6/24/2008

आदिवासियों को बहस से बाहर निकालें

-बसंत कुमार तिवारी


वामपंथी नेता एबी वर्धन का कहना है कि 'सलवा जुडूम को बंद कर देना चाहिए क्योंकि वह गैरकानूनी आंदोलन है। उन्होंने केन्द्र सरकार, जिसके वे पार्टनर हैं, से 'सलवा जुडूम के लिए धनराशि नहीं देने की मांग की है। श्री वर्धन ने यह नहीं बताया कि 'सलवा जुडूम और नक्सलियों के बीच पिस रहा आदिवासी दोनों से कैसे मुक्ति पाए। उनके पास भी कोई सटीक उत्तर या रास्ता नहीं है। श्री वर्धन ने भी मानवाधिकार आयोग, न्यायालय और एनजीओ संगठनों की तरह फतवा तो दिया पर रायपुर आकर बस्तर पहुंच कर वे 'सलवा जुडूम का जायजा लेते और नक्सलियों से बात कर उन्हें भी नक्सलवाद को छोड़ देने की सलाह देते तो शायद सही आकलन करते। दरअसल कठिनाई यही है कि अधिकांश लोग बयान देने और लंबे-लंबे लेख भी लिखते हैं जिनमें आदर्शवाद तो रहता है। जमीनी सच्चाई से रूबरू होना कतई नहीं रहता। लोग 'सलवा जुडूम की अव्यवस्था का विरोध कर रहे हैं, उस विचारधारा का नहीं जो गांधी के असहयोग की है। इस देश में अपनी राय देने वाले आंदोलन यदि गैरकानूनी हो जाएंगे तो लोकतंत्र कैसे बचेगा।

जहां तक आंदोलन के गैरकानूनी होने का प्रश्न है, श्री वर्धन यह बताते कि देश में आजादी के पहले और बाद में कौन सा आंदोलन कानूनी कहा गया। आजादी के लिए गांधी का स्वाधीनता आंदोलन, दांडी यात्रा से लेकर सन् 1977 का जेपी आंदोलन, सभी को गैरकानूनी कहा जाता रहा। श्री वर्धन की पार्टी की बंगाल की सरकार ने नंदीग्राम में जो किया वह वामपंथियों के लिए कानूनी था, पर अपना हक मांगने वाले ग्रामवासियों का आंदोलन 'गैरकानूनी। भाजपा नेता श्री आडवाणी अयोध्या की घटना को आंदोलन मानते हैं इसीलिए वे उसमें शामिल लोगों को कानून तोड़ने का अपराधी नहीं मानते। होता यही रहा है कि जो सत्ता में बैठा है वह अधिकार की हर कोशिश को गैरकानूनी कहता है और सत्ता से बाहर खड़ा आम आदमी उसे आंदोलन, क्योंकि वह उसे अपने अधिकार का संघर्ष मानता है।

इसी दौरान बस्तर के नक्सलवाद और 'सलवा जुडूम को लेकर कई लेख पढ़ने में आए। एक ने गांधी को जुडूम से बाहर निकल आने की मांग की। दूसरे ने नक्सलवाद का विरोध और 'सलवा जुडूम के समर्थन में भाजपा के दर्शन और नीतियों की बात कही। तीसरा लेख एक पुलिस अधिकारी का काम करते हुए लेखक और विचारक का था, जिसमें उन्होंने गांधी को छद्म गांधीवादियों के बीच से निकल आने की बात कही। एक का तर्क है कि पुलिस के अत्याचार से नक्सलवाद आया। कोई यह पूछे कि पहले कौन आया। बस्तर में नक्सलवाद पहले आया फिर जवाब में पुलिस आई। लेख अपने-अपने तर्कों और शब्दों के खेल में दिलचस्प और पठनीय हैं। इन्हें शहरी, अर्ध्दशहरी पाठक ही पढ़ेगा। वह आदिवासी शायद ही, जो नक्सलवाद और 'सलवा जुडूम के दो पाटों के बीच पिस रहा है। दरअसल हमने आदिवासी को इतना पढ़ना सिखाया ही नहीं कि वह बयानों और लेखों के संदेश समझ सकें।

