दर्शन पाने के लिए- आराध्य के दर्शन। भक्ति अनुभव कराने की चीज हैं, देखने-दिखाने की नहीं। दिखाई पड़ जाने पर भक्ति का प्रभाव गायब हो जाने का खतरा रहता है।दूसरों की कुर्बानी को याद करना और अपनी आंखों में पानी भर लेना, दोनों ही अच्छे काम हैं। कुर्बानी दूसरों की और आंख अपनी, इसमें क्या हर्ज है। दूसरों का माल हो और अपना घर, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। ऐसी देशभक्ति के लिए तो लोग हमेशा तैयार रहते हैं। इसी तरह सोचते हुए मैं यह भी सोचता हूं कि जब देश पर हमला होता है और हमारे सैनिक देश की रक्षा के लिए जी-जान लगाकर जूझते रहते हैं, अपनी जान तक उत्सर्ग कर देते हैं, उज्जवल धवल बर्फ की श्रेणियों का अपने लाल-लाल रँत से शृंगार करने लगते हैं, तभी क्यों कुर्बानी को याद करने और आंख में पानी भरने की भावना का प्रसार किया जाता है? अपने महान देश को अंग्रेजी साम्राज्य के खूंखार चंगुल से मुँत करने के लिए हमारी पूर्वज पीढ़ियों के क्रान्तिकारी और देशभक्त स्वतंत्रतासेनानियों ने लगातार अपने को कुर्बान किया। उन दिनों कुर्बानी का एक और रूप था, जिसे एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी ने एकदम छोटी कविता 'पुष्प की अभिलाषा` में व्यक्त किया-
चाह नहीं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं।
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊं।।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊं।
चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूं भाग्य पर इठलाऊं।।
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना फेंक।
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।।
जरा गौर कीजिए माखनलालजी उस देशभक्ति को व्यक्त करते हैं, जिसमें 'कोई चाह नहीं` और यदि चाह है तो यही कि मातृभूमि पर शीश चढ़ाने के लिए जानेवालों की चरण-धूलि मिल जाए। अपनी इच्छाओं को चाहकर मारना कितना कठिन है। मातृभूमि पर शीश चढ़ानेवालों या अपनी चाह को मार देनेवालों के ही प्रताप का फल है, जिसे आज हमारे समय के लोग खा रहे हैं और एकदम बेपानी होकर खा रहे हैं। क्या इसीलिए वे शहीदों की कुर्बानी को याद करने और आंख में पानी भर लेने के गीत का रिकार्ड बजाते रहते हैं? ये जो शहीदों की कुर्बानी का फल खाने वाले लोग हुए, वे कुर्बान होने वालों के संगी-साथी होते थे या हैं, लेकिन वे फल खाने में इस कदर डूबे हुए रहे कि कुर्बानी को याद करना उन्हें विवाह के समय वैराग्य शतक सुनाने जैसा लगता है। कभी-कभी कोई उन्हें भी कुर्बानी याद करने का उपदेश दे देता है, तो वे उस पर उसी तरह गुर्राते हैं, जैसे कुत्ता अपने आगे से आहार छीने जाने पर गुर्राता है। हकीकत तो यह है कि ये फलभक्षी लोग शहीदों पर बहुत प्रसन्न हैं, क्योंकि वे शहीद हो कर चले गये, फल भोगने के लिए नहीं रहे। फलभक्षियों ने जगह-जगह शहीदों की मूर्तियां लगा दी हैं और कहते रहते हैं- वे महान थे, उन्होंने अपना उत्सर्ग कर दिया बलि बेदी पर। वे फल खाने के लिए नहीं रहे, जैसे वृक्ष अपना फल नहीं खाते। वे नदी की तरह महान थे, जो अपना जल नहीं पीती। वे साधु थे 'परमार्थ` के लिए उन्होंने शरीर-धारण किया था। वे पूरा देश हमारे लिए छोड़ गये। वे देवता थे, जो भक्तों और पुजारियों के द्वारा अर्पित किया गया चढ़ौआ नहीं खाते, सब कुछ भक्त और पुजारी भोगते हैं। भाइयो और बहनो। आप उनकी कुर्बानी याद करें, जन्मदिन या शहादत दिवस पर उनकी मूर्तियों मूतयों पर फूल चढ़ाएं। उनकी आत्मा को शान्ति मिलेगी। फर्क पर ध्यान दीजिए, शहीदों की आत्मा को शान्ति मिलती है फूल चढ़ाये जाने से या कुर्बानी याद करने से और इधर इनका पेट भरेगा फल भोगने से, तब इनकी आत्मा को शान्ति मिलेगी।