6/01/2008

बिन पानी सब सुन

सृजनगाथा का २५ अंक सजधज कर तैयार है...
देखा क्या......

समकालीन कविताएँ
जगदीश चतुर्वेदी
'शलभ' श्रीराम सिंह
प्रताप सोमवंशी
डॉ. प्रेम दुबे
मोहन राणा
अनिल एकलव्य
◙ प्रवासी कवि - रचना श्रीवास्तव
◙ माह का कवि - रश्मि रमानी

छंद
गीत
डॉ. अजय पाठकमहावीर शर्माडॉ. विद्यासागर शर्मा
जगत प्रकाश चतुर्वेदीवचन श्रीवास्तव
ग़ज़ल
माह के ग़ज़लकार - शकील ग्वालियरी
ख़याल खन्नामधुकर अष्ठानादेवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'
दोहा
रामनिवास मानव
चुटकियाँ
अभिनव शुक्ला

भाषांतर
रेत - हरजीत अटवाल -पंजाबी उपन्यास(भाग-7)

धारावाहिक उपन्यास
पाँव ज़मीन पर - शैलेन्द्र चौहान
पिता जब गाँव आते थे तो दूसरे ही दिन वे बाज़ार चल देते थे। घर में कुछ चीज़ों की ज़रूरत होती थी, काफी दिनों से इस बात का इंतज़ार होता था कि कब वह आएँ और ज़रूरी चीज़ें ले आएँ। अगले दिन सुबह नाश्ते के बाद पिता ने सायकिल निकाली, उसे कपड़े के टुकड़े से पोंछा, पंप से उसमें हवा भरी, कुप्पी से तेल डाला और स्टैंड पर खड़ी करके, पैडल मारकर पिछले पहिये को तेज़ घुमाकर आश्वस्त हो गए कि सायकिल ठीक है

मूल्याँकन
कवि विजेन्द्र की सौंदर्य दृष्टि - सुशील कुमार
मुस्लिम रचनाकारों की अभिव्यक्ति - डॉ. मो. फीरोज़ अहमद
नवगीत का वस्तु विन्यास - महेश अनघ
बीसवीं शती का सर्वेक्षण - प्रभाकर श्रोत्रिय

कथोपकथन
हिंदी ग़ज़लों में विचार हैं, मिज़ाज नही
(हस्तीमल हस्ती से जयप्रकाश मानस की बातचीत
मैंने हिंदी-ग़ज़ल और उर्दू-ग़ज़ल में कभी स्पष्ट विभाजन नहीं देखा। उर्दू जगत के लोग भी सरल हिंदी शब्दों का प्रयोग करते देखे गए हैं और हिंदी ग़ज़ल में तो बोल-चाल में प्रयुक्त होने वाले उर्दू शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से हो ही रहा है। जो कोशिश करके हिंदी ग़ज़लें (शुद्ध रूप हिंदी शब्दों का प्रयोग) लिख रहे हैं, वे कर्णप्रिय कभी नहीं लगीं। काव्य सृजन हमेशा म्युजिकल शब्दों के प्रयोग से ही निखरा है।

हिंदी-विश्व
भाषा और संस्कृति - बालशौरि रेड्डी
प्रजातंत्रीय राष्ट्र के चार अनिवार्य तत्वों में- संविधान राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगीत के साथ राष्ट्रभाषा भी नितांत आवश्यक है। साथ ही किसी भी राष्ट्र पर किसी विदेशी भाषा को थोपना आधुनिकता के मूलभूत सिद्धांतों के विरूद्ध है। वास्तव में यदि किसी राष्ट्र पर जब कोई विदेशी भाषा हावी होने लगती है तभी उस राष्ट्र की संस्कृति का हास ने लगता है।

बचपन
दो सरस प्रसंग वैज्ञानिकों के - शुकदेव प्रसाद

लोक-आलोक
विश्व रंगमंच और नाचा - डॉ. राजेन्द्र सोनी
द्वितीय युद्ध अपनी चरम गति में था। मंदराजी दाऊ का नाचा क़दम से क़दम मिलाकर समय की आहटें खोज लिया था। वह भविष्य में आज़ाद होनेवाला भारत का स्वयं अपने कलाकारों को दिखा दिया था। साम्राज्यवाद के प्रतिकार की चेतना नाचा में फैलने लगी थी। देश प्रेम से ओतप्रोत प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया था।

शेष-विशेष
पत्रिका....
धरती को पढ़ते हुए - जयप्रकाश मानस
शोध....
दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता - डॉ. सी. जय शंकर बाबु
प्रसंगवश....
आइये, बनाएँ अँगरेज़ी को राजरानी - संजय द्विवेदी
युद्ध आतंकवाद के विरुद्ध या इस्लाम के?- तनवीर जाफ़री
विचार....
सभ्यताओं का टकराव-नोम चॉम्स्की
लोग-बाग...
जीनियस हैं बलदेव - संजय द्विवेदी


