-वीरेन्द्र पाण्डे
आतंकवाद के विरोध में बस्तर ने एक शब्द, एक अभियान दिया है। यह शब्द है, 'सलवा-जुडूम। जो नक्सली, सरकार की पुलिस-फौज से नहीं डरते,यह शब्द उनके दिलों को दहशत से भर देता है। सलवा-जुडूम बस्तर की गोंड़ी बोली का शब्द है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है। सलवा का अर्थ है शांति। जुडूम का मतलब होता है- जुड़ना, एकत्र होना, साथ-साथ आना। जब दोनों शब्द मिल जाते हैं, तब इसका अर्थ होता है, 'शांति अभियान।
सलवा-जुडूम गांधी के सत्याग्रह की टक्कर का शब्द है। यह माओवादी हिंसा के जवाब में, शांति की मशाल है। बस्तर के आदिवासियों ने जंगल और जंगली जानवरों के साथ रहने की कला विकसित की है। बस्तरिहा को जंगल पालता है। बदले में वह जंगल को संभालता और समृध्द करता है। वन, वनवासी और वन्य प्राणी तीनों परस्पर एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारते तथा सम्मान करते हैं। साथ-साथ मजे और शांति से रहते हैं। यह शांति और सह-अस्तित्व की आदिवासी जीवन शैली है। जब माओवादियों ने बारूदी हिंसा से इस इलाके की शांति भंग की, तो आदिवासियों ने शांति के लिए सलवा जुडूम चलाया। यह गांधी जैसा तरीका है जो उन लोगों द्वारा चलाया जा रहा है, जो न गांधी को जानते हैं, न गांधी के काम को।
पिछले पच्चीस वर्षों से नक्सली दक्षिण बस्तर में सक्रिय हैं। उन्होंने इस इलाके को अपना सुरक्षित व अभेद्य स्थल बना रखा है। इस क्षेत्र में उनकी अनुमति के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता। पेड़ों की पत्तियां भी माओवादियों के इशारे पर डोलती है। इस अभेद्य गढ़ में सरकार भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। यहां के आदिवासियों के जीवन के नियन्ता भी 'दादा लोग हैं। लेकिन सलवा-जुडूम ने सब उलट-पुलट कर रख दिया। 'दादा लोगों के सुरक्षित दो सौ से अधिक गांवों को इस अभियान ने ध्वस्त कर दिया। सलवा-जुडूम की तेजी के चलते माओवादियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है।
आज भी जब सलवा-जुडूम शिथिल है- नक्सलियों की सबसे बड़ी चिंता यही अभियान है। वे इस अभियान को किसी भी कीमत पर नेस्तनाबूद करना चाहते हैं। जब सलवा-जुडूम उत्कर्ष पर था, तब भयभीत नक्सलियों का शीर्ष नेतृत्व इसी क्षेत्र में डेरा डाले हुए था। हफ्तों शीर्ष कमांडर सिर जोड़कर बैठे। अंत में उन्होंने एक बहुआयामी रणनीति बनाकर, उस पर अमल शुरू किया। आज भी नक्सली सलवा-जुडूम के खिलाफ उसी नीति पर चल रहे हैं।
उनका रणनीति का पहला अंग है आतंक। आतंक माओवादियों का आजमाया हुआ कारगर उपाय है। बस्तर में उनके पैर क्रूरतम हिंसा से पैदा आतंक द्वारा ही जमे हैं। हिंसा के ऐसे क्रूरतम उपायों का प्रयोग करना कि देखने वाले दहल जावें और माओवादियों की खिलाफत करने का साहस न कर सकें। जन अदालत लगाते हैं, स्वयं आरोपकर्ता, न्यायधीश और दंडदाता। जिसे मृत्युदंड देते हैं, उसे सैकड़ों लोगों के सामने डंडे से पीट-पीट कर मार डालते हैं।