जब लता मंगेशकर की दर्द भरी आवाज़ में सुनता हूं- ज़रा आंख में भर लो पानी, तो मैं सोचने लगता हूं कि जिनकी आंख में पानी भरने को कहा जाता है, उनकी आंख का पानी क्या हो गया? कहां चला गया? उनकी आंख का पानी कहीं गिर गया, तो यह दुर्घटना कैसे हो गयी! मध्यकाल के नामी कवि और अकबरी दरबार के एक नवरत्न रहीम ने हिदायत दी थी-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष चून।।
ठीक से ध्यान दीजिए, रहीम ने पानी भरने की बात नहीं पानी रखने की बात कही है। दोनों में बड़ा फर्क है। पानी नहीं है तो भर लीजिए। पानी है तो बचाये रखिए। लगता है रहीम के समय में पानी का अभाव नहीं हुआ था, आदमी के लिए या मोती के लिए या चूना के लिए। असल समस्या तो आदमी के लिए है। शहीदों की आंखों में पानी और नसों में खून उबलता रहता था। देश आज़ाद हुआ और पानी की किल्लत होने लगी। कहां चला गया पानी? प्रसिद्ध लेखक हरिशंकर परसाई ने इस पर गौर किया था। उन्होंने बताया है कि हमारे मंत्रीगण देश का पानी अमेरिका जाकर बेच आये। अब उनके पास पानी कहां से आएगा! ज़माना तेजी से आगे बढ़ रहा है। अब हमारे मंत्रीगण या अधिकारीगण विदेश जाते हैं, खास करके अमेरिका तो वहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिकों के सामने होते ही, उनका पानी अपने आप गिर जाता है, जैसे पुरइन के पत्तों पर से पानी लु़ढक जाता है। इसलिए अब बेचने की नौबत नहीं आती। उनका पानी अमेरिका या जापान या जर्मनी या फ्रांस के बाज़ार में वैसे ही गिर जाता है, जैसे एक फिल्मी गीत में नायिका का झुमका गिर जाता है, बरेली के बाज़ार में। जो चीज बाज़ार में गिर गयी, वह फिर कहां से मिलेगी? दिक्कत यह है कि देश की रक्षा के लिए हमारे सैनिक और समाज को बदलने के लिए हमारे क्रन्तिकारी आज भी कुर्बानी दे रहे हैं, खून बहा रहे हैं और देशभक्तों एवं क्रांतिकारियों की आंखें नम हो जाती हैं, उनको आंख में पानी भरना नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रसंग में पानी की चर्चा होने लगती है, तो हमारे राजकीय नेतागण या मौसमी कविगण कहने लगते हैं- जरा आंख में भर लो पानी।सोचिए जरा, आंख में कहीं पानी भरा जा सकता है। इस कवि की भावना के साथ मैं पूरे तौर पर हूं, एकदम शतप्रतिशत। लेकिन मैं अपने तार्किक दिमाग का क्या करूं। आंख कोई कटोरा, घड़ा या बाल्टी तो है नहीं कि कोई उसमें पानी भर ले। भरने की क्रिया बाहर से होती है। देखा होगा आपने कि शहरों में नल के पास पानी आने के समय के पहले से लोग बर्तन ले कर पानी भरने के लिए कतार लगाये रहते हैं। इस तरह से आंख में तो पानी भरा नहीं जा सकता। लेकिन, इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि आंख में जो पानी होता है, वह भीतर ही रहता है बाहर कहीं नहीं मिलता, हाट-बाज़ार कहीं नहीं। वह पानी सरे बाज़ार गिर जा सकता है, लेकिन बाज़ार में पाया नहीं जा सकता। कबीर ने कहा था न- 'प्रेम न बाड़ी उपजै प्रेम न हाट बिकाय।` इस प्रेम का आंख के पानी से आन्तरिक लगाव है। यह भी न बाड़ी में उपजाया जा सकता है और न बाज़ार में खरीदा जा सकता है।आंख में पानी आ जाता है भीतर से, प्रेरणा भले ही बाहर में हो। भीतर में पानी कहां रहता है। कहना बड़ा मुश्किल है। हो सकता है, दिल में रहता है। और यह दिल कहां रहता है? यह बताना तो और मुश्किल है।
