3/02/2006

हिन्दी साहित्य और पत्र-पत्रिकाएँ


।। डॉ. कान्ति कुमार जैन ।।
हिन्दी के आधुनिक साहित्य की एक बड़ी विषेशता यह रही है कि वह अधिकांशतया पुस्तकों के रूप में पाठकों तक पहुँचने के पहले पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँच जाता है। हिन्दी में पुस्तकों के बारे में आम शिकायत यह है कि वे सही पाठकों तक सही वक्त पर नहीं पहुँच पाती। एक तो आम पाठकों की अच्छी पुस्तकों के प्रति ललक हिन्दी में कुछ कम ही है, दूसरे यदि ललक है भी तो पुस्तकें उन्हें आसानी से सुलभ नहीं हो पाती। अच्छी पुस्तकों से विशाल पाठक वर्ग परिचित हो सके, इसका कोई नियमित, सतोषजनक और स्थायी उपाय नहीं है। अच्छे प्रकाशन प्रतिष्ठान अपने-अपने प्रकाशन गृहों की परिचय-पत्रिकाएँ निकालते अवश्य हैं, किन्तु, वे सामान्य पाठक वर्ग तक नहीं पुहँच पातीं। विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्षों, महाविद्यालयों के प्राचार्यों, पंजीकृत शोध छात्रों, पुस्तक विक्रेताओं आदि के पास इन प्रकाशन गृहों की एक सूची पहुँती है, जिनमें नियमित रूप से अपने-अपने प्रकाशनों की पुस्तकों का परिचय होता है। सूचना मिल भी जाये तो उसे मंगाने की उमंग एवं पढ़ने की ललक कम ही पाठकों में होती है। ऐसी स्थिति में पत्र-पत्रिकाएँ साहित्य एवं पाठक के बीच एक बहुत बड़े सेतु का काम करती हैं। जहाँ पुस्तकें नहीं पहुँचतीं, वहीं पत्रिकाएँ आसानी से पहुँच जाती हैं। जो पुस्तकें पढ़ने का समय नहीं जुटा पाते वे पत्रिकाएँ पढ़ लेते हैं। जो पुस्तकें खरीदने में कठिनाई का अनुभव करते हैं, उनकी जेबें पत्रिकाओं के लिए आसानी से खुल जाती हैं।
पत्रिकाएँ पाठकों की परिचित सहचर हैं, वे पाठकों की प्रतीक्षा करवाने की सामर्थ्य रखती हैं। पाठक पत्रिकाओं के लेखकों को जानते हैं और लेखक भी पाठकों के स्तर और रुचियों का ध्यान रखते हैं। पत्रिकाओं, पाठकों, लेखकों का त्रिकोण है, जिसमें हर भुजा बराबर है और हर कोण समान। इसमें प्रेम के त्रिकोण की तरह कोई संघर्ष या तनाव नहीं है, बल्कि हर पक्ष एक सदभाव, एक समझदारी, एक हार्दिकता से बँधा होता है।
हिन्दी के सामयिक दौर को लघु पत्रिकाओं का दौर कहा जा सकता है। हिन्दी क्षेत्र का कोई कस्बा या नगर नहीं होगा जहाँ से कोई न कोई पत्रिका न निकलती हो। स्थानीय अथवा क्षेत्रीय रचनाधर्मिता के प्रति उमंगशील या मतवाद विशेष के प्रति प्रतिबद्ध लेखकों के लिए लघु पत्र-पत्रिकाएँ एक अत्यंत उपयोगी एवं मूल्यवान् मंच हैं। हिन्दी में लेखकों की जितनी बड़ी संख्या इस समय सर्जनात्मक रूप से सक्रिय है और आत्माभिव्यक्ति और सम्प्रेषण के लिए व्याकुल है उतनी बड़ी संख्या हिन्दी साहित्य के इतिहास के किसी दौर में सक्रिय नहीं रही। स्वयं को दूसरों तक पहुँचाने