सलवा-जुडूम आंदोलन ने अपना कोई नेता नहीं बनाया। क्योंकि वे जानते थे, जो भी नेता होगा, वह सबसे पहले नक्सली निशाने पर होगा। फिर भी नक्सलियों ने चुन-चुन कर ऐसे लोगों को निशाना बनाया, जिन्होंने इस अभियान में सक्रिय भागीदारी निभाई। ऐसे लगभग 200 लोगों का वध नक्सली अब तक कर चुके हैं। आतंकित करने का दूसरा तरीका सलवा-जुडूम कैम्प में सैकड़ों की तादाद में हमला और आगजनी कराना। ऐसे हमलों में नक्सलियों ने मासूम-बच्चों और महिलाओं को भी नहीं बख्शा। ऐसे शिविरों पर किए गए हमलों में सैकड़ों की तादाद में शिविरार्थी मारे गए। माओवादियों का संदेश साफ है-सलवा-जुडूम और शिविर से तौबा करो या मरो। इन हमलों में हुई क्रूर हत्याओं का प्रचार कर नए क्षेत्रों में सलवा-जुडूम के विस्तार को रोकना भी एक मकसद था।
माओवादियों की रणनीति का दूसरा हथियार है निंदा अभियान। प्रचार में कम्युनिस्टों ने महारत हासिल कर रखी है। गोयबल्स का गुरू मंत्र माओवादियों ने ठीक से रटा हुआ है। बस्तर के माओवादियों ने भी सलवा-जुडूम के विरोध में निंदा अभियान चलाया है। समाचार माध्यमों में अपने प्रच्छन्न समर्थकों द्वारा सलवा-जुडूम के अत्याचार की झूठी कहानियां, रिपोर्ट छपवाना। सलवा-जुडूम बंद करने की मांग करना। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में इनका यह अभियान निरंतर चलता रहता है। छद्म बुध्दिजीवियों, अपने बनाएं और समर्थक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) को भी इन्होंने इस काम में झोंक दिया है।
बस्तर में काम करने वाली कम्यूनिस्ट पार्टियां भी लगातार सलवा-जुडूम बंद करने की मांग उठाती रहती हैं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि सलवा-जुडूम सफल होगा, तो नक्सली समाप्त हो जाएंगे। इसके साथ ही कम्युनिस्टों का भी अस्तित्व समाप्त हो जावेगा। इसका कारण यह है कि माकपा-भाकपा वही बात करते हैं, जो नक्सली जनता के बीच करते हैं। फर्क इतना ही है एक के हाथ में चुनाव चिन्ह है, दूसरे के हाथ में बंदूक। माओवादी ने अपने पूरे प्रचार तंत्र को सक्रिय कर दिया है। वे लोगों के बीच यह साबित करना चाहते हैं कि सलवा-जुडूम सरकार प्रायोजित अभियान है। सरकार आदिवासियों को आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर रही है। सलवा-जुडूम के बाद मौत के आंकड़ें बढ़ गए हैं। इन सब निंदा अभियान का एक ही मकसद है, किसी भी प्रकार हो यह अभियान बंद हो जाए।
माओवादियों को इस दिशा में कुछ सफलता तो जरूर हाथ लगी है। यह अभियान शिथिल हो गया है। तीसरा तरीका जो इन्होंने अपनाया है, वह है न्यायालय का उपयोग। नक्सली अपने कुछ संघम सदस्यों को सलवा-जुडूम पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करते हैं। झूठी कहानियां लेकर न्यायालय के दरवाजे जाते हैं। इससे भी उन्हें प्रचारात्मक लाभ मिलता है।
माओवादी रणनीति का एक तरीका है षड़यंत्र। नक्सली क्षेत्र के ऐसे गांव जो लगभग उजड़ गए हैं। जिनके अधिकांश निवासी शिविरों में रहने लगे हैं। गांवों में वही थोड़े लोग बचे हैं, जो न तो नक्सली और न ही जुडूम समर्थक हैं। ऐसे ग्रामों में नक्सली जुडूम कार्यकर्ता बनकर जाते है। ग्रामवासियों को इस कदर आतंकित करते हैं, कि वे गांव छोड़कर चले जावें। योजनापूर्वक ऐसे विस्थापितों को बस्तर से सटे आंध्र के जंगलों में बसाया जाता है। यहां वे अत्यंत नारकीय स्थितियों में रहते हैं। माओवादी अपनी योजनानुसार इन विस्थापितों के पास समर्थकों एवं अन्य मीडिया को भेजते हैं। जो उनकी पीड़ा और दुर्दशा की कहानियां दुनिया के सामने लाते हैं। जो पूरी तरह सलवा-जुडूम को कटघरे में खड़ा करती है।