आंख के पानी को आंसू कहा जाता है। हमारे अत्यन्त भावुक कवि जयशंकर प्रसाद ने आंसू पर एक पुस्तक ही लिख डाली। आंसू के बारे में वे कहते हैं -
जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आंसू बन करवह आज बरसने आयी।
जीवन की कठिन परिस्थिति ( दुर्दिन) में मस्तिष्क में बसी हुई पीड़ा आंख से बरसने लगती है, जैसे बरसात (दुर्दिन) में बादल। इसके लिए आदमी में आदमीयत चाहिए, दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा बना लेने की भावना चाहिए। आदमी की यह पीड़ा उसकी आंख में यह पानी आप दुनिया भर में कहीं भी देख सकते हैं और इतिहास में झांक सकें तो वहां भी देख सकते हैं। आंख का यह पानी बहुत जमाने से आदिम युग से ही भूमंडलीकृत है। सारी दुनिया में दिल का दर्द और आंख का पानी एक जैसा होता है। आज के पूंजीवादी भूमंडलीकरण और बाज़ारतंत्र से उसका कोई ताल्लुक नहीं है। यही एक प्रसंग है, जहां बाज़ार-तंत्र भी निरुपाय हो जाता है। इसलिए हमें इत्मीनान हैं कि आंख के पानी का पेटेंट भी नहीं किया जा सकता। अपने देश को उनका पेटेंट बनने से रोकने का एक मात्र उपाय यह है कि हम आंख के पानी की रक्षा करें, उसे बाज़ार में गिरने न दें।नेताओं को आंख में पानी बाहर से भरते भी देखा गया है।
हमारे यहां एक बड़े नामी नेता थे। बड़े प्रभावशाली वक्ता भी थे वे। बातों और हाथों के अलावा एक और उपाय करते थे वे लोगों को प्रभावित करने का। जनता के दु:ख-दर्द का बखान करते-करते और जनता के प्रति सहानुभूति उड़ेलते-उड़ेलते व रोने-रोने को हो जाते थे। आवाज़ रुआंसी हो जाती थी, लेकिन आंख में पानी का कहीं पता नहीं। आंख में आंसू नहीं तो दिल में दर्द कैसा! इस बात को नेताजी भी जानते थे। तो वे क्या करते कि रुआंसे स्वर में बोलते-बोलते जेब से रुमाल निकालकर पोंछते और आंख पोंछते-पोंछते आंख से धारा फूट पड़ती थी। लोग उनके प्रति द्रवित हो जाते थे। बहुत बाद में यह भेद खुला कि नेताजी रुमाल में पिपरमिंट की टिकिया रखते थे और पोंछने के बहाने आंख में पिपरमिंट की टिकिया रगड़ देते थे और आंख से निकली आंसू की धारा फूट पड़ती थी। इस तरह वे आंख में पानी भरते थे। लेकिन यह भेद जब प्रचारित हो गया तो उनको सुननेवालों की संख्या लगातार घटती गयी। अत: पिपरमेंट के जोर से आंख में पानी भरना कारगर नहीं होता है। बात यह है कि आंख में पानी रखना या भरना ही मान लें, तो वह भी आसान नहीं होता।
आंख का पानी विलक्षण होता है। यह किसी दूसरे पानी से नहीं मिलता, चाहे कुएं का पानी हो या तालाब का या नदी का। वह बरसात के पानी और झरने के पानी से भी भिन्न होता है। आंख का पानी आंसू कहलाता है न! यह पानी दूसरे के दर्द को अपना दर्द समझने से स्वत: आ जाता है। कवियों ने इस पानी को बहुत महत्व दिया है, बल्कि हिन्दी के एक बड़े कवि सुमित्रानन्दन पंत ने इसे कविता का स्रोत ही मान लिया है। वे कहते हैं-
वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।।
