भारत के पड़ोसी देश नेपाल में 240 वर्ष पुरानी राजशाही का आख़िरकार अन्त हो ही गया। इसी वर्ष अप्रैल माह में नेपाल में हुए संविधान सभा के आम चुनाव में नेपाल स्थित माओवादी संगठन भारी बहुमत से जीत कर सत्ता में आए थे। इसी नवगठित नेपाली संविधान सभा ने अपनी पहली बैठक में जो सबसे पहला प्रस्ताव पारित किया, वह था - राजशाही को समाप्त करने तथा नेपाल को लोकतंत्र बनाए जाने का प्रस्ताव। गत् 28 मई को नेपाल की नई संविधान सभा द्वारा नेपाल से राजशाही को समाप्त किए जाने वाले इस प्रस्ताव के साथ ही नेपाल के शाही शासन का प्रतीक समझे जाने वाले नारायणहिति महल पर फहराने वाला राजशाही का ध्वज हटा लिया गया तथा उसके स्थान पर नेपाल का राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया।
नेपाल में आए इस बड़े राजनैतिक परिवर्तन को लेकर नेपाल की जनता में आमतौर पर ख़ुशी का माहौल देखने को मिला। राजशाही के समाप्त होने का दु:ख नेपाल के लोगों में बिल्कुल नंजर नहीं आया। बजाए इसके पूरे नेपाल में जश् का माहौल ज़रूर देखने को मिला। आम लोगों के अलावा नेपाली मीडिया तथा स्थानीय समाचार पत्र, सभी ने न सिर्फ़ राजशाही के समाप्त होने का स्वागत किया है बल्कि 240 वर्ष तक चलने वाले शाही शासन की भरपूर आलोचना भी की है। कुछ समाचार पत्रों ने इस घटना को नेपाल के कल्याण के लिए होने वाला परिवर्तन बताया है तथा राजशाही को इतिहास के पन्नों में लुप्त हो जाने वाली एक भूतकाल की घटना।
नेपाल की राजधानी काठमाण्डू से प्रकाशित होने वाले एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र में नेपाल को 11 शासक देने वाले राजशाही ख़ानदान पर नेपाल के संसाधनों का दुरुपयोग करने तथा इन्हें जमकर लूटने का अरोप लगाया है। एक अख़बार ने तो यहाँ तक लिखा है कि आज यदि नेपाल दुनिया के सबसे ग़रीब देशों की सूची में शामिल है तो इसके लिए केवल राजशाही ही ज़िम्मेदार है।
बहरहाल राजशाही का प्रतीक काठमाण्डू स्थित नारायणहिति महल अब संग्रहालय में परिवर्तित होने जा रहा है। इस पूरे घटनाक्रम में यदि कुछ सुखद देखने को मिल रहा है तो वह है सत्ता में आने के पश्चात माओवादियों में आने वाला बदलाव। नेपाल में सत्ता में आ चुके माओवादी राजशाही के विरुद्ध लगभग एक दशक तक हिंसक आंदोलन चला रहे थे। उसके पश्चात अन्तर्राष्ट्रीय दबाव तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता के पश्चात 2006 में यह माओवादी नेपाल की राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो गए। राजशाही से माओवादियों का मतभेद शुरु से ही है। यह हमेशा राजशाही को समाप्त किए जाने के पक्षधर रहे हैं। यही कारण है कि सत्ता में आते ही माओवादियों ने सबसे पहले राजशाही को समाप्त करने का प्रस्ताव पारित किया।
माओवादियों के सत्ता में आने की ख़बरों के साथ ही इस बात की अटकलें भी लगाई जाने लगी थीं कि नेपाल के अन्तिम राजा ज्ञानेन्द्र का भविष्य दु:खदायी भी हो सकता है। इस संबंध में ज्ञानेन्द्र की गिरंफ्तारी से लेकर उनके निर्वासन तक की उम्मीद लगाई जा रही थी। परन्तु माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड ने सत्ता में आते ही एक ज़िम्मेदार नेता का परिचय देते हुए राजा ज्ञानेन्द्र के विषय में इतना ही कहा कि वे चाहते हैं कि 'राजा स्वयं गद्दी छोड़ दें तथा स्वेच्छा से शाही महल को त्याग कर अन्य महल में चले जाएँ।'
प्रचंड ने यह भी कहा कि 'इतिहास इस बात का साक्षी है कि राजाओं की हत्या कर दी जाती थी अथवा उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ता था। परन्तु नेपाल में ऐसा हरगिज़ नहीं होना चाहिए।' माओवादियों में राजशाही के प्रति आए इस परिवर्तन को देखकर माओवादियों की राजनैतिक इच्छा शक्ति तथा उनके विवेक का भी सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।