जहां तक आदिवासी का प्रश्न है, वह न तो माओवाद को समझता है और न ही गांधीवाद या वामपंथ को पढ़ सकता है। उस आदमी के लिए कांग्रेस या भाजपा या वामपंथी सब एक से हैं। वह अपनी मुक्ति की तलाश में भटक रहा है और भटकता रहा है। सरकारी अमले, व्यापारियों के शोषण और उसके बुनियादी जल, जंगल और जमीन के अधिकार से वंचित कराने वालों से राहत पाने के दिवा स्वप्न में उसने नक्सलियों को शरण दी। उनके साथ सहयोगी बना। जब उसे यह समझ आ गया कि ये नए शोषक पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। अफसरशाही और व्यापारी तो उसे तिल-तिल कर मार रहे थे, नक्सली तो सीधे गोली मार देते हैं, तब उसने नक्सलियों से असहयोग करना शुरू किया। सामूहिक रूप से विरोध स्वरूप ही आदिवासियों ने 4 और 5 जून 2005 को नक्सलियों को पकड़ कर पुलिस के हवाले किया। यह सिलसिला चलता रहा और अब वह 'सलवा जुडूम के रूप में सामने है।


आदिवासी अपनी जमीन पर वापस जाना चाहता है। उसे लगता है कि अपने सामूहिक विरोध से वह शायद वहां लौट सकता है। उसकी कठिनाई यह है कि वह सुरक्षित कैसे रहे। किसी समय उसे लगा कि काकतीय वंश के उसके राजा के साथ वह सुरक्षित है। उसे लगा कि वह अपने जल, जंगल और जमीन पर राजा के सहारे लौट सकता है। इस आशा में वह आखरी राजा प्रवीर चंद भंजदेव के निमंत्रण पर जगदलपुर महल के सामने तीर कमान लेकर धीरे-धीरे एक लाख की संख्या में जमा हो गया। फिर क्या हुआ, सब मालूम है। सरकार ने कानून और गैरकानून के चक्कर में कुछ आदिवासी और राजा को ही मार डाला। पर इसके बाद तो स्थितियां और खराब होती गईं। 44 वर्ष मध्यप्रदेश में जितना शोषण नहीं हुआ, उससे कहीं ज्यादा छत्तीसगढ़ के आठ सालों में हुआ। बस्तर के इतिहास में इतनी मुश्किल में आदिवासी पहले कभी नहीं फंसा। पहले तो वह किसी तरह निकल आया अब उसके सामने कुंआ और खाई ही है।

दरअसल, आदिवासी किसी वाद की लड़ाई नहीं लड़ रहा। वादों की बहस शहरों में होती है। अखबारों और किताबों में। कुछ समझने के लिए तो कुछ मनोरंजन के लिए। आदिवासी तो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। वह फैशन की तरह नहीं, अति वास्तविक मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है।

वह किसी से गांधीवाद, किसी से माओवाद या भाजपावाद नहीं पढ़ना चाहता न ही समझना चाहता है। वह इन सबसे अलग अपनी मुक्ति चाहता है। उसे गांधी का असहयोग आंदोलन नहीं मालूम, वह माओवाद भी नहीं जानता, वह केवल अपनी रक्षा का रास्ता खोज रहा है। अपने आप जीने का हक चाहता है। उसका प्रश्न एबी वर्धन, कनक तिवारी, वीरेन्द्र पाण्डेय, विश्वरंजन और संदीप पाण्डेय ही नहीं सभी के सामने है। जिस तरह सभी के सामने कोई कारगर विकल्प नहीं है वैसा ही इस लेखक के पास भी नहीं है। एक बात लगती है कि बस्तर में वैचारिक संघर्ष या बहस की नहीं, व्यवहारिक पहल की जरूरत है। आदर्शवाद की बात करने वाले आदिवासियों को संकट से निकालने का कारगर रास्ता बताएं। एक रास्ता असहयोग का गांधीवादी रास्ता है दूसरा बंदूक की गोली। अब तक दोनों के परिणाम नहीं निकले। अब जरूरत सैध्दांतिक बहस की नहीं, ठोस विकल्प खोजने की है। बहस करने वालों उसे संकट से बाहर निकालो।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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