का जो मूल प्रयोजन साहित्य की प्रेरणा है, वह लघु पत्र-पत्रिकाओँ द्वारा एक सार्थक रूप से पूरा होता है। लघु पत्र-पत्रिकाएँ अपने चरित्र और व्यक्तित्व के कारण किसी विचारधारा या शैली का जैसा प्रगाढ़ स्वरूप उपस्थित करती हैं वैसा प्रतिष्ठित या व्यावसायिक पत्रिकाएँ नहीं कर सकतीं, नहीं कर पातीं। व्यवसायिक पत्रिकाओं में अब वह मिशन भाव संभव नहीं रह गया है जो सार्थक और श्रेष्ठ साहित्य के लिए उत्प्रेरक होता है। लघु पत्र-पत्रिकाएँ साहित्यकारों को निखारने-सँवारने में महत्वपूर्ण होती है।
विशाल पाठक समूह द्वारा पढ़ी जाने वाली बड़ी पत्रिकाएँ ही साहित्य सर्जना का कारण नहीं बनतीं, अनेक बार किसी निश्चित साहित्यिक-सांस्कृतिक-सैद्धांतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए भी पत्रिकाएँ निकाली जाती हैं। ‘विश्व भारती’ पत्रिका का प्रकाशन सन् 1942 के जनवरी मास से प्रारंभ हुआ था। शांति निकेतन में हिन्दी भवन की स्थापना के अवसर परगुरुदेव टैगोर ने यह इच्छा प्रकट की थी कि शांति निकेतनत से एक ऐसी हिन्दी पत्रिका प्रकाशित हो, जिसके द्वारा भारतवर्ष की साहित्यिक और सांस्कृतिक साधना को जो कुछ सर्वोत्तम है, उसका नियमित रूप से प्रचार और उन्नयन होता रहे। भारतवर्ष की तत्कालीन आस्था का विश्लेषण करके उन्होंने दिखाया था कि देश उस समय जिस प्रकार की नाना जाती की संकीर्णताओं का शिकार था, उससे रक्षा कर पाने का सर्वोत्तम उपाय साहित्य ही है।
पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘विश्व भारती’ पत्रिका के प्रथम संपादकीय में गुरुदेव को उदधृत करते हुए लिखा था कि ‘आज जो हिन्दू-मुसलमानों का लज्जाजनक विद्वेष देश को आत्मघात की ओर प्रवृत्त कर रहा है, उसकी जड़ में है – सारे देश में फाली हुई अबुद्धि। हमारी निर्धनता रूपी अलक्ष्मी ने् अशिक्षित अबुद्धि की सहायता से ही हमारे भाग्य की नींव उखाड़ने के काम में जासूस लगा दिये हैं। अपने आदमियों को हि वह शत्रु बनाए दे रही है, विधाता को हमारे विरुद्ध किये दे रही है। अंत में अपना सर्वनाश करने की हमारी जिद यहाँ तक बढ़ गई है कि आज हम अपनी ही भाषा को तोड़-फोड़ डालने की कोशिश से भी बाज नहीं आ रहे हैं. सब तरह के मतभेद होते हुए भी शिक्षा और साहित्य का जो उदार क्षेत्र एक राष्ट्रीय मनुष्य के मिलने का स्थान है, वहा भी हमारे काँटे बोने का आग्रह कम नहीं हुआ। नाव के नीचे जहाँ बंधन ढीला है, वहाँ हमें जल्दी हाथ लगाना पड़ेगा। इसके लिए सबसे पहले आवश्यक है – शिक्षित मन। शिक्षण संस्थानों के बाहर शिक्षा देने का उपाय है –साहित्य। यह साहित्य भावुकतापूर्ण न हो, रुढ़िबद्ध न हो और ज्ञान-विज्ञान के क्षितिजों का उदघाटन करने वाला हो।’ केवल रसमूलक साहित्य को गुरुदेव ने आधुनिक मनुष्य के लिए अपूर्ण बताया था। ‘विश्व भारती’ पत्रिका के माध्यम से केवल विश्व-भारती शिक्षा संस्थान को ही प्रेरित और अभिव्यक्त करने का लक्ष्य नहीं था, अपितु देश कि चिंताओं में कलाकारों और मनीषियों के सहयोग की भी उन्होंने आकांक्षा प्रकट की थी। वस्तुतः भारतवर्ष की एकता को दृढ़तर और स्थायी बनाने के जितने भी उद्योग हैं, उनमें साहित्यिक विचारों आदान-प्रदान का उद्योग प्रमुख है। इस दिशा में जो कुछ कार्य हुआ है, उसमें अधिक जोर रसमूलक साहित्य के सर्जन और अध्ययन पर ही दिया गया है। निस्संदेह यह कोई छोटी बात नहीं है, पर प्रांतीय साहित्यों की सर्जनात्मक ऊर्जा के अध्ययन का उद्देश्य कुछ और विशाल होना चाहिए।
‘भारतीय साहित्यकार की सर्जना का लक्ष्य समूची भारतीय जनता को समझने के लिए होना चाहिए। वे सभी भौगोलिक, ऐतिहासिक, भाषागत और जातिगत विशेषताएँ हमारी सर्जना का आधार हों, जिन्होंने किसी प्रांत को अलग व्यक्तित्व दिया है। इस दृष्टि से लोक गाथाएँ, लोक गीत, पूजा-पर्व की विधियाँ, रीति-रस्म, लोकोक्तियाँ, व्यवस्थापक निबंध, धार्मिक प्रेरणा देने वाले पुराण ग्रँथ और शास्त्रीय सिद्धांतों तथा पौराणिक कथाओं की लोक प्रचलित व्याख्याएँ आदि विषय बड़े यत्न से अध्ययन किये जाने चाहिए।’
इस प्रकार की रचनात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने में पत्र-पत्रिकाएँ कैसा योग दे सकती हैं, इसका उदाहरण वे पत्र-पत्रिकाएँ हैं जो किसी निश्चित जनपदीय संस्कृति और साहित्य पर एकाग्र होती है। पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘मधुकर’ नामक पत्रिका के माध्यम से बुंदेलखण्ड के जीवन और संस्कृति की प्रामवंत ऊर्जा का जैसा सर्जनात्मक प्रकाशन किया था, वह आज भी स्मरणीय है। प्रकाशन सुविधाओं के अभाव में बहुत से कृति सर्जक अपनी बात दूसरों तक नहीं पहुँचा सकते। आवश्यक नहीं है कि प्रतिष्ठित साहित्यकार ही अपनी रचनाओं से ऐसी पत्र-पत्रिकाओं को समृद्ध करें। शोध और सर्जना की तकनीकी बारीकियों से अनभिज्ञ अथवा अपरिचित लेखकों में ऐसी ताजगी और प्राणवत्ता होती है कि चमत्कृत रह जाना पड़ता है। ऐसी परत्रिकाएँ सर्जना के लिए आयामों के द्वार उदघाटित करती हैं। ‘ईसुरी’ नामक पत्रिका में जब बुंदेली के सिद्धवाक् कवि ईसुरी की फागों के खड़ी बोली अनुवाद छपे तो बुंदेली विद्वानों के एक वर्ग ने बड़ी आपत्ति की। उनकी आपत्ति का मुद्दा यह था कि बुंदेली जैसी सरस भाषा की कविता का अनुवाद ब्रज में तो हो सकता है, खड़ी बोली में नहीं। उन्होंने कहा कि ‘मैया मोरी, मैं नहीं माखन खायो, ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुँह लपटायो’ का अनुवाद यदि खड़ी बोली में इस प्रकार कर दिया जाए कि –
‘हे मा मेरी, मैंने मक्खन कब खाया ?
