3/08/2006
भाई साहब - गिरीश पंकज
कहानी
वह मुझे गेटविक एयरपोर्ट में मिली थी। हम दोनों को पोर्ट ऑफ स्पेन के लिए उड़ान भरनी थी। सुनीता ने मुझे देखा तो अपनी ओर से हाथ बढ़ाते हुए अपना परिचय दिया। वह अँगरेजी बोल रही थी, लेकिन बीच में कुछ शब्द हिंदी के भी निकल रहे थे।
उसने अपना नाम सुनीता बताया था। वह भारतीय मूल की युवती थी। उसके पूर्वज डेढ़ सौ साल पहले गिरमिटिया मजदूर बन कर दक्षिण अमरीकी देशों में भटकते रहे और अब त्रिनिडाड मे रहते हैं। सुनीता के चाचा सूरीनाम में बस गए हैं।
“आप भारत से आ रहे हैं ?”
“जी, और आप ?” मैं सुखद आश्चर्य के साथ लड़की को देख रहा था, “आपकी तारीफ?”
“मेरा नाम सुनीता राम है। मैं त्रिनिडाड में रहती हूँ। दिवाली नगर के पास और आप ?”
“मैं महेश हूँ। दिल्ली में रहता हूँ। त्रिनिडाड जा रहा हूँ एक कवि सम्मेलन में।”
“ओह इट मीन्स यू आर ए पोएट। अच्छा रहेगा आपके साथ दस घंटे का सफर मजे से काट जाएगा ?” “काट जाएगा नहीं, कट जाएगा। बीत जाएगा ?”
“ओह सॉरी, मेरी हिंदी वीक है। थोरा-थोरा समझती हूँ। अभी सीख रही हूँ। ट्राई करती हूँ लेकिन देयर इज नो एनी एटमॉस्फियर इन त्रिनिडाड। मजबूरी में इंग्लिश बोलना पड़ता है।”
“आप जितनी अच्छी हिंदी बोल रही हैं, उतनी अच्छी हिंदी तो हमारे यहां हिंदी में एम.ए. करने वाले लोग भी नहीं बोलते।”
बात करते-करते गेटविक एयरपोर्ट आ पहुँचे। चेक इन किया और ड्यूटी फ्री शॉप के सामने पहुँच कर खड़े हो गए। दो कॉफी का ऑर्डर सुनीता ने दिया। दो पौंड भी उसी ने पटाए। कॉफी पीते-पीते मैंने गौर से देखा, सुनीता कहीं से भी वेस्ट इंडियन नहीं लग रही थी। लगती भी कैसे ? है तो भारतीय मूल की। थोड़ी सी साँवली है। लेकिन नाक-नक्श आकर्षित करने वाले हैं। सुनीता मुझे देखकर मुसकरा रही थी। फिर बोली, “क्या देख रहे हैं ? शायद सोच रहे होंगे कि किस ब्लैक-गर्ल से पाला पड़ गया। यहाँ चारों तरफ गोरे-गोरे चहरे नज़र आ रहे हैं।”
मैंने कहा – “आप ब्लैक गर्ल नहीं, ब्लैक ब्यूटी हैं। हमारे यहाँ आप जैसी कोई लड़की दिख जाए तो लोग पागल हो जाएं।”
सुनीता इतनी भी खूबसूरत नहीं थी कि मुझे इतनी बड़ी बात बोलनी पड़े। लेकिन तारीफ से वह और जीवंत बनी रहती। तारीफ से ऊर्जा मिलती है। ज्यादातर तारीफें झूठी होती हैं। बढ़ा-चढ़ाकर की जाती है। सामने वाला भी गलतफ़हमी में जीना पसंद करता है। यह भी जीवन जीने की अपनी शैली है।
“सुनीता जी, अपने बारे में तो कुछ बताइए। क्या कर रही हैं ? घर में कौन-कौन हैं?”
“मैं लंदन में एमबीए कर रही हूँ। पिता की खेती-बाड़ी है। एक फैक्ट्री है। माँ हाउस वाइफ है। भाई सूरीनाम में डॉक्टर है।एक छोटी सिस्टर है। अभी पढ़ रही है।”
“अच्छा है। छोटा परिवार सुखी परिवार।”
“आप अपने बारे में भी तो कुछ बताइए।”
“मैं... क्या बताऊँ। बैंक में हिंदी अधिकारी हूँ। शादीशुदा हूँ। दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। दिल्ली के बसंतकुंज के फ्लैट में माता-पिता साथ रहते हैं। पत्नी डीडीए में अधिकारी है।”
“मतलब आपका भी छोटा परिवार, सुखी परिवार ?”