आप देख रहे हैं पंतजी आदि कवि वाल्मीकि को याद कर रहे हैं। आदमी की क्या बात वाल्मीकि तो पक्षी की पीड़ा से द्रवित हो गये और कविता फूट पड़ी। भारत की पहली कविता। फिर वे महान कवि हो गये रामायण लिखकर। जाहिर है आंख में पानी भरा नहीं जाता, दूसरों की आह, दूसरों के दर्द को अपनी आह, अपना दर्द बना लेने से आंख में पानी आ जाता है। यह पानी कहीं से लाया नहीं जाता। उसका बहना बहुत असरदार होता है। मौलाना हसरत मोहानी कहते हैं न-'वो चुपके-चुपके आंसू बहाना, याद है।` चुपके-चुपके आंसू बहाया, फिर भी याद। इसे भुलाया नहीं जा सकता। असल में आंख का पानी बड़ा संक्रामक होता है। इसका असर अनायास फैलता है एक दिल से दूसरों में। इसीलिए समाज के, खासकर के राजनीति प्रभुताशील लोग इस पानी को पसंद नहीं करते, उसका फैलना तो हरगिज नहीं। आंसू में आग से भी ज्यादा जलन होती है। इसलिए प्रभु वर्ग इसे खतरनाक मानता है। ज़माना तो जनतंत्र का है, लेकिन आज जनता शासन करने वाले के अनुसार ही चलती है। शासन करने वाला बड़ा मोहक होता है, वह तरह-तरह से जनता को मोहते रहता है। वह कभी नहीं चाहता है कि आंखों से दर्द उमड़े और वह कविता बन जाए और जनता उसको ले चले। यह सब जनतंत्र और शासक दोनों के लिए अशुभ है। यद्यपि शासन करनेवाला वैज्ञानिक नहीं होता, फिर भी आंसू के प्रति शासन चलाने वाले और एक रसायनशास्त्री का रुख मिलता-जुलता है। बात यह है कि एक रसायनशास्त्री का अपनी पत्नी से एक दिन झगड़ा हो गया। उन्होंने पत्नी को बेतरह डांट दिया। बेचारी रोने लगी। आंख से आंसू बहने लगे और यह तय था कि वे आह के आंसू थे, पिपरमिंट के नहीं। लेकिन रसायनशास्त्री द्रवित क्या होते, उलटे कहने लगे- बस-बस रहने दो यह सब, मैं जानता हूं, तुम्हारी आंख से बहते पानी में क्या है, कुछ हाइड्रोजन, कुछ आक्सीजन, कुछ एसिड और क्या। उन्होंने आह को अपने वैज्ञानिक सूत्र से सुखा दिया। ऐसे वैज्ञानिक शासकों को बहुत पसंद होते हैं। शायद इसीलिए फैज अहमद फैज ने कहा होगा-
ज़िन्दगी को भी मुंह दिखाना है।
रो चुके तेरे अश्क बार बहोत।।
अब बंद करो रोना । ज़िंदगी का मुकाबला रो-रोकर नहीं करना है।समझा जा सकता है कि आज के वैज्ञानिक-तकनीकी क्रन्ति के दौर में आह को असर करने का मौका नहीं देना, उसे सूखा देना बहुत जरूरी है। ऐसा करके ही सरकार जनता को पीट सकती है और सार्वजनिक एवं राष्ट्रीय सम्पत्ति को अत्यन्त आत्मीयतापूर्वक निजी बना सकती है। दफ्तर में बैठे-बैठे कागज पर सड़के बना सकती है, नहर खुदवा सकती है। कागज पर ही खुशहाली और तरक्की का अम्बार लगा सकती है। कागज पर ही वह एक नया राष्ट्र बनाकर रख दे सकती है। अपनी और जनता की आंखों का पानी सुखाकर ही आज के जमाने में सरकार चलाने वाले चमत्कारी काम कर सकते हैं। उनके अपने चमत्कार होते हैं- जैसे दिन दहाड़े घोटाले करके रकम ऐसी जगह रख देना किसी सी.बी.