6/15/2008

जीवन चलने का नाम


कहा जाता है कि जीवन चलने का नाम है अत: चलते रहो। चरैवेति, चरैवेति। चलना, निरंतर आगे बढ़ना ही जीवन है, रुकना या पीछे हटना मृत्यु है। लेकिन निंरतर चलते रहने के लिए, आगे बढ़ते रहने के लिए एक चीज और भी है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है और वो है रुकना। निरंतर चलते रहने के लिए रुकना, विश्राम करना या ठहरना भी अनिवार्य है। उफपर कहा गया है कि रुकना मृत्यु है तथा बाद में कहा गया है कि आगे बढ़ने के लिए रुकना ज़रूरी है। थोड़ा विरोधभास दिखलाई पड़ रहा है पर है नहीं।

चलना वस्तुत: दो प्रकार का होता है। एक शरीर का चलना या गति करना और दूसरा मन का चलना या गति करना। मन जो शरीर को चलाता है, उसे नियंत्रिात करता है आध्यात्मिक दृष्टि से उसकी गति को नियंत्रित करना भी अनिवार्य है। एक रुकने का अर्थ भौतिक शरीर की गति अर्थात् कर्म से मुँह मोड़ना है लेकिन दूसरे रुकने का अर्थ मन की गति को विराम देना है। मन जो अत्यंत चंचल है उसको नियंत्रित करना है। उसको सही दिशा में ले जाने के लिए उसको रोकना अनिवार्य है।

चलना जीवन है तो रुकना पुनर्जन्म है। जब मन रुक जाता है तो वह शांत-स्थिर होकर पुनिर्नर्माण में सहायक होता है। उपयोगी सृजन का कारण बनता है। भौतिक शरीर अथवा स्थूल शरीर को निरंतर चलाने के लिए कारण शरीर अर्थात् मन का ठहराव ज़रूरी है। भौतिक शरीर कभी नहीं ठहरता। सोते-जागते अथवा आराम की अवस्था में भी गतिशील रहता है शरीर। अत: ठहराव शरीर का नहीं मन का होता है। जब मन तेज़ भागता है अथवा ग़लत दिशा में दौड़ता है तो ठहराव की जरूरत होती है। नकारात्मक मन शरीर की गति को बाधित करता है, उसका नाश करता है, उसे जर्जर बनाता है, उसे पीछे ले जाता है तथा अनेक रोगों से भर देता है। सकारात्मक मन शरीर का पोषण करता है, उसे मजबूत बनाता है, उसे आगे ले जाता है तथा उसकी रोगों से रक्षा कर आरोग्य प्रदान करता है। सकारात्मक मन को नहीं अपितु नकारात्मक मन को ठहराना है।

कीचड़युक्त पानी जब स्थिर हो जाता है तो उसमें घुली मिट्टी नीचे बैठ जाती है और स्वच्छ पानी पर तैरने लगता है। मन को रोकने पर भी यही होता है। विचारों का परिमार्जन होने लगता है। नकारात्मक घातक विचार नीचे बैठने लगते हैं। सकारात्मक उपयोगी विचार प्रभावी होकर पूर्णता को प्राप्त होते है और जीवन को एक सार्थक गति मिलती है। कार्य करता है हमारा शरीर लेकिन उसे चलाता है हमारा मस्तिष्क और मस्तिष्क को चलाने वाला है हमारा मन। मन की उचित गति अर्थात् सकारात्मक भावधरा के अभाव में न तो मस्तिष्क ही सही कार्य करेगा और न शरीर ही। इसलिए शरीर को सही गति प्रदान के लिए मन को रोकना और उसे सकारात्मकता प्रदान करना अनिवार्य है।

जब बु( और अंगुलिमाल का आमना-सामना होता है तो दोनों तरप़फ से ठहरने की बात होती है। अंगुलिमाल कड़ककर बु( से कहता है, ``ठहर जा।´´ बु( अत्यंत शांत भाव से कहते हैं, ``मैं तो ठहर गया हूँ पर तू कब ठहरेगा?´´ एक आश्चर्य घटित होता है। बु( की शांत मुद्रा सारे परिवेश को शांत-स्थिर कर देती है। उस असीम शान्ति में अंगुलिमाल भी आप्लावित हो जाता है। वह ठहर जाता है और दस्युवृत्ति त्याग कर बु( की शरण में आ जाता है। मन की हिंसक वृत्ति का विनाश होने का प्रारंभ ही वास्तविक ठहराव है। जब व्यक्ति पूर्ण रूप से ठहर जाता है, उसके मन से उद्विग्नता तथा द्वंद्व मिट जाता है तभी समता का उदय होता है। मन के ठहराव का अर्थ है नकारात्मक भावों के स्थान पर सकारात्मक भावों का उदय। सकारात्मक भावों के उदय के साथ ही व्यक्ति आनंद के साम्राज्य में प्रवेश करता है।

शरीर और मन की गति में अंतर होना ही सब प्रकार की समस्याओं का मूल है। शरीर और मन की गति में सामंजस्य होना अनिवार्य है। रेलगाड़ी के डिब्बे तभी अपने गंतव्य तक पहु¡च पाते हैं जब वे इंजन के साथ-साथ चलते हैं। इंजन और डिब्बों की गति समान होना तथा उनमें एक लय होना ज़रूरी है। इसी प्रकार शरीर और मन में भी संतुलन और लयात्मकता होना अनिवार्य है। मन भागा जा रहा है लेकिन शरीर उसका साथ नहीं दे पा रहा है तो समस्या खड़ी हो जाएगी। इंजन भागा जा रहा है पर उसकी गति इतनी तेज़ है कि डिब्बे या तो उछल रहे हैं और पटरी से उतरने की अवस्था आने वाली है या उनके बीच की कड़ी टूटने वाली है। इंजन की गति को नियंत्रित कर इंजन और डिब्बों के बीच की कड़ी को टूटने से बचाना है।

डिब्बे ही नहीं उनमें बैठे आत्मारूपी यात्रा भी इस गति से प्रभावित होते हैं। क्या तेज़ गति से दौड़ते इंजन वाली रेलगाड़ी के डिब्बों में बैठे यात्रा सुरक्षित रह सकते हैं? शायद नहीं। इसलिए इंजन तथा इंजन रूपी मन दोनों की गति में ठहराव लाकर नियंत्रण करना ज़रूरी है। जीवन में भाग-दौड़ का एक ही उद्देश्य है और वो है आनंद की प्राप्ति लेकिन जितना हम भाग-दौड़ करते हैं आनंद से दूर होते चले जाते हैं। आनंद के लिए जीवन की गति तथा विचारों के प्रवाह को नियंत्रिात कर उन्हें संतुलित करना ज़रूरी है। यही आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिकता हमें सहज होना सिखाती है। जब हम सहज होते हैं तभी अपने वास्तविक `स्व´ अर्थात् चेतना से जुड़ते हैं। आत्मा में स्थित हो पाते हैं। यही वास्तविक आनंद अथवा परमानंद है।


0सीताराम गुप्ता
106-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

अति सुंदर सीताराम जी. अत्यन्त कठिन विषय का इतना सरल विश्लेषण करने की वधाई. आज के तनावपूर्ण वातावरण में सकारात्मक मन की आवश्यकता और ज्यादा महसूस होती है.