बेशक नेपाल के राजघराने के भारत से गहरे रिश्ते रहे हैं। पड़ोसी देश होने के अतिरिक्त नेपाल के शाही घराने की कई शादियाँ भी भारत में स्थित पूर्व राजघरानों के साथ सम्पन्न हुई हैं। भारत में सबसे बड़ी हिन्दू आबादी होने तथा नेपाल के दुनिया के अकेले हिन्दू राष्ट्र होने की वजह से भारत और नेपाल के मध्य भावनात्मक संबंध भी रहे हैं। आज भी भारत व नेपाल के मध्य लोगों का खुला आवागमन भारत नेपाल के मध्य सदियों पुराने मधुर रिश्तों का गवाह है। परन्तु कुछ सच्चाईयाँ ऐसी भी हैं जिनसे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। उदाहरण के तौर पर राजशाही के 240 वर्षों में नेपाल का विकास शून्य के बराबर रहा। ग़रीबी कम होने के बजाए बढ़ती चली गई। बेरोज़गारी में बेतहाशा इज़ाफ़ा हुआ। नेपाल से भारत आने वाले कामगारों की संख्या में दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी होती गई। यहाँ तक कि पर्याप्त संभावनाएँ रखने वाला नेपाल का पर्यटन उद्योग भी पूरी तरह से विकसित नहीं हो सका। ज़ाहिर है यदि नेपाल के इस पिछड़ेपन के लिए नेपाल की जनता राजशाही को ज़िम्मेदार ठहराती है तो इसे ग़लत कैसे कहा जा सकता है।
नेपाली लोगों का कहना है कि पूरे नेपाल राष्ट्र में यदि कहीं विकास के नाम के ईंट और पत्थर लगाए गए हैं तो वे एकमात्र राजधानी काठमाण्डू ही कही जा सकती है। नेपाली जनता का मानना है कि शाही शासन द्वारा काठमाण्डू का विकास किए जाने तथा उसे सजाने-सँवारने का कारण केवल यही है कि एक तो राज परिवार का स्थाई निवास काठमाण्डू में स्थित था तथा दूसरे यह कि विदेशी मेहमान, विदेशी राष्ट्राध्यक्षों का आवागमन तथा अन्तराष्ट्रीय गतिविधियों का केंद्र काठमाण्डू ही हुआ करता है। आरोप है कि यही वजह है कि राजशाही को काठमाण्डू से बाहर देखने, झाँकने तथा विकास करने की न तो ज़रूरत महसूस हुई और न ही इसके लिए गंभीर प्रयास किए गए। यहाँ तक कि नेपाल ने राष्ट्रीय स्तर पर अपने समग्र विकास के लिए कोई ख़ाका तक तैयार नहीं कर रखा था। और इसी कारण आज काठमाण्डू के अतिरिक्त नेपाल के किसी दूसरे शहर के नाम से दुनिया क़तई परिचित नहीं है।
राजशाही के अन्त के इस राजनैतिक घटनाक्रम के अतिरिक्त एक और घटना ऐसी है जो नेपाल में राजशाही की समाप्ति की भविष्यवाणी करती है तथा वर्तमान घटनाक्रम पर अपनी मोहर लगाती है। बताया जा रहा है कि 18वीं शताब्दी में नेपाल में राणा शासन को समाप्त करने वाले तथा अलग-अलग भागों में बिखरे हुए नेपाल के लोगों को एकजुट करने वाले गोरखा नरेश पृथ्वी नारायण शाह को बाबा गोरखनाथ जी ने यह आशीर्वाद दिया था कि नेपाल के राज सिंहासन पर इस शाही परिवार की 11वीं पीढ़ी तक राज करेगी। दरअसल 60 वर्षीय राजा ज्ञानेन्द्र नेपाल पर शासन करने वाली 11वीं पीढ़ी के अन्तिम राजा थे। वैसे तो एक जून 2001 को नेपाल के राजमहल में हुए दुनिया के सबसे बड़े सामूहिक शाही हत्याकांड में जिसमें कि राजा वीरेन्द्र विक्रम शाह, महारानी ऐश्वर्या, राजकुमार तथा राजकुमारियाँ सभी बड़े ही रहस्यमयी ढंग से मारे गए थे तथा इस बड़े हत्याकांड के बाद ही राजा ज्ञानेन्द्र वीर विक्रम शाह ने गद्दी संभाली। उसके पश्चात ज्ञानेन्द्र के बदनाम पुत्र पारस को नेपाल का युवराज भी घोषित कर दिया गया। भले ही राजा वीरेन्द्र की सपरिवार हत्या को उन्हीं के पुत्र द्वारा की गई कार्रवाई बताकर इतने बड़े शाही हत्याकांड को रफ़ा-दफ़ा करने का सफल प्रयास ज़रूर किया गया था परन्तु नेपाली जनता राजशाही के समाप्त होने तक उस वीभत्स हत्याकांड को न तो भुला पा रही थी और न ही राजा वीरेन्द्र के समान राजा ज्ञानेन्द्र को अपने दिलों में जगह दे पा रही थी।
बहरहाल अब न राजा वीरेन्द्र रहे न ही उनकी गद्दी पर बैठने वाले राजा ज्ञानेन्द्र की सत्ता और न ही 240 वर्ष पुरानी राजशाही। नेपाल अब हिन्दू राष्ट्र के बजाए धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में परिवर्तित हो चुका है। अब वर्तमान सरकार विशेषकर ग़रीबों व शोषितों के लिए संघर्ष का दावा करने वाले माओवादियों के समक्ष नेपाल को तरक्की क़ी राह पर ले जाने की बड़ी चुनौती है। सारा विश्व नेपाल में आए इस बड़े राजनैतिक परिवर्तन की ओर नज़रें लगाए हुए है तथा पूरी आशा के साथ नेपाल के उज्ज्वल भविष्य की कामना कर रहा है। देखना है कि हिंसा की राह पर चल कर सत्ता की मंजिलें तय करने वाले माओवादी आख़िर नेपाल के विकास के लिए कौन सी दिशा निर्धारित करेंगे।
तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी, शासी परिषद)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर, हरियाणा
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