प्रकृति के प्रागण में प्रभा का,
रक्त रंजित है चमकता मुख उनका ।
सहमते सकूचाते आगे को पाँव रखते,
मुसकुराता दमकता है मुख उनका ।
तिमिर व्योम में छिपा देख
लट हटा छट बसुन्धरा आँचल
समेटे पोछ लेती मुख अपना जो
रात भर थी आद्र पलकें,प्रिय विरह कीं बेदना में ।
लज्जा के अवगुण्ठन में मुँह छिपाए ,
सहमी सी थी नवोटा धरा
सज्जित थाल, वह थाल लेने को
जिसमें प्रभाकर लाये थे सुहाग सिन्दूर देने को ।
समेटे पोछ लेती मुख अपना जो
रात भर थी आद्र पलकें,प्रिय विरह कीं बेदना में ।
लज्जा के अवगुण्ठन में मुँह छिपाए ,
सहमी सी थी नवोटा धरा
सज्जित थाल, वह थाल लेने को
जिसमें प्रभाकर लाये थे सुहाग सिन्दूर देने को ।
00डॉ. बी के तिवारी "बिप्लव"
113, भुइयाडीह, पोस्ट -एग्रिको
जमशेदपुर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें