6/05/2008

प्रकृति पूजनीय है

हिंदू धर्म, प्रकृति की गोद मे बना और खिला है। वेद और अन्य शास्त्र के मंत्र इसकी स्तुति करते रहे है । प्रकृति इतनी पूज्य है की इसको परमात्मा की अर्धांगिनी की तरह से देखा जाता है। आकाश, वायु आदी तो सृष्टि के ही अंश है।

गीता मे भगवान विश्व को ही अपना रूप बताते है। लेकिन आज हम लोग प्रकृति से बहुत दूर हो गए है । हम अपने सभी पर्वो मे अपनी पूज्य प्रकृति माँ को गन्दा और प्रदूषित करते है। यह एक सांस्कृतिक पतन है। होली मे पानी को, दिवाली मे आकाश और वायु को, गणेश पर्व और नवरात्र पर्व मे विसर्जन के द्वारा अपनी नदियों को। तीर्थ स्थानो मे गंदगी रहती है, और गंगा यमुना आदी नदियों मे तो स्नान करना ही असंभव हो गया है। प्रत्येक पर्व के समय ध्वनि प्रदुषण तो वृद्ध, बीमारों, विद्यार्थियों और एकान्त प्रिय लोगो के लिए नरक तुल्य समय हो जाता हैं ।

धर्म हमे सम्वेदनशील बनाने के लिए होता है, लेकिन हम लोग तो सम्वेदानाविहिन होते जा रहे हैं। अगर हम चेते नही तो हम अपने देश को स्वर्ग नही बल्कि नरक बना देंगे। यह स्थिति देख कर हमे कठोपनिषद का वह मंत्र याद आता है की " उत्तिष्ठ जाग्रत "। वह भी विज्ञापन भी बहुत अच्छा था जहाँ पर्यावरण की रक्षा अपने बच्चो के भविष्य को ध्यान मे रख कर करने के लिए कहा गया था ।

अगर हमे अपनी संस्कृति से प्रेम है, अगर हम पूर्वजों के प्रति सच्चा आदर करते है तो हम सब को ऐसा देश और समाज बनाने की जरुरत है जहाँ सही मे प्रकृति पूज्य दिखे, जिस हवा मे हमारे बच्चे स्वस्थ रह सके, जहाँ हमारा सच्चा आध्यात्मिक विकास हो सके । अगर हम अपने द्रष्ट पर्यावरण को स्वच्छ नही रख सकते है तो हम अपने मन को कैसे स्वच्छ रख पायेंगे ।

यह निश्चित रूप से सत्य है की अज्ञान से ही संसार और उसकी समस्यायें होती है । वस्तुस्थिति घोर अज्ञान के अस्तित्व का प्रमाण दे रही है । ओजोन की परत पर प्रभाव, बढती गरमी के कारण पीछे जाते ग्लेशियर, कम (और ख़त्म) होते जंगल, पक्षी और जानवर, नदियों मे शीघ्र बाढ़ आदि आना, नदियों का प्रदूषित होना, प्रदूषण का आकाश से पाताल तक व्याप्त होना, ज्यादा विकसित स्थानों मे साँस लेना भी मुश्किल होना आदि, सभी बहुत चिन्ता का विषय है । क्या हम सही मे अपनी जन्म भूमि को, जो की हमारी माँ भी है, स्वर्ग से भी महान समझते है ?

00स्वामी आत्मानन्द
वेदांत मिशन

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