3/30/2006

राजेश गनोदवाले की कविताएँ

रचने का अलग से कोई समय नहीं होगा

अगर कोई समय होगा रचने का
तो वह हमेशा होगा
अलग से रचने का कोई समय नहीं होगा
हर समय रचने का बन सकता है
समय रचनात्मक नहीं होगा
रचने और बचने के बीच भी एक ऐसा समय होगा
जो रचने में शामिल होगा

रचने के समय में आप कुछ भी
कर सकते हैं

जो रचने लायक नहीं है, या नहीं था
उसे आप रच सकते हैं

आप इस तरह रचें
कि
रचा हुआ हमेशा बचे

समय इस तरह ख़र्च हो
कि रचना हमेशा फर्ज़ हो

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जो उदाहरण होने से बचा है

जो उदाहरण होने से बचा है
वह नया कहलाएगा
बिलकुल नया-एकदम नया
इतना
जितना नया कहते हैं
साथ में वहाँ तक
जहाँ तक उसे नया कहा जा सकता है
कोई वस्तु बनते-बनते बिगड़ जाए
तो बिगड़ना नया है
एकदम नया, जो उदाहरण नहीं है
धुएं का आकार हरदम नया है
धरती जहाँ तक भीगती है लहर से
वह लहर हर बार नई होगी
स्कूल से लौटना बच्चों का
हर बार नया है
किसी राग का सम की ओर बढ़ना
हर बार नया हो सकता है
नया, हर बार नया होगा
अनगिनत बार नया हो सकता है
जो उदाहररण नहीं है
जो पुराना नहीं है
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यह समय बहुत टूटता है


बहुत कम होने को होता
यह समय अलग है
कि पूरा नहीं है
बहुत जितना था
बहुत अधिक लेता है यह समय
कुछ समय के लिए
जितने में वह
बहुत अधिक समय दे सकता है
उतने में वह बहुत कम दे पाता है
एक बोरा चावल के लिए
ढ़ाई बोरा धान चला जाता है
यह समय बहुत टूटता है
उतने में
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संगतकार

प्रायः मुखड़े पर
जब सुन्दर-सी तिहाई ले ‘सम’ पर पहुँचता है संगतकार
तब हमें वह नज़र आता है

जब अपने वादन से
बंदिश की खूबसूरती बढा रहा होता है
‘डग्गे’ की गमक और ‘चॉटी’ की मिठास
कानों में जब रस घोर रही हो

हम संगतकार को तब-तब याद करते हैं
जब सुनना हो कोई पसंद का गीत
या फिर बात हो लग्गी-लड़ियों की

हमें संगतकार तब नही दिखता
जब उसकी बूढ़ी और काँपती उंगलियाँ
मंच पर गायक को संभाले रहती हैं

हम संगतकार को तब भी भूल जाते हैं
जब वह युवा गायकों के घर
घण्टों बैठकर उन्हें अपना अनुभव बाँटते रहता है

हमें संगतकार तब भी याद नहीं आता
जब गायक का तानपूरा पकड़
उसे मंच पर आना पड़ जाता है

हम संगतकार को तब भी कहाँ याद करते हैं
जब गायक भीड़ के मध्य
अपनी प्रशंसा में खोया रहता है
तब तो और भी नहीं
जब उम्र उसे थकाकर चूर कर देती है
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आने का सपना

मैं हर काम करूँगा
हर जरूरतमंदो के काम मैं आउँगा
‘मै आऊँगा’
इस तरह नहीं आऊँगा
‘आ गया हूँ’
उस तरह आऊँगा
आने से पहले
और जाने के बाद भी आना चाहूँगा
आने का यह सपना में
इस तरह देखता हूँ
कि उसे हर कोई देख ले
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राजेश गनोदवाले
कला समीक्षक, दैनिक नवभारत
रायपुर, छत्तीसगढ

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