लन्दन से
थेम्स किनारे बैठकर - राकेश दुबे

कहानी
लौटते हुए परिन्दे - सुरेश तिवारी
वह जान-बूझकर कभी छुपता नहीं । बाबू और वह एक-दूसरे का बर्ताव समझने लगे थे । वह बाबू के साथ अक्सर घूमने जाया करता । बाबू की याद उसे हमेशा आती है । और, जब वह घड़ी के पट्टे पर नज़र डालता...,या फिर, काँटों को ध्यान से देखता तो उसे बाबू याद आ जाते।

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पासंग - पद्मश्री मेहरुन्निसा परवेज़
''तुझे बताने आई थी। हमारे घर शादी की जोरदार तैयारियाँ हो रही हैं। निकाह का लाल साटन का जोड़ा बनकर आ गया है। गरारे में नखी-गोटा से बेल-बूटे बनाये गये हैं। दुपट्टों में नखी-गोटा का गज़रा लगाया गया है। कुरते पर सलमा-सितारे टाँके गये हैं। लाल महजर में मुकेश भरा गया है। जेवर बनकर आ गये हैं। झुमके, वज्जटी, टीका, नथ, चूडियाँ सब बनकर आ गई हैं। वलीमे की दावत के लिए पाँच बकरे भी आ गये हैं।''

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कालजयी कहानी
हार की जीत - सुदर्शन
माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान।

ललित निबंध
आषाढस्य प्रथम दिवसे - डॉ. शोभाकांत झा
धरती की बेटी ने कहा - प्रभा सरस


संस्मरण
पता नहीं फिर कब आए 'बावरा अहेरी'-स्वदेश भारती
उन्होंने कभी रेखा खींच कर साहित्य का विभाजन नहीं किया, धर्मवीर भारती, शमशेर बहादुर सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मुक्तिबोध, डॉ. रामविलास शर्मा तथा पूर्वी चिन्तन से प्रभावित विरोधी खेमों के कई कवियों को भी ''सप्तक'' में स्थान दिया। ''वत्सलनिधि'' शिविरों में आमंत्रित करते रहे जो सामने आकर 'अज्ञेय' ने उन्हें खड़ा किया, वही एक गिरोह बनाकर, झंडा बरदार बन कर उनपर कीचड़ फेंकने का काम भी और फिर बाएं हाथ की काँख में लोभ की पोटली दबाए हुए क्षमायाचना माँगने उनके पास चले गए।

व्यंग्य
मीडिया पर महंत - वीरेन्द्र जैन

पुस्तकायन
स्ट्रोंग एट द ब्रोकन प्लेसेस/रिचार्ड एम कोहेन
संस्कृति के चार सोपान/ डॉ. महेश चंद्र शर्मा
सपने जिनकी ताबीर नहीं होते/शम्स तनवीर

ग्रंथालय में (ऑनलाइन किताबें)
कविता कोश - ललित कुमार
सर्वेश्वरदयाल और उनकी पत्रकारिता -शोध- संजय द्विवेदी
सैरन्ध्री - खंडकाव्य - मैथिलीशरण गुप्त
होना ही चाहिए आँगन - कविता - जयप्रकाश मानस
प्रिय कविताएँ - भगत सिंह सोनी

हलचल
(देश विदेश की सांस्कृतिक खबरें)
पत्रकारिता में ‘जहर’ व ‘अमृत’ दोनों
आदिवासी संस्कृति कोष पर दस दिवसीय कार्यशाला सम्पन्न
कादम्बिनी लघुकथा पुरस्कार अभिज्ञात को
साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कारों की घोषणा
तीन-तीन कृतियों का विमोचन एवं काव्यगोष्ठी
हजारी प्रसाद द्विवेदी जन्मशतवार्षिकी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
नाटककार विजय तेंदुकलकर का निधन अपूरणीय क्षति
डॉ. तिवारी को बृजलाल द्विवेदी स्मृति पत्रकारिता सम्मान
राजभाषा साधन सी.डी. का विमोचन
24 वाँ अंतर्राष्ट्रीय रामायण महोत्सव मारिशस में
तेजेन्द्र शर्मा के सृजनात्मकता के तीन दशक पर चर्चा

संपादकीय
अतिवाद का ख़तरनाक चेहरा : नक्सलवाद
नक्सलवाद की धूर्तता के सामने समाजविज्ञानियों और विचारकों का शास्त्र भी अब पूर्णतः फेल हो चुका है जहाँ कभी यह माना जाता रहा कि नक्सलवाद की उत्पत्ति में लोकतांत्रिक सत्ता की लुच्चाई और टुच्चाई भी रही है । उनकी ओर से कभी तर्क गढ़ा जाता रहा कि देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। मज़दूरों के ख़िलाफ़ ठेकेदार,मालिक या ज़मींदार की तरफ़ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का होना स्वाभाविक है। यह भी भूल साबित हो चुका है । और इस भूल के शिकार होकर सैकड़ों हजारों असंतुष्ट युवा, बुद्धिजीवी और बेरोजगार इस आंदोलन में अपना जीवन व्यर्थ गवाँ चुके हैं ।

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