मैंने देखा, अब सुनीता के चेहरे पर हल्की-सी उदासी नज़र आने लगी थी। और वह उदासी छिपाने के लिए रह-रहकर मुसकराने की कोशिश कर रही थी।
“क्यों क्या बात है, अचानक फूल सा चेहरा उदास क्यों नज़र आने लगा है ?”
“ऐसी कोई बात नहीं, बस घर की याद आ रही है, इसलिए...”
“मुझे लगता है, कुछ और बात है, तुम कुछ छिपा रही हो ? सच-सच बताओ, तुम्हें मेरी कसम !”
इतना बोलकर मैंने सुनीता का हाथ पकड़ लिया। बस उसकी आँखें भर आईं।
“एक बार फिर मेरा सपना टूट गया, इसलिए उदास हो गयी हूँ।”
“कैसा सपना ?”
“सच बोल दूँ ?” सुनीता ने मेरी ओर एकटक निहारते हुए कहा, “मैं चाहती हूँ कि किसी इंडियन लड़के से शादी करूँ और इंडिया में ही कहीं बस जाऊँ। मेरे पूर्वज बिहार से यहाँ आए थे। बिहार का भी कोई लड़का मिल जाता। बिहार का न सही, भारत का हो, बस। लेकिन लगता है, यह इच्छा अधूरी रह जाएगी। आपको देखकर सोचा था, आप बेचलर होंगे। लेकिन...”
मैंने मजाक करने की गरज से यूँ ही कह दिया – “अगर आप कहें तो तलाक ले लूँ ? सोच लो ?”
मेरी बात सुनकर सुनीता उदास चेहरा लिये हँस पड़ी, “ना बाबा ना ! ऐसा सोचना भी पाप है। अपनी खुशियों के लिए दूसरे का घर उजाड़ना ठीक नहीं है। भले ही मैं मॉडर्न सोसाइटी में रहती हूँ। लेकिन मुझे अपनी जड़ें पता है। देश छोड़ दिया तो क्या, हमने अपनी संस्कृति तो नहीं छोड़ी है। हमारे परदादा अपने साथ रामचरित मानस लेकर यहाँ आए थे। मैंने उसे पढ़ा तो नहीं है, लेकिन उसकी चर्चा सुनती रहती हूँ। वह कितना ग्रेट एपिक है। मैं इंडिया के बारे में सुनती रहती हूँ। सीता, सावित्री, अनुसूइया, द्रौपदी, रानी दुर्गा एक से एक करेक्टर.....देवियाँ। ऐसे महान देश को याद करती हूँ तो मन करता है इंडिया में ही बसूँ। इसीलिए सोचती हूँ कि इंडियन लड़के से मैरिज हो जाए, लेकिन हमारा कल्चर यह नहीं सिखाता कि अपने सुख के लिए दूसरों का घर उजाड़ दो। आपका सुखी जीवन मैं बर्बाद नहीं कर सकती।”
“मैंने तो बस यूँ ही मजाक कर दिया था। आपने तो इसे काफी सीरियस ले लिया।” मैंने हँसते हुए कहा, “खैर, टॉपिक चेंज करते हैं। आप हिंदी फिल्में तो जरूर देखती होंगी। हिंदी गाने भी खूब सुनती होंगी।”
“हाँ, मुझे हिंदी गाने बहुत पसंद है। त्रिनिडाड में सात रेडियो स्टेशन हैं, इनमें से पाँच स्टेशन तो सुबह-शाम हिंदी गाने ही बजाते रहते हैं। एक सिनेमा हॉल में तो अक्सर इंडियन मूवी लगती रहती है।”
सुनीता फिर गंभीर हो गयी थी। मैं भी बहुत देर तक चुप रहा। समय काफी हो चुका था। पोर्ट ऑफ स्पेन जाने वाला ब्रिटिश विमान काँच के पार साफ-साफ दिखाई दे रहा था। एनाउंसमेंट भी शुरू हो चुका था। हमने अपने-अपने बैग उठाए और विमान की तरफ बढ़ चले। सुनीता और हमारी सीटें इकॉनामी क्लास में थी। लेकिन अलग-अलग। सुनीता ने मेरे बगल बैठे ब्रिटिश पैसेन्जर से आग्रह किया कि वह उसकी सीट में चला जाए तो हम लोग एक साथ यात्रा कर सकेंगे। ब्रिटिश यात्री भला था। वह पता नहीं क्या सोचकर मुसकराया और ओक्के, नो प्रॉब्लम बोलकर उठ गया।
सुनीता खिड़की के सामने वाली सीट में बैठ गयी। और मुसकराते हुए बाहर देखने लगी। फिर मुझसे बोली, “खिडकी के पार देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। ये हवाई जहाज जब पचपन हजार फुट ऊपर उड़ता है, तब तो और मजा आता है। खिड़की के बाहर जैसे एक माया लोक बनता है। सागर को देखो। बादलों को देखो, एक अनोखी दुनिया से रू-ब-रू होते चले जाते हैं हम।”