ग्वाल बाल सब दुश्मन मेरे, यों ही मुझे फँसाया।’
तो सूर के काव्य का सारा सौन्दर्य नष्ट हो जाएगा। हम ‘ईसुरी’ के संपादक के रूप में खड़ी बोली पर अक्षमता का यह आरोप स्वीकार करने को तैयान नहीं थे। कवि विशेष द्वारा किया गया कोई विशिष्ट अनुवाद अशक्त एवं सदोष हो सकता है, पर इसी कारण समूची भाषा की क्षमता को चुनौती देना आवश्यक नहीं है। फिट्जेराल्ड ने खैयाम की रूपाइयों का जैसा अनुवाद किया, वह तो मूल से भी अधिक काव्यात्मक और सुंदर था। हिन्दी में रूपाइयों के अनेक अनुवाद हुए हैं – केशव प्रसाद पाठक, मैथिलिशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, हरिवंशराय बच्चन जैसे अनेक समर्थ कवियों ने रूबाइयों के अनुवाद प्रस्तुत किए, पर जैसी सफलता केशव प्रसाद पाठक को मिली, वैसी किसी अन्य को नहीं। वास्तव में अनुवाद वही सफल होगा जो फुदकती गौरैया हो, भुस भरा सिद्ध नहीं। हमें प्रसन्नता है कि संस्कृत जैसी ललित और सिद्ध भाषा अन्यतम कवि कालीदास के अपूर्व रसमय काव्य ‘मेघदूत’ का बुंदेली अनुवाद गुण सागर सत्यार्थी की कलम से सधा है, वह कवि का सामर्थ्य तो प्रकट करता ही है, बुंदेली का भी। ‘मेघदूत’ का यह बुंदेली अनुवाद ‘ईसुरी’ द्वारा प्रारंभ हुआ था। साहित्यिक प्रतिभाओं की तलाश का काम जिस मुस्तैदी और सफलता से जनपदीय और लघु पत्रिकाएँ कर सकती हैं, वह अन्य माध्यमों से कठिन ही है। प्रकाशन केन्द्रों से दूर, प्रचार तंत्र से अनभिज्ञ, संकोचप्रिय, किन्तु संवेदनशील साहित्यकार के लिए पत्र-पत्रिकाओं का मंच बड़ा उपयोगी, सार्थक और मूल्यवान् मंच है।
हिन्दी के आधुनिक साहित्य का इतिहास एक तरह से पत्र-पत्रिकाओं में लिखे गए साहित्य का इतिहास है। आधुनिक हिन्दी में जितने महत्वपूर्ण आंदोलन छिड़े, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से छिड़े। न जाने कितने महत्वपूणर्ण साहित्यकार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रतिष्ठित हुए। न जाने कितनी श्रेष्ठ रचनाएँ पाठकों के सामने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से आईं। भारतेंदु युग के साहित्यकारों की केन्द्रीय पत्रिकाएँ थीं – ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’, ‘ब्राह्मण’ या ‘हिंदोस्तान’।
द्विवेदी युग और स्वयं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ उन दिनों की सर्वाधिक प्रतिनिधि पत्रिका थी। ‘सरस्वती’ में छपना उन दिनों बड़ी प्रतिष्ठा की बात थी। जो ‘सरस्वती’ में छप गया, उसका कद बढ़ गया। मैथिलीशरण गुप्त को ‘सरस्वती’ की ही देन हैं। छायावादी कवियों के साथ ‘मतवाला’, ‘इंदु’, ‘रूपाभ’, ‘श्री शारदा’ जैसी पत्रिकाओं के नाम जुड़े हैं। माखनलाल चतुर्वेदी का साहित्य तो ‘कर्मवीर’ को जाने बिना जानी ही नहीं जा सकता। हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य ‘हंस’ के पंखों पर चढ़कर नहीं आया। नई कविता की जन्मकुंडली ‘नए पत्ते’, ‘नई कविता’ जैसी पत्रिकाओं ने तैयार की। मुक्तिबोध को जब कोई प्रकाशक छापने कोतैयार नहीं था, तब ‘कल्पना’ और ‘वसुधा’ ने उन्हें पहचाना।