आई क्या, ईश्वर भी न जान सके? जेल जा कर बाहर निकल आना, जनता भूख की बात बोले तो दूरदर्शन पर सारी दुनिया को अनाज से भरा भंडार दिखा देना, सुखाड़ की शिकायत करने पर पुन: दूरदर्शन पर उमड़ता हुआ पानी दिखा देना, चुनाव हारकर भी जीत जाना आदि-आदि। इसी तरह के चमत्कार सेठ वर्ग भी दिखाता है। जब हमारे सैनिक सीमा पर कुर्बान हो रहे होते हैं, तब हमारे पूंजीपति डालडा में गाय की चर्बी मिलाकर मुनाफा कमाते हैं और गोरक्षा-आन्दोलन को चंदा भी देते हैं। उसी समय वे गाय या भैंस के दूध के नाम पर सिन्थेटिक दूध बेचते हैं। असली दवा के नाम पर नकली दवा बेचते हैं। किरासन तेल बाज़ार से गायब कर के झोंपड़ियों की ढिबरी भी बुझा देते हैं। शहीद सैनिकों की लाश उसके गांव भेजने के लिए अपने देश में पचास हजार रुपये से भी कम में मिलने वाला ताबूत अमेरिका से डेढ़ लाख रुपये से खरीदते हैं और जाने क्या-क्या करते हैं। और आपको बताऊं, वे जब यह सब चमत्कारी काम कर रहे होते हैं, उसी समय आकाशवाणी और दूरदर्शन से यह रिकार्ड भी बजवाते रहते हैं-
ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी।
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी।।
कौन कह सकता है कि वे देशभक्त नहीं हैं। उनके पास धन है तो सब कुछ है। धन से सब मिल जाता है। उनके पास सब कुछ है, एक आदमीयत के सिवा। गोकुल और ब्रज की गोपियों की आंखों में कृष्ण-प्रेम का पानी था, लोकलाज का नहीं। हमारे देश के धनाढ्य नागरिकों की आंखों में धन-प्रेम का पानी है, लोक-लाज का नहीं। लोकलाज का पानी वे अपनी आंख में रखेंगे, तो नकली सोने पर असली का पानी चढ़ाकर कैसे बेचेंगे? नकली जनतंत्र पर असली जनतंत्र का पानी चढ़ाकर कैसे राज करेंगे! यह पानी वे कहां से लाते हैं? जनतंत्र को जनता की नजर में चमकाने के लिए वे जातिवाद और सम्प्रदायवाद का लेप चढ़ाते हैं और जनता उसे देखकर चमत्कृत हो जाती है। चुनाव के समय हर जाति के आदमी की आंख में अपनी जाति का राज कायम करने की अद्भुत चमक दिखायी पड़ती है। सम्प्रदायवादी चमक तो और भी तीव्र होती है। उसी चमक की रोशनी में भारत-उदय का रथ निकल पड़ता है, जैसे कभी-कभी फिल्म में सूर्य का सात घोड़ोंवाला रथ उदित होता दिखायी पड़ता है। कवियों की आंखों में ऐसी रचनात्मक और चमत्कारी चमक नहीं होती। और इधर उपर्युक्त चमत्कारी काम करने वालों की आंखों में आह का पानी नहीं होता। आह से तो न मुनाफा कमाया जा सकता है, न चुनाव जीता जा सकता है। वे बिना पानी के संवेदना और विवेक पर भाषण दे सकते हैं, लेकिन खुद संवेदना और विवेक नहीं अपना सकते। ऐसे लोगों को वे इस दुनिया से गायब भी कर देते हैं और गीत गाने लगते हैं- ऐ मेरे वतन के लोगो...। लेकिन एक बात बताऊं। मैंने देखा है कि वतन के लोगों की आंखों में तो पानी है, आह का पानी है। वे ही लोग शहीदों के मजारों पर मेला लगाते हैं और रिकार्ड बजाने वाले शहीद स्मारक के आस-पास निषेधाज्ञा लगाकर जनता को वहां जाने से रोकते हैं। वे चाहते हैं कि जनता की आंखों में सचमुच पानी न उमड़े। वे चाहते हैं कि सिर्फ रिकार्ड बजता रहे और लोग समझते रहें कि आंख में पानी होना जरूरी है, सचमुच का पानी उनकी आंखों में न आए।
(खगेन्द्र ठाकुर : जन्म-९ सितम्बर १९३७, मालिनी (झारखंड)। हिन्दी के सुपरिचित समीक्षक आलोचक। भागलपुर विश्वविद्यालय के अंतर्गत मुरारका कॉलेज, सुल्तानगंज से यूनिवर्सिटी प्रोफेसर के पद से स्वेच्छा सेवा-निवृत्त। छायावादी काव्य भाषा का विवेचनात्मक अनुशीलन, आलोचना के बहाने, कविता का वर्तमान (आलोचना)। अनेक पुस्तकों और पत्रिकाओं का संपादन।संपर्क : क्षितिज, जनशक्ति कॉलोनी, पथ सं-२४, राजीव नगर, पटना-८०० ०२४। उनकी यह रचना वागर्थ में प्रकाशित हो चुकी है । संपादक)
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