मैं समझ रहा था कि सुनीता टॉपिक बदल चुकी है। अब शादी वाली बात छेड़ना ही नहीं चाहती, लेकिन मुझे लग रहा था कि एक बार जिक्र छेड़ूँ। चाची का लड़का है। वह भी अमरीका में पढ़ रहा है। दो-चार साल बाद दिल्ली लौट आएगा। लेकिन बात शुरू करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
मैंने दूसरी बात शुरू की – “कभी दिल्ली आने का कार्यक्रम बनाओ न। ऐसे ही घूमने। मेरे ही घर आकर रुकना। पत्नी तुम्हें दिल्ली घुमा देगी। पास में आगरा है। ताजमहल भी देख लेना।”
ताजमहल का नाम सुनकर सुनीता मुसकरा पड़ी – “इसे देखने की इच्छा है। मोहब्बत की निशानी है न । पता नहीं कब मौका लगे। बहुत इच्छा है इंडिया घूमने की। लेकिन सपने सपने ही रह जाते हैं। सपने टूटने के लिए ही बनते हैं शायद। लेकिन कभी न कभी जरूर आऊँगी।”
बहुत देर तक बातें होती रही। मैंने देखा सुनीता जमुहाई ले रही है। अब मैं खामोश हो गया। थोड़ी देर बाद सुनीता नींद की आगोश में थी। वह घंटों सोती रही। बीच-बीच में वह आँखें खोलकर मेरी तरफ देखती और मुसकरा देती। मैं भी मुसकरा कर जवाब दे देता।
दस घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला। मेरा पूरा सफर नीले सागर को देख-देखकर कट गया।
पोर्ट ऑफ स्पेन में जब हवाई जहाज उतरा तो शाम हो चुकी थी। मैंने कहा – “चलो, मेरे साथ युनिवर्सिटी। वहाँ फंक्शन है। उसे अटेंड कर लेना।”
सुनीता बोली – “नहीं, मैं सीधे घर जाऊँगी, भाई साहब। मम्मी डैडी इंतजार कर रहे होंगे। टाइम मिले तो कल घर आइए। हम सबको अच्छा लगेगा।”
सुनीता ने अपने घर का पता मेरी ओर बढ़ा दिया। विजिटिंग कार्ड पर नाम लिखा था राम कुटीर। यह पढ़कर बेहद खुशी हुई। इससे भी ज्यादा खुशी इस बात पर हुई कि सुनीता ने मुझे भाई साहब कह कर संबोधित किया था। मैं रोमांचित हो रहा था। मैंने मुसकराते हुए सुनीता का कंधा थपथपाया – “जरूर आऊँगा। आपके घर आना मुझे अपने घर आने की तरह लगेगा।”
चेक आउट करके हम लोग साथ-साथ ही बाहर आए। एयरपोर्ट पर सन्नाटा पसरा हुआ था। चारों तरफ मोटे-तगड़े काले-सांवले वेस्ट इंडियनों का देखकर भय लग रहा था। उनकी अंगरेजी ठीक से पल्ले नहीं पड़ रही थी। फिर भी मैं टूटी-फूटी अंगरेज़ी में उन तक अपनी बात पहुँचा सकता था। लेकिन मेरी मुश्किल हल कर दी सुनीता ने। एक टैक्सी ड्राइवर को पास बुलाया। उसका नाम सुखराम था। लेकिन वह हिंदी नहीं बोल सकता था। सुनीता ने उससे अंगरेजी में ही बात की और कहा इन साहब को युनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट इंडीज के कैम्पस में पहुँचा देना। ज्यादा किराया मत लेना। ये हमारे इंडियन गेस्ट हैं।
मैं टैक्सी में बैठ गया। बैठने के पहले सुनीता ने हाथ मिलाया और कहा – “ओके भाई साहब, अपना ध्यान रखना और टाइम मिले तो घर जरूर आना।”
“जरूर आऊँगा।”
टैक्सी आगे बढ़ गयी। मैंने पलट कर देखा, सुनीता बहुत देर तक हाथ हिलाती रही। शायद तब तक जब तक टैक्सी आँखों से ओझल नहीं हुई।
0 गिरीश पंकज
जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर
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