आधुनिक काव्यशास्त्र का मूर्धन्य ग्रंथ ‘एक साहित्यिक की डायरी’ सबसे पहले ‘वसुधा’ में धारावाहिक रूप से छपा। नई कहानी का आंदोलन ‘नई कहानियाँ’ पत्रिका ने छेड़ा और प्रतिष्ठित किया। ‘सारिका’, ‘साक्षात्कार’, ‘पूर्वग्रह’, ‘दस्तावेज’, ‘पहल’, ‘वसुधा’, जैसी पत्रिकाएँ समकालीन साहित्य को जानने-समझने के लिए अनिवार्य हैं। हिन्दी में यदि पत्र-पत्रिकाएँ न होतीं तो बहुत सारा साहित्य छपने से रह गया होता या वक्त पर नहीं छप पाता। इधर हिन्दी में पत्र-पत्रिकाएँ धीरे-धीरे बंद होती जा रही है। एक साहित्कार यदि माह में दो कहानियाँ भी लिखता है तो उसे कहानी संकलन के लिए कम से कम साल भर रुकना पड़ेगा। प्रत्येक साम उसकी कहानियाँ छप सकें, इसके लिए हिन्दी में पर्याप्त पत्र-पत्रिकाएँ नहीं हैं। व्यावसायिक पत्रिकाओं के स्थान पर अनियतकालिक पत्रिकाएँ, लघु पत्रिकाएँ एवं जनपदीय पत्रिकाएँ ज्यादा उपयोगी और सार्थक काम कर रही हैं। हिन्दी में अभी भी ऐसी कोई पत्रिका नहीं है जो माह भर में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित प्रतिनिधि रचनाओं को संकलित कर एक साथ उत्सुक और अध्ययनप्रिय पाठकों तक पहुँचा सके। सारी पत्र-पत्रिकाएँ कोई पाठक नहीं खरीद सकता। एक पत्रिका में छाँटकर-चुनकर संकलित रचनाओं को विशाल देश के पाठकों तक पहुँचाना और उन्हें विभिन्न विधाओं से परिचित कराना बड़ा काम है। पर यह काम होना चाहिए।


(रचनाकार डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय में माखनलाल चतुर्वेदी पीठ पर हिन्दी के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष रहे हैं। मुक्तिबोध एवं परसाई के मित्र रहे श्री जैन द्वारा सम्पादित बुंदेलखण्ड लोक संस्कृति की पत्रिका ‘ईसुरी’ को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली। ‘लौट कर आना नहीं होगा’ संस्मरणों की पहली ही पुस्तक से संस्मरणों की चर्चा और संस्मरण हिन्दी गद्य की केन्द्रीय विधा के रूप में प्रतिष्ठित ‘तुम्हारा परसाई’ संस्मरणात्मक समीक्षा के क्षेत्र में नया प्रयोग। ‘जो कहूँगा, सच कहूँगा’, ‘बेकुण्ठपुर में बचपन’, ‘केन्द्र में संस्मरण’ आदि संस्मरण शीघ्र प्रकाश्य। उन्हें सृजन सम्मान के छत्तीसगढ़ के हरि ठाकुर सम्मान – 2004 से अलंकृत किया जा चुका है । उनका पता है – विद्यापुरम, मकरोनिया कैम्प, सागर, मध्यप्रदेश 470004। - संपादक)

2 टिप्‍पणियां:

dr.pranav devendra shrotriya ने कहा…

hindi ke vishya mai aap ne jo kaha hai vah uchit hai.sodh patrikaki koi jankari ho to batane ka kasht kare.dhanyvad.

dr.pranav devendra shrotriya ने कहा…

hindi ki pustko ka prakashn nirntr hote rahna chahiye.pustko se jeevan naya adhdhay shuru hota hai.aap ki dvara likha gaya lekh v astva mai hindi ko nai disha dega.
shestha rachana ke liye dhnyvad.