माओवादियों को कई बार प्रदेश की राजनैतिक स्थितियों के कारण भी परोक्ष लाभ मिल जाता है। सबको पता है कि प्रदेश में कांग्रेस के दो धड़े हैं। एक नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा का, दूसरा पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का। दोनों अपने आप को आदिवासी बताते हैं। महेंद्र कर्मा घोर नक्सली क्षेत्र के रहने वाले हैं। बस्तर के प्रतिष्ठित आदिवासी (बोड़ा मांझी) परिवार से ताल्लुक रखते हैं। युवावस्था में कम्युनिस्ट थे, पहली बार विधानसभा में इसी पार्टी की ओर से पहुंचे थे। कर्मा सलवा-जुडूम के समर्थक हैं। 1990 में भी एक बार इन्होंने नक्सलियों के खिलाफ जन-जागरण अभियान चलाया था। वे बस्तर की दुर्दशा और पिछड़ेपन का कारण नक्सल समस्या को मानते हैं इसका समूल नाश चाहते हैं। कर्मा, नक्सलियों के दुश्मन नंबर एक हैं। कई बार इन पर जान-लेवा हमला हो चुका है। प्रशंसा की बात है कि कर्मा अड़े हैं, डटे हैं।
सलवा-जुडूम के अभियान के कारण नक्सली बौखलाये हुए हैं। उन्होंने इसका हिंसक प्रतिरोध शुरू कर दिया है। जिसके कारण नक्सली वारदात और मौत के आंकड़ों में बढ़ोत्तरी हुई। बढ़ी हिंसा और मृत्यु को ही आधार बनाकर अजीत जोगी सलवा-जुडूम बंद करने की मांग कर रहे हैं। यह एक तीर से कई निशाने साधने जैसा है। सलवा-जुडूम के विरोध से नक्सलियों की सहानुभूति हासिल होती है। राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में महेंद्र कर्मा को बदनाम किया जा सकता है।
आदिवासियों की मृत्यु से दु:खी होने का नाटक कर उनकी सहानुभूति प्राप्त करने की चेष्टा की जा सकती है। किन्तु राजनैतिक स्वार्थ साधने की कोशिश में जानबूझकर और कई बार अनजाने में माओवादियों को लाभ पहुंचता है। कुछ अलग दिखने, कहने की चाह रखने वाले लोग भी माओवादियों के पक्ष को जाने अनजाने बल दे जाते हैं।
योजना आयोग की एक उप-समिति सेवा-निवृत्त आईएएस बंधोपाध्याय की अध्यक्षता में बनाई गई। जिसे केंद्र सरकार द्वारा पुलिस आधुनिकीकरण हेतु राज्यों को दी गई राशि के उपयोग का अध्ययन करने कहा गया था। उन्होंने क्या रिपोर्ट दी यह तो मालूम नहीं हो सका। पर उन्होंने यह टिप्पणी जरूर की कि नक्सलियों से वार्ता करना चाहिए और सलवा-जुडूम बंद करें। सभी रायबहादुरों की राय है कि सलवा-जुडूम के कारण मौतें बढ़ गई हैं, अत: इसे बंद कर देना चाहिए। आजादी के आंदोलन के समय अगर इस तर्क को मान लिया जाता तो शायद हम आजाद नहीं होते। इस समय भी ऐसे लोग थे जो 1857 की लड़ाई जलियांवाला बाग हत्याकांड, क्रांतिकारियों की शहादत का उदाहरण देकर आजादी के आंदोलन को बंद करने की सलाह देते थे। सलवा-जुडूम भी नक्सलियों के हिंसक पाश से मुक्त होने का आंदोलन है। यह चलता रहना चाहिए। लेकिन सलवा-जुडूम की वास्तविकता को समझने की जरूरत है।
(लेखक जगदलपुर के पूर्व विधायक हैं)
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